+०६ गद्य

गद्य-काव्य

मनोगत भावों को अभिव्यक्त करने के लिए जब छन्दों से मुक्त व्यक्तवाणी में शब्दों का प्रयोग होता है तब वह शब्द-समूह गद्य कहलाता है। यह गद्य विषय-प्रतिपादन का एक ऐसा सरल मार्ग होता है, जिसमें पद्य की तरह छन्दों का बन्धन और यतियों का नियन्त्रण नहीं होता। यह सभी बन्धनों से उन्मुक्त होकर कल-कल निनादों के साथ भावना की धारा को प्रवाहित करता है। गद्य में अर्थावगति के लिए पाठक पद्य-सदृश नतो दण्डान्वय/खण्डान्वय के चक्कर में पड़ता है और न लेखक छन्द के बन्धन तथा यति की यन्त्रणा में आबद्ध होकर अभिप्रेत भावों को व्यक्त करने में असमर्थ होता है। आरम्भ में भावाभित्यक्ति की सुगमता, पद-प्रयोग की सरलता तथा लेखक और पाठक के बीच अभिलक्षित संप्रेषणीयता की जो प्रवृत्ति थी, उसमें क्रमशः कई प्रकार की कृत्रिमता का प्रवेश हो जाने के कारण गद्य के भी अनेक भेद-प्रभेद हो गए, जिनसे गद्य का भी वर्गीकरण होने लगा। भेद-प्रभेद के साथ गद्य-काव्य के विविध वैशिष्ट्यों का निरूपण इस अध्याय में अभीष्ट है।

श्रव्यकाव्य के पद्य तथा गद्य दो भेद हैं, जिनमें छन्दों के बन्ध से रहित पदसमूह को गद्य अभिहित किया गया है। गद्य के मुक्तक, वृत्तगन्धि, उत्कलिकाप्राय और चूर्णक-चार प्रभेद होते हैं। समासरहित पदों में निबद्ध गद्यबन्ध को मुक्तक, पद्यांशों से युक्त गद्यरचना को वृत्तगन्धि, रसयुक्त, दीर्घसमासों में विरचित गद्यप्रबन्ध को उत्कलिकाप्राय एवं थोड़े अर्थात् दो या तीन पदों में उपनिबद्ध गद्यसंरचना को चूर्णक के अभिधान से अलंकारशास्त्रीय ग्रन्थों में अभिहित किया गया है।' सर्वप्रथम अष्टादशपुराणों में प्राचीनतम ‘अग्निपुराण’ में विषय और शैली के आधार पर गद्य-काव्य के आख्यायिका, कथा, खण्डकथा, परिकथा और कथानक-इन पांच भेदों में विभाजन की चर्चा उपलब्ध होती है। इन उपर्युक्त भेदों के सम्बन्ध में आचार्य दण्डी की मान्यता है कि खण्डकथा, परिकथा तथा कथानक प्रभृति आख्यान जातियाँ कथा और १. द्रष्टव्यः अथ गद्यकाव्यानि। तत्र गद्यम्…..वृत्तगन्धोझितं गद्यं मुक्तकं वृत्तिगन्धि च। भवेदुत्कलिकाप्रायं चूर्णकञ्च चतुर्विधम् ।। आद्यं समासरहितं, वृत्तभागयुतं परम्। अन्यद्दीर्घसमासाख्यं तूर्य चाल्पसमासकम्।। साहित्यदर्पण-षष्ठपरिच्छेद ३३०-३१ २. द्रष्टव्यः अग्निपुराण ३६६/१२-१७ गद्य-खण्ड आख्यायिका में ही अन्तर्भूत हो जाती हैं। “अत्रैवान्तर्भविष्यन्ति शेषाश्चाख्यानजातयः" इति। आचार्य विश्वनाथ भी सिद्धान्ततः इसी पक्ष का अनुसरण करते हैं। अतएव विश्वनाथ ने भामह, दण्डी, रुद्रट आदि की तरह कथा और आख्यायिका दो प्रभेदों का वर्णन किया है। यद्यपि हेमचन्द्र ने अपने ‘काव्यानुशासन’ में गद्य-काव्य का विभाजन अनेक प्रकार से किया है, तथापि ये भेद अप्रचलित तथा मान्यताप्राप्त नहीं हैं। संस्कृत वाङ्मय में गद्यकाव्य कथा और आख्यायिका-दो ही रूप से विशेषतः उपलब्ध है। अतः यहाँ इन दोनों के लक्षणों की चर्चा प्रासङ्गिक है। __ कथा और आख्यायिका के भेदक तत्त्व के सम्बन्ध में समीक्षकों में मतभेद है। ‘अमरकोष’ के अनुसार कथा की कथावस्तु कविकल्पित होती है और आख्यायिका का इतिवृत्त ऐतिहासिक, अथवा ऐतिय पर आधृत होता है। संस्कृत आलंकारिकों में सर्वप्रथम भामह ने इस भेद को प्रकाश में लाया है। भामह के अनुसार आख्यायिका का इतिवृत्त वास्तविक होता है। नायक उसका वक्ता होता है। आख्यायिका कई उच्छवासों में विभक्त होती है, जिनके आदि-अन्त में भावी घटनाओं की सूचना वक्त्र अथवा अपरवक्त्र छन्दों के द्वारा दी जाती है। कन्याहरण, युद्ध, वियोग इत्यादि कई विषयों से सम्बद्ध, कवि अपनी कल्पना का भी समावेश करता है। आख्यायिका का समापन नायक की विजय से होता है। इसकी भाषा संस्कृत होती है। इसके विपरीत कथा की कथावस्तु कविकल्पित होती है। इसका वक्ता नायक से भिन्न इतर व्यक्ति होता है। इसमें नतो उच्छ्वासों के द्वारा विभाजन होता है और न वक्त्र-अपरवक्त्र छन्दों की योजना की जाती है। कथा की भाषा संस्कृत या प्राकृत कोई भी हो सकती है। आचार्य दण्डी का कथन है कि कोई निश्चित नियम १. द्रष्टव्यः तत् कथारव्यायिकेत्येकाजातिः संज्ञाव्यङ्किता। अत्रैवान्तर्भविष्यन्ति शेषाश्चाख्यानजातयः।। काव्यादर्श १-२८ २. द्रष्टव्यः काव्यानुशासन पृष्ठ ४०६-७ ३. द्रष्टव्यः आख्यायिकोपलब्धार्था, प्रबन्धकल्पना कथा। अमरकोष १५/५६ · ४. द्रष्टव्यः प्राकृतानाकुलश्रव्य-शब्दार्थपदवृत्तिना। गद्येन युक्तोदात्तार्था सोच्छ्वासा ऽऽख्यायिका मता।। वृत्तमाख्यायते तस्यां नायकेन स्वचेष्टितम्। वक्त्रं चापरवक्त्रं च काले भाव्यर्थशंसि च।। न माना कवेरभिप्रायकृतैरङ्कनैः कैश्चिदकिता। कन्याहरणसंग्रामविप्रलम्भोऽदयान्विता।। न वक्त्रापरवक्त्राभ्यां युक्ता नोऽच्छ्वासवत्यपि। संस्कृतं संस्कृता चेष्टा कथाऽपभ्रंशभाक् तथा।। अन्यैः स्वचरितं तस्यां नायकेन तु नोच्यते। स्वगुणाविष्कृतिं कुर्यादभिजातः कथं जनाः।। काव्यालंकार १.२५-२६ गद्य-काव्य नहीं है कि नायक, कथा का वक्ता हो तथा वक्त्र-अपरवक्त्रादि छन्दों का प्रयोग हो और कथानक के लम्भक अथवा उच्छ्वास आदि में विभाजित होना भी विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं है। कथा और आख्यायिका के मध्य इन उपर्युक्त तथ्यों को विभाजक रेखा के रूप में स्वीकारोक्ति का कोई औचित्य नहीं है। वस्तुतः दोनों-कथा और आख्यायिका दो संज्ञाओं से युक्त एक ही जाति हैं। शेष आख्यानों की जातियों का समावेश इन्हीं दोनों में हो जाता है।’ रुद्रट ने मध्यमार्ग का अनुसरण किया है तथा उनके अनुसार कथा का प्रारम्भ पद्य में गुरु और देवता की वन्दना से होता है। कवि को अपने वंश के परिचय के साथ गद्य में कथा का प्रारम्भ करना चाहिए। प्रधान कथा में अवान्तरीय कथानकों का समावेश हो जिनका अभीष्ट प्रतिपाद्य कन्याप्राप्ति हो। कथा की भाषा संस्कृत हो तो गद्य में और इतर भाषा हो, तो कथा पद्य में निबद्ध होनी चाहिए। संस्कृत वाङ्मय के विज्ञ समीक्षकों की मान्यता है कि आचार्य रुद्रट ने कथा और आख्यायिका के लक्षणों की जो चर्चा प्रस्तुत की उससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उनके सम्मुख बाणभट्ट की अतिद्वयी ‘कादम्बरी’ और ‘हर्षचरित’ निदर्शन स्वरूप लक्ष्यग्रन्थों के रूप में विद्यमान थे; क्योंकि उनके निर्धारित लक्षण-विशिष्ट रूप से उनमें घटते हैं। यद्यपि दण्डी ने उच्चस्वर से उद्घोषणा कर दी थी कि ओजगुण समन्वित समास की बहुलता ही गद्य का जीवन है। अतः समास का आधिक्य ही संस्कृत गद्यकाव्य के दो प्रकारों-कथा और आख्यायिका का उल्लेखनीय लक्षण बन गया था, तथापि आनन्दवर्धनाचार्य की मान्यता है कि आख्यायिका में मध्यम तथा अदीर्घसमासों की योजना होनी चाहिए। विशेषरूप से विप्रलम्भ श्रृङ्गार तथा करुणरसों की द्रष्टव्यः अपादः पदसन्तानो गद्यमाख्यायिका कथा। इति तस्य प्रभेदौ द्वौ तयोराख्यायिका किल।। नायकेनैव वाच्यान्या नायकेनेतरेण वा। स्वगुणाविष्क्रिया दोषौ नात्र भूतार्थशंसिनः।। अपित्वनियमो दृष्टस्तत्राप्यन्यैरुदीरयात्। अन्यो वक्ता स्वयं वेत्ति कीदृग्वा भेदलक्षणम् ।। वक्त्रं चापरवक्त्रं च सोच्छ्वासं चापि भेदकम्। चिहमाख्यायिकायाश्चेत् प्रसङ्गेन कथास्वपि।। आर्यादिवत्प्रवेशः किं न वक्त्रापरवक्त्रयोः। भेदश्च दृष्टो लम्भादिरुच्छ्वासो वास्तु किं ततः।। तत्कथाख्यापिकत्येका जातिः संज्ञाद्वयाङ्किता। अत्रैवान्तर्भविष्यति शेषाश्चारख्यानजातयः।। काव्यादर्श १.२३-२८ द्रष्टव्यः “आख्यायिकायां तु भूम्ना मध्यमसमासदीर्घसमासे एव संघटने। गद्यस्य विकटनिबन्धाश्रयेणच्छायावत्त्वात्। तत्र च तस्य प्रकृष्टमायत्वात्। कथायां तु विकटबन्धप्राचुर्येऽपि गद्यस्य रसबन्धोक्तमौचित्यमनुसतव्यम्….गद्यबन्धेऽपि अतिदीर्घसमासरचना न विप्रलम्भशृङ्गारकरुणयोराख्यायिकायामपि शोभते।” ध्वन्यालोक, पृष्ठ १४३ गद्य-खण्ड अभिव्यञ्जना में आख्यायिका के गद्यबन्ध में अतिदीर्घ-समासरचना नहीं ही होनी चाहिए। अभिनवगुप्तपादाचार्य ने तो आख्यायिका और कथा में एतावन्मात्र भेदक माना है कि आख्यायिका, उच्छ्वासों में विभक्त होती है तथा उसमें वक्त्र और अपरवक्त्र छन्दों का प्रयोग होता है, परन्तु कथा इन सब से रहित होती है।’ साहित्यदर्पणकार की मान्यता है कि कथा गद्य की सुसज्जा से समन्वित होती है, जिसमें आर्या, वक्त्र और अपरवक्त्र छन्द यत्र-तत्र प्रयुक्त होते हैं। कथा का प्रारम्भ नमस्कारात्मक पद्य से होता है तथा दुष्टों के आचरण का प्रकाशन भी उसमें रहता है। आख्यायिका कथा के सदृश होती है, जिसमें कवि अपने वंश का वर्णन करता है। कहीं-कहीं अन्य कवियों के वृत्त का वर्णन भी पद्यों में उपलब्ध होता है। आख्यायिका के विभाजक आश्वास होते हैं तथा प्रत्येक आश्वास के आदि में अन्यापदेश से भावी इतिवृत्त की सूचना दी जाती है। संस्कृत वाङ्मय के मूर्धन्य इन काव्यशास्त्रीय आचार्यों की विचारित लक्षणों की विवेचना से यह निष्कर्ष निकलता है कि आख्यायिका की कथावस्तु जहाँ अवश्यमेव इतिहास-प्रसिद्ध तथा भूतकालिक घटना पर होना चाहिए, वहाँ कथा की सर्वथा कविकल्पना प्रसूत। समन्वितरूप से आलंकारिकों के द्वारा निर्धारित लक्षण कवि बाण की आख्यायिका ‘हर्षचरित’ और कथा ‘कादम्बरी’ में पूर्णरूप से चरितार्थ होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य रुद्रट की परिभाषा तो इन्हीं दो उपर्युक्त ग्रन्थों को लक्ष्य बनाकर निर्धारित की गई है। विशिष्ट लक्ष्यग्रन्थों के अभाव में वस्तुस्थिति भी यही है कि बाणभट्ट ने अपनी प्रतिभा सम्पन्न लेखनी से उभयविध गद्य-प्रकार का प्रथमतः दृष्टान्त प्रस्तुत किया जो अन्य कवियों के लिए अनुकरणीय निदर्शन बन गया। उन्होंने स्वयं ‘हर्षचरित’ की प्रस्तावना में ‘करोम्याख्यायिकाभ्भोधौ जिह्वाप्लवनचापलम्’ का उल्लेख कर आदर्श आख्यायिका के स्वरूप की अवतारणा की है। तथा ‘बृहत्कथा’ तथा ‘वासवदत्ता’ का अतिक्रमण करने वाली १. द्रष्टव्यः “आख्यायिकोच्छ्वासादिना वक्त्रापरववक्त्रादिना च युक्ता। कथाविरहिता।" लोचन पृष्ठ १४३ २. द्रष्टव्यः “कथायां सरसं वस्तु गद्यैरेव विनिर्मितम्। क्वचिदत्र भवेदार्या क्वचिद् वक्त्रापरवक्त्रके। आदौ पद्यैर्नमस्कारः खलादेवृत्तकीर्तनम्।।” साहित्यदर्पण षष्ठ परिच्छेद Dr. Peterson read “पद्यैरेव विनिर्मितम्” and translated ‘A Katha …… is a narrative in prose of matter already existing in a metrical form" कादम्बरी भूमिका पृ. ६६ ‘आख्यायिका कथावत्स्यात्कवेवंशानुकीर्तनम्। अस्यामन्यकवीनां च वृत्तं पद्यं क्वचित् क्वचित्। कथांशानां व्यवच्छेद आश्वास इति कथ्यते। आर्यावक्त्रापरवक्त्राणां छन्दसा येन केनचित्। अन्यापदेशाश्वासमुखे भाव्यर्थसूचनम्। द्रष्टव्यः “सुखप्रबोधललिता सुवर्णघटनोज्ज्वलैः। शब्दैराख्यायिका भाति शय्येव प्रतिपादिकैः।।" हर्षचरित-प्रस्तावना श्लोक २० गद्य-काव्य ‘अतिद्वयी’ ‘कादम्बरी’ के द्वारा आदर्श कथा को प्रस्तुत कर गद्य-काव्य को गौरवान्वित किया है। पद्य तथा गद्य दोनों विधाओं के सुलभ होते हुए भी संस्कृत वाङ्मय के विविध शास्त्रकारों ने पद्य को ही गद्य की अपेक्षा अत्यधिक प्रश्रय प्रदान किया और यहाँ तक कि ज्योतिष, वैद्यक आदि वैज्ञानिक विषयों के शास्त्रीय ग्रन्थ छन्दोबद्ध ही हैं। यह संस्कृत साहित्य के इतिहास का एक विचारणीय विषय है कि पद्य विधा में छन्दों के लघु-गुरु के विन्यास तथा ऊपर से यति के नियम के अंकुश के होते हुए भी साहित्य-निर्माताओं ने पद्य के माध्यम से समस्त वाङमय की विपलराशि का प्रणयन किया, जब कि गद्य-विधा में निबद्ध ग्रन्थों की संख्या अंगुलीपरिगणनीय है। समीक्षकों ने इस उपर्युक्त प्रश्न के समाधानार्थ पद्य की श्रुति-मधुरता, गेयता, स्मृति-पटल पर संरक्षणार्थ क्षमता इत्यादि को उत्तर में प्रस्तुत किया है, पर इसका बौद्धिक विश्लेषणात्मक हल ग्राह्य नहीं होता। संस्कृत गद्य का प्राचीनतम रूप यजुर्वेद में मिलता है। यद्यपि जर्मन संस्कृत विद्वान् ओल्डनवर्ग का कथन है कि ऋग्वेद के सम्वादसूक्त प्रथमतः पद्य-गद्य-मिश्रित थे, जिनका पद्य-भाग स्मरणीय होने के कारण अवशिष्ट रह गया लेकिन गद्यांश समय के प्रवाह में लुप्त हो गया, किन्तु यह मत सर्वमान्य नहीं है। शुक्ल-यजुर्वेद में कतियय गद्यात्मक मन्त्र हैं, जिन्हें ‘यजूंषि’ की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। कृष्ण-यजुर्वेदीय तैत्तिरीय, काठक मैत्रायणी आदि संहिताओं में मन्त्रों के विनियोग, यज्ञीय क्रियाओं की व्याख्या एवं संस्तुतिपरक भाग सभी गद्य में ही है जो प्रायः मात्रा में अधिक है। अथर्ववेद के १५वें तथा १६वें काण्डों में गद्यांश उपलब्ध है। ब्राहणसाहित्य का प्रधान प्रतिपाद्य कर्मकाण्ड की व्याख्या गद्य में है। यज्ञ-अनष्ठान की विधियों. मन्त्रों की व्याख्या. यज्ञ-क्रिया से सम्बद्ध क्लिष्ट शब्दों की व्युत्पत्तियों के साथ-साथ ब्राह्मण-ग्रन्थों में लघु तथा बृहत् अनेक आख्यानों का भी गद्य में वर्णन है। अतः यह समस्त उपर्युक्त ब्राह्मण-ग्रन्थों का गद्य वर्णनात्मक है। भाषा बोल-चाल की है। ‘ह’, ‘वाव’, ‘वै’, ‘खलु’ इत्यादि अव्ययों के प्रयोग की बहुलता है। इनकी शैली समास-रहित तथा सरल है। वाक्य छोटे-छोटे हैं। इनकी भाषा पाणिनीय व्याकरण का अनुसरण नहीं करती जिससे इनकी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। वैदिक वाङ्मय में ब्राह्मणों के अनन्तर आरण्यक साहित्य का विवेच्य वैदिक यज्ञों की ज्ञान-प्रधान रहस्यात्मक व्याख्या भाषा भी सरल गद्यमय है। उपनिषदों में आरण्यक साहित्य के ज्ञान-मार्ग का विकास जो चरमोत्कर्ष पर पहुँचा है, ‘बृहदारण्यक’, छान्दोग्य’, ‘तैत्तिरीय’, ‘कौषतकि’ प्रभृति उपनिषदें गद्य में ही हैं। इनकी और ब्राह्मण-ग्रन्थों की भाषा में बड़ा सामीप्य है। उसकी तुत्ननामें ‘प्रश्न’, मैत्रायणी, ‘माण्डूक्य’ आदि उपनिषदों का गद्य अधिक परिष्कृत है और लौकिक संस्कृत गद्य से बहुत मिलता-जुलता है। वेदाङ्ग के अन्तर्गत कल्प-साहित्य के श्रौतसूत्रों और गृह्यसूत्रों में सर्वप्रथम संस्कृत गद्य की संक्षिप्त शैली दृष्टिगत होती है जिसके विकासगद्य-खण्ड का उत्कर्ष पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में उपलब्ध होता है। सम्भवतः इसी संक्षेपीकरण की प्रवृत्ति ने लौकिक संस्कृत गद्य की समास-बहुला शैली को जन्म दिया है। संस्कृत वाङ्मय का विपुल भण्डार अधिकांशतः पद्यमय ही है। गद्य साहित्य का विशेषतः अलंकृत साहित्य अपेक्षाकृत अत्यन्त न्यून है। समस्त संस्कृत गद्य साहित्य अनलंकृत और अलंकृत-दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। लौकिक अनलंकृत शैली के गद्य का प्राचीनतम रूप महर्षि पतञ्जलि के ‘महाभाष्य’ में उपलब्ध होता है, जिसकी उल्लेखनीय विशेषता है कि इसके माध्यम से व्याकरणशास्त्र के सदृश जटिल विषय की कथोपकथन शैली के द्वारा व्याख्या सुगम तथा आकर्षक ढंग से प्रस्तुत की गई है। इस गद्य की सरसता, सरलता एवं रमणीयता दर्शनीय है : __“ये पुनः कार्याभाषा निर्वृत्तौ तावत् तेषां यत्नः क्रियते। तद् यथा घटेन कार्य करिष्यन् कुम्भकारकुलं गत्वाह-कुरु घटं कार्यमनेन करिष्यामीति। न तद्वच्छब्दान् प्रयुयुक्षमाणो वैयाकरणकुलं गत्वाह-कुरु शब्दान् प्रयोक्ष्य इति। तावत्येवार्थमुपादाय शब्दान् प्रयुज्यते।" (पस्पशाहिक) अनलंकृत शैली के गद्य का स्वरूप महाभाष्य के अतिरिक्त षड्दर्शनों के सूत्र-ग्रन्थों पर विरचित भाष्यों में दृष्टिगत होता है। दार्शनिक गद्य के महत्त्वपूर्ण उदाहरण मीमांसासूत्रों पर प्रणीत शबर-स्वामी का भाष्य, न्यायसूत्रों पर वात्स्यायन-भाष्य, वेदान्तसूत्रों पर आचार्य शंकर के भाष्य और योगसूत्रों पर व्यास के भाष्य हैं। इन भाष्यों के गद्य प्रौढ़, प्राञ्जल एवं सारगर्भित हैं। आयुर्वेद, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, अलंकार प्रभृति शास्त्रीय ग्रन्थों का निर्माण भी गद्यात्मक सूत्र-शैली में हुआ है जिनमें पारिभाषिक शब्दों और समासों की बहुलता है। ३अलंकृत शैली का गद्य संस्कृत वाङ्मय के नाट्य-ग्रन्थों, चम्पू-काव्यों एवं गद्य-काव्यों में पाया जाता है। इस प्रकार के गद्य का उद्भव और विकास कब तथा कैसे हुआ? यह अज्ञात है। इस गद्य का सद्भाव ईसा की प्रथम तथा द्वितीय शती के शिलालेखों में प्रथमतः दृष्टिगोचर हुआ-जिनमें पश्चिमी भारत के विख्यात क्षत्रप रुद्रदामन् तथा ईसा के चतुर्थ शताब्दी के गुप्तनरेशों के प्रशस्तिपरक शिलालेख उल्लेखनीय हैं। वह गद्य विकसित रूप से अकस्मात् महाकवि सुबन्धु, बाणभट्ट और दण्डी की रचनाओं में उपलब्ध होता है। पूर्व का इतिहास अन्धकार से आवृत है, लेकिन इन उपर्युक्त कवियों की कृतियों के सिंहावलोकन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे गद्यकाव्यों का आविर्भाव आकस्मिक घटना नहीं है, प्रत्युत शताब्दियों की साहित्यिक साधना का प्रतिफल है। सुबन्धु, बाण और दण्डी के पूर्व गद्य-काव्यों की संरचना हो रही थी, जिनके संकेत प्राप्त होते हैं। कात्यायन ने ‘वार्तिक’ में आख्यायिका का उल्लेख किया है।’ पतञ्जलिकृत ‘महाभाष्य’ में ‘वासवदत्ता’, ‘सुमनोत्तरा’ और ‘भैमरथी’ इन आख्यायिकाओं का निर्देश किया गया है। भोज ने अपने ‘शृङ्गार-प्रकाश’ १. द्रष्टव्यः “लुबाख्यायिकाभ्यो बहुलम्", “आख्यानाख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यश्च” वार्त्तिक २. द्रष्टव्यः “अधिकृत्य कृते ग्रन्थे’ बहुलं लुग्वक्तव्यः। वासवदत्ता सुमनोत्तरा। न च भवति। भैमरथी"। महाभाष्य ४.३.८७ गद्य-काव्य में ‘मनोवती’ और ‘सातकर्णीहरण’ नामक कृतियों की ओर संकेत किया है। दण्डी भी ‘मनोवती’ की ओर संकेत करते हुए प्रतीत होते हैं।’ वररुचि ने ‘चारुमती’ तथा हाल के राजकवि श्रीपालित ने ‘तरङ्गवती’ कथा लिखी थी। रामिल-सोमिल ने ‘शूद्रक-कथा’ की रचना की थी। स्वयं बाणभट्ट ने अपनी आख्यायिका ‘हर्षचरित’ में भट्टारहरिचन्द्र नामक उच्च कोटि के गद्य-लेखक के हृदयहारी गद्य की संस्तुति की है। इन कवियों के और इनकी रचनाओं के आज केवल नाममात्र ही शेष हैं, किन्तु इनसे गद्य-काव्यों की विस्तृत परम्परा की ओर संकेत अवश्य मिलता है। __ अलंकृत गद्य की प्राचीनतम रचना-महाक्षत्रप रुद्रदामन् (१५० ई.) के गिरिनार-शिलालेख तथा प्रयाग के किले में अवस्थित स्तम्भ उत्कीर्ण समुद्रगुप्त की प्रशस्ति (३५० ई.) में उपलब्ध है। इन शिलालेखों की गद्य-शैली की उल्लेखनीय विशेषता है कि इसमें दीर्घ समासयुक्त पदों की योजना तथा अनुप्रास-श्लेषादि अलंकारों का समावेश हृदयावर्जक तथा दर्शनीय है : __“प्रमाणमानोन्मान-स्वरगतिवर्ण-सारसत्त्वादिभिः परमलक्षणव्यञ्जनैरुपेतैःकान्तमूर्तिना स्वयमधिगतमहाक्षत्रपनाम्ना नरेन्द्रकन्यास्वयंवरानेकमाल्यप्राप्तदाम्ना महाक्षत्रपेण रुद्रदाम्ना सेतुं सुदर्शनतरं कारितम्।” इन उपर्युक्त शिलालेखों की अलंकृत गद्य-विधा को उजागर तथा अग्रसारित करने वाली गद्यात्मक कृतियों के अभाव में ऐतिहासिक गवेषणा इसी निष्कर्ष पर पहुंची है कि यह परम्परा शताब्दियों तक लुप्त थी जिसके प्रकाशित करने का श्रेय महाकवि सुबन्धु, बाण एवं दण्डी की रचनाओं को ही है। फलतः गद्यकाव्यों के इन महनीय निर्माताओं की त्रयी का समयक्रम से विवेचन ही समीचीन प्रतीत होता है।