०४ कवयित्र्यः - हिन्दी

लौकिक संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ

भारतीय इतिहास के प्राचीन काल तथा मध्यकाल के अन्तर्गत श्रीसम्पन्न कुल में उत्पन्न कन्याओं को विविध शास्त्रों के अतिरिक्त चौसठ ललित कलाओं की भी शिक्षा दी जाती थी, जिनमें काव्यकला को अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण तथा उपादेय माना जाता था। कामसूत्र के रचयिता वात्स्यायन तथा काव्यमीमांसा के रचयिता राजशेखर के अनुसार पुरुष के समान महिलाएँ भी कवित्व-शक्ति से सम्पन्न हुआ करती थीं। इस सन्दर्भ में वहीं कहा गया है कि राजकन्याओं, महामात्य की पुत्रियों एवं गणिकाओं की काव्यकला-कुशलता सुप्रसिद्ध है। उपर्युक्त साक्ष्य से संस्कृत में काव्य रचना करने वाली महिला-कवियों की परम्परा का अस्तित्व असन्दिग्धभाव से प्रमाणित होता है। लौकिक संस्कृत साहित्य की काव्यमूर्ति को अपनी मञ्जुल कृतियों से विभूषित करने वाली महिला कवियों के नाम प्रकाशित एवं अप्रकाशित विभिन्न सुभाषित-सङ्ग्रहों तथा अलङ्कारशास्त्र के लक्षण-ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। कुछ महिला कवियों के तो केवल नाम ही उपलब्ध होते हैं; उनकी रचनाएँ उपलब्ध नहीं होती हैं। इनके अतिरिक्त आधुनिक काल की महिला कवियों की विविध स्वतन्त्र रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। इनमें समसामयिक सन्दर्भो का यथेष्ट प्रतिबिम्बन दृष्टिगोचर होता है। प्रस्तुत निबन्ध में चर्चित महिला कवियों के नाम कालक्रम के अनुसार निम्नस्थ हैं: (१) चण्डाल विद्या (ईसा की चौथीं सदी) (२) फल्गुहस्तिनी (ईसा की आठवीं सदी) (३) शीला भट्टारिका (ईसा की नौवीं सदी) विकटनितम्बा (ईसा की नौवीं सदी) विज्जका (ईसा की नौवीं सदी) (६) भावक देवी (ईसा की नौवीं सदी) (७) चिन्नम्मा (ईसा की दसवीं सदी) (८) सरस्वती (ईसा की दसवीं सदी) (E) सीता (ईसा की दसवीं सदी) (१०) त्रिभुवन सरस्वती (ईसा की दसवीं सदी) (११) मोरिका (ईसा की दसवीं सदी) (१२) मारुला (ईसा की तेरहवीं सदी) (१३) इन्दुलेखा (ईसा की पन्द्रहवीं सदी) (१४) लखिमा देवी (ईसा की पंन्द्रहवीं सदी) केक (१५) गङ्गा देवी (ईसा की पन्द्रहवीं सदी) (१६) तिरुमलाम्बा (ईसा की सोलहवीं सदी) २६४ गद्य-खण्ड (१७) मधुरवाणी जी (ईसा की सत्रहवीं सदी) (१८) रामभद्राम्बा (ईसा की सत्रहवीं सदी) (१६) पद्मावती (ईसा की सत्रहवीं सदी) (२०) गौरी (ईसा की सत्रहवीं सदी)

(०१) चण्डालविद्या (ईसा की चौथीं सदी)

सक्तिकर्णामृत के अन्तर्गत इनके द्वारा रचित एक पद्य को समुद्धत किया गया है, जिसके सह-रचयिता के रूप में विक्रमादित्य और कालिदास के नाम उपलब्ध होते हैं। कहा जाता है कि ये विक्रमादित्य की राजसभा के अन्तर्गत लब्धप्रतिष्ठ कवयित्री के पद पर आसीन थीं। इनका पद्य इस प्रकार है : क्षीरोदाम्भसि मज्जतीव दिवसव्यापारखिन्नं जगत् तत्क्षोभाज्जलबुदबुदा इव भवन्त्यालोहितास्तारकाः। चन्द्रः क्षीरमिव क्षरत्यविरतं धारासहस्रोत्करै रुद्ग्रीवैस्तृषितैरिवाद्य कुमुदैर्घोत्स्नापयः पीयते।। जीवन-यात्रा के निर्वाह के क्रम में दिनभर आवश्यक क्रियाकलाप में व्यस्त रहने के कारण क्लान्त-श्रान्त यह सारा संसार मानो क्षीरसागर में डूबता हुआ प्रतीत होता है। उसके क्षोभ से उत्पन्न पानी के बुलबुलों के समान स्वच्छ नक्षत्रपुञ्ज सान्ध्यराग से रूषित होने के कारण रक्ताभ दीख पड़ते हैं। चन्द्रमा अपनी सहस्र-सहस्र रश्मि-धाराओं से मानो दूध की वर्षा कर रहा हो, ऐसा दीख पड़ता है। आज पिपासातुर की भाँति गरदन उठाकर कुमुदसमूह ज्योत्स्नारूपी जल को पी रहे प्रतीत होते हैं।

(०२) फल्गुहस्तिनी (ईसा की आठवीं सदी)

कवयित्री फल्गुहस्तिनी का चन्द्रोदय-वर्णन-परक निम्नस्थ श्लोक शार्ङ्गधरपद्धति और सुभाषितरत्नभाण्डागार में सङ्कलित किया गया है, जिससे इनकी ख्याति का परिचय प्राप्त होता है। त्रिभुवनजटावल्लीपुष्पं निशावदनस्मितं ग्रहकिसलयं सन्ध्यानारी-नितम्ब-नखक्षतम्। तिमिरभिदुरं व्योम्नः शृङ्ग मनोभवकार्मुकम् प्रतिपदि नवस्येन्दोर्बिम्बं सुखोदयमस्तु नः।। शुक्ल प्रतिपदा तिथि की नवोदित चन्द्र-कला भगवान् शङ्कर की जटावल्लरी में विन्यस्त श्वेतपुष्प है, निशासुन्दरी के मुख का मन्दस्मित है, आकाशमण्डल में उदित लौकिक संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ २६५ नक्षत्रपुञ्ज का किसलय है, सन्ध्यारूपी कामिनी के नितम्ब पर अङ्कित नखक्षत है, अन्धकार को विदीर्ण करने वाला व्योम का शृङ्ग है तथा कामदेव का विश्वविजयी धनुष है। यह बाल-चन्द्र हमारे लिए सुखप्रद हो।

(०३) शीला भट्टारिका (ईसा की नवम शताब्दी)

शीला भट्टारिका संस्कृत की महिला कवयित्रियों में बहुचर्चित हैं। इनके पद्य कवीन्द्रवचन समुच्चय, शार्ङ्गधरपद्धति तथा अलङ्कारसर्वस्व में उद्धृत किए गए हैं। राजशेखर ने शब्दार्थ की अनुरूप गुम्फना के लिए बाणभट्ट के साथ ही इनको भी प्रशंसनीय माना है। धनददेव ने इन्हें विद्वता और विदग्धता की समान रूप से अधिकारिणी कहा है। इनकी कविताओं में मन की विविध वृत्तियों का बड़ा ही सूक्ष्म चित्रण प्राप्त होता है। पदयोजना की सरलता, सरसता और रमणीयता के साथ ही जीवन की अम्ल-मधुर अनुभूतियों के चित्रण की यथार्थता इनकी उल्लेखनीय विशेषता है। मानिनी के मान एवं नायक द्वारा उसे मनाने के वर्णनों से तो संस्कृत साहित्य भरा पड़ा है, किन्तु इनके निम्न उद्धृत पद्य में ठीक इससे विपरीत स्थिति का वर्णन प्राप्त होता है: विरहविषमो वामः कामः करोति तनुं तनुं दिवसगणनादक्षश्चायं व्यपेत घृणो यमः। त्वमपि वशगो मानव्याधेर्विचिन्तय नाथ हे! किसलयमृदु वेदेवं कथं प्रमदाजनः।। विहर के कारण विषम वेदना देने वाला यह कामदेव मेरा प्रतिकूल होकर मेरे शरीर को प्रतिदिन क्षीण करता जा रहा है। यमराज भी बड़ा ही निष्ठुर है। जीवनावधि के दिनों की गणना करने में सिद्धहस्त होने पर भी मेरे सम्बन्ध में उसकी अदक्षता ही प्रमाणित होती है। और, हे नाथ ! तुम्हें भी तो इस मानरूपी व्याधि ने ग्रस लिया है। फिर, ऐसी स्थिति में, किसलय के समान कोमल युवती जिए तो कैसे जिये ?

(०४) विकटनितम्बा (ईसा की नवम शताब्दी)

कवयित्री विकटनितम्बा का नाम संस्कृत की महिला कवियों की प्रथम पंक्ति में सुप्रतिष्ठित माना जाता है। इनके द्वारा रचित पद्यों के उद्धरण संस्कृत के सभी प्रमुख सुभाषित संग्रहों तथा अलङ्कारशास्त्र के ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। कृत्रिमता और दूरारूढ कल्पनाओं के अभाव में इनकी काव्य-शैली असाधारण रूप से सरल तथा मनोहर है। अपने कथ्य को आडम्बरविहीन भाषा में उपस्थित कर देना इनके काव्य-शिल्प की विशेषता है। यहाँ इनके कतिपय पद्य उदाहृत हैं : व२६६ गद्य-खण्ड लावण्यसिन्धुरपरैव हि केयमत्र यत्रोत्पलानि शशिना सह संप्लवन्ते। उन्मज्जति द्विरदकुम्भतटी च यत्र यत्रापरे कदलिकाण्डमृणालदण्डाः।। प्रस्तुत श्लोक में नदीतट पर स्नानार्थ समागत किसी युवती का वर्णन किया गया है। यहाँ दूसरी ही कौन सी लावण्य की नदी है यह, जिसमें चन्द्रमा के साथ कमल तैर रहे हैं, जिसमें हाथी के मस्तक का प्रान्तभाग जल से प्रकट हो रहा है तथा जिसमें कदलीस्तम्भ और मृणालदण्ड दिखाई देते हैं। इसमें रूपकातिशयोक्ति अलङ्कार के द्वारा चन्द्र, कमल, गजकुम्भ और कदलिकाण्डरूप उपमानों से मुख, नेत्र, उरोज और जाँघ रूप उपमेयों की अभिव्यक्ति है। अन्यासु तावदुपमर्दसहासु भृग! लोलं विनोदय मनः सुमनोलतासु। मुग्धामजातरजसं कलिकामकाले व्यर्थं कदर्थयसि किं नवमल्लिकायाः।। हे भ्रमर ! तुम्हारे भार को सह सकने में समर्थ किन्हीं-किन्हीं अन्य लताओं के साहचर्य से अपना चञ्चल मन बहलाओ। क्यों भला इस भोली-भाली अविकसित एवं परागरहित चमेली की नई कली को असमय में ही छेड़ रहे हो ?

(०५) विज्जका (ईसा की नवम शताब्दी)

संस्कृत की महिला कवियों में कवयित्री विज्जका का नाम शृङ्गारपरक सुप्रसिद्ध मुक्तक रचनाओं तथा अपनी काव्य-प्रतिभा के प्रति मुखर चेतना के लिए विदग्धगोष्ठी में चिरकाल से प्रशंसा के साथ चर्चित रहता आया है। वीणा की श्रुति-मोहक स्वरलहरी के सौभाग्य से विभूषित वैदर्भी रीति में सरस-मधुर पद्य-रचना का असामान्य शिल्प-सौष्ठव कालिदास के बाद इन्हीं में उपलब्ध होता है, ऐसा समीक्षकों का अभिमत है। इनके पद्य सदुक्तिकर्णामृत, शार्ङ्गधरपद्धति, सूक्तिमुक्तावली, सुभाषितहारावली तथा सुभाषितरत्नभाण्डागार जैसे प्रायः सभी सुभाषित संग्रहों में समदुधृत किए गये हैं। इनका एक पद्य नीचे उद्धृत है: मेधैर्कोम नवाम्बुभिर्वसुमती विद्युल्लताभिर्दिशो धाराभिर्गगनं वनानि कुटजैः पूरैर्वृता निम्नगाः। एकां घातयितुं वियोगविधुरां दीनां वराकी स्त्रियं प्रावृटु-काल ! हताश । वर्णय कृतं मिथ्या किमाडम्बरम्।। लौकिक संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ २६७ आकाश बादलों से, धरती नवीन जलराशि से, दिशाएँ बिजलियों से, अन्तरिक्ष वृष्टि धाराओं से, जङ्गल कुटजों से और नदियाँ बाढ़ से भरी हुई हैं। विरहिणी पावस से पूछती है कि प्रियतम के विरह में विषादमग्न दीन एवं असहाय एक स्त्री के वध के लिए तुमने इतना सारा आयोजन क्यों कर रक्खा है ? इस पद्य में विरहाकुल ललना का मेघ के प्रति उपालम्भ अत्यन्त मार्मिक है।

(०६) भावकदेवी (ईसा की नवम शताब्दी)

कवयित्री भावकदेवी द्वारा रचित पद्य कवीन्द्र-वचनसमुच्चय और सदुक्तिकर्णामृत नामक सुभाषित-सङग्रहों में विन्यस्त किए गए हैं। माधुर्य और सरलता इनकी रचनाओं के विशेष गुण हैं। लम्बे-लम्बे समास तथा अप्रसिद्ध पदों के यत्नपूर्वक परिहार के प्रति इनका सविशेष आग्रह लक्षित होता है। एक उदाहरण प्रस्तुत है: तथाभूदस्माकं प्रथममविभिन्ना तनुरियं ततोऽनु त्वं प्रेयानहमपि हताशा प्रियतमा। इदानीं नाथस्त्वं वयमपि कलत्रं किमपरं मयाप्तं प्राणानां कुलिशकठिनानां फलमिदम् ।। पहले तो हम दोनों के शरीर अभिन्न थे। कुछ दिनों के बाद तुम मेरे प्रियतम और मैं तुम्हारी हताशा प्रियतमा हो गयी। पुनः कुछ दिनों के बीत जाने के बाद सम्प्रति तुम मेरे पालन-पोषण-करने वाले मात्र रह गए और मैं तुम्हारी केवल पालिता स्त्री होकर रह गयी। इस प्रकार, मैंने अपने वज्र सदृश कठोर प्राणों का यह विषम फल पा लिया। उपर्युक्त पद्य में दाम्पत्य जीवन में स्नेह के चढ़ाव-उतार का अत्यन्त यथार्थ चित्रण हुआ है।

(०७) चिन्नम्मा (ईसा की दशवीं सदी)

चिन्नम्मा एक दक्षिण भारतीय महिला कवयित्री हैं, जिनका एक संस्कृत-पद्य भोजराज द्वारा सरस्वीकष्ठाभरण में उद्धृत किया गया है तथा वही संस्कृत-पद्य शाङ्गधरपद्धति में भी समुद्धृत किया गया है। इस पद्य के आधार पर धर्मशास्त्र एवं पौराणिक वाङ्मय से कवयित्री का परिचय सुस्पष्ट होता है। प्रसङ्गाधीन पद्य इस प्रकार प्राप्त होता है: कल्पान्ते शमितत्रिविक्रममहाकङकालदण्डः स्फुर च्छेषस्यूत-नृसिंह-पाणि-नखर-प्रोतादि-कोलामिषः। विश्वकार्णवता-नितान्त मुदितौ तौ मत्स्यकूर्मावुभौ कर्षन् धीवरतां गतोऽस्यतु महामोहं महाभैरवः।। २६८ गद्य-खण्ड कल्पान्त-काल में अपने द्वारा शमित विष्णु के कङकाल का दण्ड धारण करने वाले, शेषनागरूपी उज्ज्वल रस्सी से नृसिंह के हाथों को बाँध रखने वाले, अपने पाणि-प्ररूढ नखों से आदि वराह की मांसल काया को क्षत-विक्षत कर डालने वाले तथा संसार के महासागर के रूप में परिणत हो जाने पर अतिशय प्रसन्न मत्स्य और कूर्म को खींचते हुए धीवर-रूप-धारी महाभैरव अनादि वासना के कारण हमारे आत्मा में निरुद्ध अज्ञान को दूर करें।

(०८) सरस्वती (ईसा की दसवीं सदी)

कवयित्री सरस्वती द्वारा रचित पद्य सरस्वतीकण्ठाभरण, शाळ्धरपद्धति तथा सदुक्तिकर्णामृत में समुद्धृत किए गए हैं। शैली-शिल्प और अर्थदर्शन की दृष्टि से ये संस्कृत की एक अन्यतम लब्धप्रतिष्ठ महिला कवि मानी जाती हैं। इनका निम्नोद्धृत अन्योक्तिपरक श्लोक सुप्रसिद्ध है : पत्राणि कण्टकसहस्रदुरासदानि वार्तापि नास्ति मधुनो रजसान्धकारः। आमोदमात्ररसिकेन मधुव्रतेन नालोकितानि तव केतकि ! दूषणानि ।। तुम्हारे पत्ते तो हजारों-हजार काँटों से भरे हैं, जिससे उनके समीप जाने में बिंध जाने के भय के कारण तुम्हारे पास पहुँच पाना आसान नहीं है। और बची मधु की बात, सो, उसका तो कोई नामोनिशान तक यहाँ नहीं है। ऊपर से तो तुम्हारे पास तो सघन परागराशि के कारण हे केतकि ! अतिशय मनोहर सौरभमात्र के रसिक भ्रमर ने तुम्हारे इन दोषों की ओर दृष्टिपात नहीं किया। (E) सीता (ईसा की दसवीं सदी) डॉ. रमा चौधरी के अनुसार कवयित्री सीता का एकमात्र पद्य वामन की काव्यालङ्कार सूत्रवृत्ति तथा राजशेखरकी काव्यमीमांसा में सौभाग्यवश सुरक्षित है। शृंङ्गार वासना से अधिवासित इस पद्य में कल्पना की कमनीयता से उत्पन्न चमत्कार अतीव हृदयावर्जक हो उठा है : मा भैः शशाङ्क ! सीधुनि नास्ति राहुः खे रोहिणी वसति कातर ! किं बिभेषि ? प्रायो विदग्धवनितानवसङ्गमेषु पुंसां मनः प्रचलतीति किमत्र चित्रम् ! ।। लौकिक संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ २६६ कोई तरुणी चाँदनी रात में मदिरा से परिपूर्ण पान-पात्र हाथ में लेकर पीने के लिए उद्यत है। उसके श्वासोच्छ्वास के सम्पर्क से उसके मुख के समीपस्थ पानपात्र की मदिरा में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा काँप रहा है। इसे देखकर उस काँप रहे चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को चन्द्रमा के रूप में सम्बोधन करती हुई तरुणी की उक्ति इस श्लोक का विषय है। वह कहती है कि हे शशाङ्क ! तुम डरो मत। मेरी इस मदिरा में राहु छिपा हुआ नहीं है, और रही अपनी पत्नी रोहिणी की बात; सो, वह तो यहाँ से दूर बहुत दूर आकाश में निवास करती है। अरे कायर पुरुष ! फिर मेरे पास रहने के कारण तुम्हें डर क्यों हो रहा है ? परन्तु तुम्हारे इस कम्पन का एक कारण मैं जो समझती हूँ वह यह है कि विदग्ध वनिता के नव सङ्गम के अवसर पर पुरुषों का मन बहुधा चञ्चल हो जाया करता है।

(१०) त्रिभुवन-सरस्वती (ईसा की दसवीं सदी)

त्रिभुवन-सरस्वती और महीतल-सरस्वती दो बहनें थी, जिनमें त्रिभुवन-सरस्वती बड़ी थीं। इनके नाम का उल्लेख राजशेखर ने कर्पूरमञ्जरी में किया है। इसके अतिरिक्त सदुक्तिकर्णामृत में इनके दो पद्य उद्धृत किए गए हैं। इनके आधार पर इनका शास्त्रमूलक वैदुष्य तथा काव्योचित कल्पना-कौशल प्रमाणित होता है। यहाँ इनका एक श्लोक उद्धृत है: पातु त्रिलोकी हरिरम्बुराशौ, प्रमथ्यमाने कमलां समीक्ष्य। अज्ञातहस्तच्युत भोगिनेत्रः, कुर्वन् वृथा बाहुगतागतानि ।। वे भगवान् हरि त्रिभुवनकी रक्षा करें, जिन्हें समुद्र-मन्थन के क्रम में उससे आविर्भूत लक्ष्मी को देखकर पता ही नहीं चला कि कब उनके हाथ से शेषनागरूपी महारज्जु सरककर गिर पड़ा और वे कब तक व्यर्थ ही अपनी बाहों से उक्त रज्जु को आगे-पीछे खींचने की क्रिया करते रहे। लक्ष्मी के सौन्दर्य पर मुग्ध विष्णु की भावविह्वलता का चित्रण नितान्त स्वाभाविक है।

(११) मोरिका (ईसा की तेरहवीं सदी)

कवयित्री मोरिका के पद्य सूक्तिमुक्तावली, शार्ङ्गधरपद्धति तथा सुभाषितावली जैसे सुभाषित-सङ्ग्रहों में सङ्कलित किये गये हैं। धनददेव ने कवियों की प्रथम पंक्ति में इन्हें स्थान दिया है। इनके पद्यों में शृङ्गार की सफल अभिव्यञ्जना प्राप्त होती है। प्रवासोद्यत नायक का एक बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन इनके अधस्तन श्लोक में देखा जा सकता है: यामीत्यध्यवसाय एव हृदये बध्नातु नामास्पदं वक्तुं प्राणसमा समक्षमघृणेनेत्थं कथं पार्यते। २७० गद्य-खण्ड उक्तं नाम तथापि, निर्भरगलद्वाष्पं प्रियाया मुखं दृष्ट्वापि प्रवसन्त्यहो धनलवप्राप्तिस्पृहा मादृशाम्।। विदेश के लिए जाने का निश्चय ही सर्वप्रथम कर पाना नितान्त कठिन है। वह यदि कर भी लिया जाय तो उसका उल्लेख अपनी प्राणप्रिया के समक्ष निष्ठुर होकर कैसे कहा जा सकता है ? फिर भी, किसी प्रकार उससे यह निश्चय कह सुनाया गया। इस पर उसकी अविरल बहती हुई अश्रुधारा से आई मुख को भी देखकर उसके प्राणनाथ विदेश की यात्रा पर चल पड़ते हैं। ओह ! मुझ जैसे लोगों के मन में विद्यमान लेशमात्र धन को पाने की ललक कितनी तीव्र है। इस पद्य में प्रियतमा के अश्रुपूरित नेत्रयुक्त मुख को देखकर भी धन-प्राप्ति के लिए विदेश जाने को उद्यत नायक की विवशता का हृदयस्पर्शी वर्णन है। माचार 1 आद्रीकृतस्ते

(१२) मारुला (ईसा की तेरहवीं सदी)

कवयित्री मारुला के दो पद्य क्रमशः सूक्तिमुक्तावली और शार्ङ्गधरपद्धति में उपलब्ध होते हैं। इनके द्वारा रचित ये दो ही श्लोक इनकी काव्य-प्रतिभा को पूर्ण रूप से प्रमाणित करते हैं। इनकी विदग्धता का परिचायक एक श्लोक नीचे उद्धृत किया जाता है: गोपायन्ती विरहजनितं दुःखमग्रे गुरूणां किं त्वं मुग्धे नयगलितं वाष्पपूरं रुणत्सि। नक्तं नक्तं नयनसलिलैरेष आर्दीकृतस्ते शय्योपान्तः कथयति दशामातपे शोष्यमाणः।। गुरुजनों के आगे विरहजनित दुःख को छिपाती हुई, अरी भोली-भाली ! तुम आँसुओं की झड़ी को क्यों छिपाती हो। रात-रात भर आँसुओं से भीगा यह तेरे बिछावन का छोर जिसे तुम धूप में सुखाती हो, तुम्हारी दशा का कथन करता है।

(१३) इन्दुलेखा (ईसा की पन्द्रहवीं सदी)

कवयित्री इन्दुलेखा द्वारा रचित केवल एक ही पद्य वल्लभदेव की सुभाषितावली में उपलब्ध है। यह एकमात्र पद्य कवयित्री की काव्यकला का मनोहर साक्ष्य प्रस्तुत करता है। प्रसङ्गाधीन पद्य निम्नोद्धृत है : एके वारिनिधौ प्रवेशमपरे लोकान्तरालोकनं केचित् पावकयोगितां निजगदुःक्षीणेऽह्वि चण्डार्चिषः। मिथ्या चैतदसाक्षिकं प्रियसखि ! प्रत्यक्षतीव्रातपं मन्येऽहं पुनरध्वनीनरमणीचेतोऽधिशेते रविः।। लौकिक संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ २७१ कुछ लोग कहते हैं कि सायकाल के समय सूर्य सागर में प्रविष्ट हो जाते हैं। कुछ का कहना है कि वे देशान्तर के दर्शन के लिए चले जाते हैं। कुछ अन्य लोगों का कथन है कि वे अग्नि में प्रविष्ट हो जाते हैं। परन्तु इन सभी के कथन में साक्ष्य नहीं है। अतः ये सारी बातें झूठी हैं। मैं तो ऐसा मानती हूँ कि सूर्य रात्रिकाल में पान्थरमणी के हृदय में अपनी दाहक किरणों के साथ निवास करते हैं। रात में पान्थरमणी के हृदय में सूर्य का अपनी दाहकशक्ति के साथ निवास करने की कल्पना कवयित्री की अनूठी सूझ है।

१४. लखिमा देवी (ईसा की पन्द्रहवीं सदी)

ये मिथिला के ओइनिवार-वंशोद्भव अधिपति महाराजाधिराज शिवसिंह की विदुषी पटरानी थीं। इनकी काव्य-प्रतिभा का प्रख्यापक एक पद्य निम्नोद्धृत है : भक्त्वा भोक्तुं न भुङ्क्ते कुटिलबिसलता कोटिमिन्दोर्वितर्कात् ताराकारास्तृषार्त्तः पिबति न पयसां विपुषः पत्रसंस्थाः। छायामम्भोरुहाणामलिकुलशबलां वीक्ष्य सन्ध्यामसन्ध्यां कान्ताविश्लेषभीरुर्दिनमपि रजनीं मन्यते चक्रवाकः। अपनी प्रेयसी से बिछुड़ा हुआ चकवा टेढ़े-मेढ़े कमल के नाल को खाने के लिए तोड़ लेता है, परन्तु चन्द्रमा के भ्रम से उसे खाता नहीं है। कमल के पत्र पर ताराओं के समान चमकीली पानी की बूंदों को प्यास से पीड़ित होने पर भी वह नहीं पीता है। कमलों की कान्ति को भ्रमरों से अधिष्ठित देखकर सायकाल के अभाव में भी उसे सायङ्काल का भान होने लगता है। अपनी प्रिया चकवी के विछोह के भय से ग्रस्त चकवा दिन को भी रात ही मान बैठता है।

१५. गङ्गादेवी (ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी)

कवयित्री गङ्गादेवी काकतीय राजवंश की कन्या थीं। इनका जन्मस्थान एकशिला-नगरी के समीप था, जो आधुनिक वारंगल जिला के अन्तर्गत पड़ता हैं। इन्होंने कवीश्वर विश्वनाथ से संस्कृत विद्या की विविध शास्त्रीय शाखाओं का अध्ययन किया था और साथ ही काव्यकला की भी शिक्षा प्राप्त की थी। सन् १३४० ई. के आस-पास इनका विवाह सुविख्यात विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक बुक्कराज के प्रथम पुत्र वीर कम्पराय के साथ सम्पन्न हुआ था। इन्होंने अपनी शालीनता, वैदुष्य, विदग्धता एवं सौन्दर्य के समुत्कर्ष से पटरानी के गौरवपूर्ण पद को सुशोभित किया था। ૨૭૨ गद्य-खण्ड संस्कृत की महिला कवियों में गङ्गादेवी का नाम उनकी एकमात्र उपलब्ध काव्यरचना मधुराविजय’ महाकाव्य के कारण सनातन कीर्त्ति की प्रभा से विभास्वर हो गया है। भाषा-सौष्ठव एवं उदात्त भाव से विभूषित यह महाकाव्य संस्कृत साहित्य का एक अनुपम रत्न है। विजयनगर साम्राज्य की स्थापना के आदिकाल में मदुरै की अत्याचार-परायण सुल्तान शाही का उन्मूलन कर इनके दुर्द्धर्ष पराक्रमी पति युवराज कम्पन ने तुलुष्कों के उत्पीड़न से विध्वस्तप्राय राष्ट्रीय अस्मिता की पुनः स्थापना की थी। इसी महनीयचरित अपने पति के अप्रतिहत पराक्रम से दीप्त वीरगाथा का अवलम्बन कर उनकी पटरानी गङ्गादेवी ने मधुराविजय महाकाव्य की रचना की थी। इसके काव्य-सौष्ठव से परिचित होने के लिए कतिपय निम्न उद्धरण द्रष्टव्य हैं: मुखरकङ्कणमाकुलमेखलं, चलितहारलतं लुलितालकम्। अधिगतश्रममस्य वधूजनो, रतिविशेषमशिक्ष्यत दोलया।। वसन्त की मादक ऋतु में कम्प नृपति की वधुएँ दोला-विहार का आनन्द लेने लगीं। उस क्रम में उनके कङ्कण मुखर हो उठे, मेखलाएँ शिथिल हो गयीं, वक्षःस्थल के हार चञ्चल हो उठे, अलकजाल बिखर पड़े तथा श्रम के कारण मुखमण्डल स्वेदार्द्र हो उठे। उन्हें उक्त अवस्था में देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो हिंडोले ने उन्हें कामोपभोग की एक विशेष विधा की शिक्षा प्रदान की हो। काव्यनायक कम्पन द्वारा परिशीलित कामोपभोग के अनुकूल वातावरण की सृष्टि के उद्देश्य से काव्यनायिका गङ्गादेवी ने सूर्यास्त, सन्ध्यागम, प्रदोष तथा चन्द्रोदय के मनोहर वर्णन प्रस्तुत किये हैं। इनमें सूर्यास्त का दृश्य-विन्यास विशेष रूप से हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। दूर-दूर तक फैली क्षितिज-रेखा की पृष्ठभूमि में कल्लोल-मुखर सागर के उत्ताल तरङ्गों के पीछे अस्त होते हुए सूर्य के दृश्य को कवयित्री ने अपने वर्णन-कौशल से मूर्त कर दिया है : चरमाम्बुधिवीचिचुम्बितं, प्रतिबिम्बाश्रयि मण्डलं रवेः। दिवसान्तनटस्य धूर्जटे विदधे काञ्चनतालविभ्रमम् ।। पश्चिम समुद्र की लहरों से चुम्बित एवं समुद्र में प्रतिबिम्बित सूर्यबिम्ब सन्ध्याकाल में नटवेष धारण करने वाले भगवान् शिव के सुवर्णमय तालवाद्य का ‘म उत्पन्न कर रहा था। १. (क) अनन्तशयनम्, केरल से १६१६ में प्रकाशित (ख) इस काव्य का दूसरा नाम वीरकम्परायचरित भी है। लौकिक संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ २७३ पतयालु-पतङ्गमण्डल-क्षरदंशूत्कररञ्जिता कृतिः। मधुकैटभरक्तलोहितामुदधिः प्राप पुरातनी दशाम् ।। अस्तोन्मुख सूर्य से निर्गत हो रही किरणों से रज्जित पश्चिम पयोधि मधु और कैटभ नामक विष्णुद्वारा निहत दानवों के शोणित से लाल रंगवाले पुराने स्वरूप को पा चुका दीख पड़ता था।

(१६) तिरुमलाम्बा (ईसा की सोलहवीं सदी)

कवयित्री तिरुमलाम्बा तञ्जौर के अधिपति अच्युतराय महाराज की पटरानी थीं। इनकी काव्यकला का प्रौढ़ निदर्शन वरदाम्बिकापरिणय-चम्पू’ है, जिसके अन्तर्गत महाराज अच्युतराय का वरदाम्बिका के साथ विवाह का वृत्तान्त मुख्य रूप से निबद्ध किया गया है। संस्कृत विद्या की विविध शाखाओं के साथ तिरुमलाम्बा ने अलङ्कारशास्त्र एवं प्रमुख महाकाव्यों का गम्भीर परिशीलन किया था। इनकी प्रतिभा का समुल्लास वरदाम्बिका परिणय-चम्पू के अन्तर्गत सर्वत्र ही देखा जा सकता है। इनकी काव्यशैली के वैशिष्ट्य से संक्षेप में परिचित होने के लिए निम्नाङ्कित पद्य द्रष्टव्य है : मुहुः सरोवारिषु केलिलोला, निमज्ज्नोन्मज्जनमाचरन्ती। बलाहकान्तः परिदृश्यमाना, सौदामनीवाजनि चञ्चलाक्षी।। चञ्चल नयनों वाली नायिका जलकेलि के प्रसङ्ग में कभी पानी के भीतर छिप जाती थी तो कभी उसके ऊपर आ जाती थी। इस स्थिति में वह बादलों के भीतर दीख पड़ने वाली बिजली की भाँति दीख पड़ती थी। दुग्धाम्बुराशिलहरीव तुषारभानुमर्थं नवीनमनघा सुकवेरिवोक्तिः। प्रत्यङ्मुखस्य यमिनः प्रतिमेव बोधं, प्रासूत भाग्य-महितं सुतमोम्बमम्बा।। जिस प्रकार क्षीरसागर की लहरी चन्द्रमा को, सुकवि की मनोहर उक्ति नवीन अर्थ को तथा आत्म-साक्षात्कारलीन जितेन्द्रिय पुरुष की प्रतिभा बोध को उत्पन्न करती है उसी प्रकार ओम्बमम्बा रानी ने पुत्र को जन्म दिया।

(१७) मधुरवाणी-(ईसा की सत्रहवीं सदी)

ये तञ्जौर के महाराज रघुनाथ की आस्थान-विदुषी थीं। इन्होंने उक्त महाराज के अनुरोध पर आन्ध्ररामायण का संस्कृत में अनुवाद किया था। १. डॉ. सूर्यकान्त के सम्पादकत्व में अंग्रेजी अनुवाद के साथ चौखम्बा से १६७० में प्रकाशित। २७४ गद्य-खण्ड

(१८) रामभद्राम्बा-(ईसा की सत्रहवीं सदी)

इन्होंने रघुनाथाम्युदय नामक एक ऐतिहासिक काव्य की रचना की थी, जिसके अन्तर्गत तञ्जौर के महाराज अच्युतराय के पुत्र रघुनाथ की विजयगाथा का वर्णन प्राप्त होता है।

(१९) पद्मावती (ईसा की सत्रहवीं सदी)

कवयित्री पद्मावती के कतिपय पद्य पद्यामृततरङ्गिणी तथा पद्यवेणी जैसे सुभाषित सङ्ग्रहों में सुरक्षित हैं। इनके पद्यों में गुजरात की ललना के सौन्दर्य का वर्णन प्राप्त होता है, जिसके आधार पर इन्हें गुजरात की रहने वाली माना जाता है। एक पद्य इनकी काव्यकला के दृष्टान्त के रूप में नीचे उद्धृत है : किं चारुचन्दनलताकलिता भुजङ्ग्यः ? किं फुल्लपद्ममधुसंवलिता नु भृङ्ग्यः ? किं वाननेन्दु-जित-राहुरुचो विषाल्यः ? किं भान्ति गुर्जरवरप्रमदा-कचाल्य : ? क्या ये चन्दन की सुन्दर लता में लिपटी नागिनें हैं ? क्या ये खिले हुए कमल के मकरन्द का पान करने वाले भ्रमर हैं ? क्या ये मुखचन्द्र से विजित राहु की छाया के समान गरल की धाराएँ हैं ? अथवा गुजरात की सुन्दर प्रमदाओं के केशभार शोभित हो रहे हैं ? _ उपर्युक्त पद्य में सन्देह अलङ्कार के परिवेश में अन्त्यानुप्रास की छटा स्पृहणीय है। #### (२०) गौरी (ईसा की सत्रहवीं सदी) कवयित्री गौरी के पद्य सूक्तिसुन्दर तथा पद्यवेणी जैसे सुभाषित-सङ्ग्रहों में समुद्धृत किए गए हैं। इनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा इनके द्वारा रचित विविध विषयक पद्यों में स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हुई है। इनकी काव्यकला के निदर्शन के रूप में सद्यःस्नाता नायिका के सौन्दर्य-वर्णन से सम्बद्ध निम्न श्लोक द्रष्टव्य है: विनिस्सरन्ती रतिजित्वरागी नीरात् सरागाम्बुजलोचनश्रीः। आलोंकि लोकैः स्वरुचा स्फुरन्ती जलाधिदेवीव जलेशवन्द्या।। स्नान के अनन्तर नायिका जलाशय से निकल रही है। अपनी निर्धात देहयष्टि की स्वगत कान्ति से सुशोभित इस रक्ताभ अपाङ्गों से मनोहर नयनों वाली सद्यः स्नाता ने लौकिक संस्कृत साहित्य की कवयित्रियाँ २७५ नारी-सौंदर्य के उपमानभूत कामकान्ता रति को भी जीत लिया है। लोगों ने इस अवस्था में इसे वरुण द्वारा वन्दनीय जलराशि की अधिष्ठात्री देवी के समान देखा। सद्यः स्नाता सुन्दरी को लोगों द्वारा जलराशि की अधिष्ठात्री देवी के समान देखा जाना भाव की उदारता का सुन्दर निदर्शन है।

मन्त्रद्रष्ट्र्यः

उपर्युक्त संस्कृत कवयित्रियों के अतिरिक्त कतिपय वैदिक ऋषिकायें भी हैं, जिन्होंने मन्त्रों का साक्षात्कार किया था। उनका विवरण निम्न है –

१. रोमशा

एक ब्रह्मवादिनी ऋषिका थी रोमशा। वह महाराज भाव्य की पौत्री और महाराज स्वनय की पुत्री थी। अल्पवयस्कता के कारण उसे कामोपभोग के अनुपयुक्त जानकर पति ने उसके साहचर्य-सौख्य की उपेक्षा कर दी। समय धीरे-धीरे बीतता गया। एक दिन रोमशा ने अपनी तारुण्य तरङ्गित देहयष्टि के आलिङ्गन के लिए अपने पति को निमन्त्रित किया और इस प्रसङ्ग में अपनी कामोपभोग-योग्यता का उल्लेख किया। प्रसङ्गाधीन मन्त्र के अन्तर्गत एक प्रोढ़ा नायिका के रूप में रोमशा के द्वारा अपनी यौवनदीप्त देहकान्ति की, मान्मथ-रोमराजि के सघन प्रादुर्भाव के उल्लेख के माध्यम से, अभिव्यञ्जना की गयी है। मन्त्र इस प्रकार है: उपोप में पराभृश मा मे, दभ्राणि मन्यथाः। सहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका।। (ऋग्वेद संहिता मं. १. सू. १२६, मं.७)

२. उर्वशी

पुरूरवा-उर्वशी के संवाद से सम्बद्ध सूक्त के अन्तर्गत उर्वशी द्वारा साक्षात्कृत मन्त्रों मे नारी के एक नितान्त भिन्न स्वरूप का वर्णन किया गया है। उर्वशी एक विख्यात अप्सरा थी। अप्सरा के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वर्वेश्या शब्द भी होता है, परन्तु इन दोनों शब्दों की व्युत्पत्तिमूलक समीक्षा करने पर इनका अर्थमूलक अन्तर स्पष्ट हो जाता है। अप्सरा शब्द जहाँ अप्सराओं की जलविहार के प्रति सहज आसक्ति को सूचित करता है, वहाँ स्वर्वेश्या शब्द उनके काममूलक चित्तचाञ्चल्य को रेखाकित करता है। अप्सराकोटिक स्त्री के स्वार्थ-परायण हृदय की व्याख्या करते हुए उर्वशी ने कहा है कि स्त्रियों के साथ सख्य की धारणा एक कल्पनामात्र हैं। यह ऐसी कोरी कल्पना है जिसका यथार्थ-जीवन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। इतना ही नहीं, वह यह भी कहती है कि स्त्रियों के हृदय भेड़ियों के हृदय के समान जिघांसा से भरे रहते हैं। अतः वह यदि अब पुरूरवा की आकुल प्रार्थना को ठुकरा कर उसका परित्याग कर रही है, तो इस कठोर यथार्थ के साथ उसे समझौता कर लेना चाहिए। वह तो पवन की भाँति स्वच्छन्दचारिणी है, जिसे पकड़ कर अपने पास सदा के लिए रख पाना पुरूरवा के भाग्य में नहीं लिखा है। उर्वशी द्वारा साक्षात्कृत मन्त्रों में स्वर्वेश्या सुलभ-देहसौख्यमूलक सम्बन्ध का अनावृत यथार्थ स्वरूप सुव्यक्त हुआ है। इस सूक्त के प्रसङ्गाधीन मन्त्र निम्नोघृत हैं: किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव। पुरूरवः पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि।। संस्कृत कवयित्री-रचना २७७ पुरूरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्। न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता।। (ऋग्वेदसंहिता- मं. १०.सू. ६५.मंत्र २, ५,१५)

३. लोपामुद्रा

सुदीर्घ कालावधि तक अपने पति महर्षि अगस्त्य के तपोमग्न रहने के कारण अपनी तनुश्री को वार्धक्य के आक्रमण से प्रतिदिन शीर्यमाण देख-देख कर खिन्न एवं उदास रहने वाली लोपामुद्रा ने दाम्पत्य-सुख की प्राप्ति के उद्देश्य से पति को सम्बोधित कर रतिदैवत सूक्त में चिरविरहातुर एवं कामसन्तप्त नारी के हृदय की अभिलाषा को साकार कर दिया है। सूक्त के मन्त्र निम्न विन्यस्त हैं। पूर्वीरहं शरदः शश्रमाणा दोषावस्तोरुषसो जरयन्तीः। मिनाति श्रियं जरिमा तनूना मप्यू नु पत्नीवृषणो जगम्युः।। ये चिद्धि पूर्व ऋतसाप आसन् त्साकं देवेभिरवदन्नृतानि। ते चिदवासुर्नमन्तमापुः समू नु पत्नीवृषभिर्जगम्युः।। (ऋग्वेदसंहिता म. १, सू. १७६, मन्त्र १-२)

४. यमी

यमी के संवाद-सूक्त के अन्तर्गत यमी द्वारा साक्षात्कृत मन्त्रों में यमी अपने यमज भ्राता यम को अपने साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने का आवेशपूर्वक अनुरोध करती है, परन्तु उसका भाई यम इस प्रकार के सम्बन्ध को सामाजिक नैतिकता के आदर्श के विरुद्ध घोषित कर अस्वीकृत कर देता है और उसे किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह करने का अनुरोध करता है। इन मन्त्रों में यमी की अनियन्त्रित कामभावना का गर्हणीय परिचय प्राप्त होता है। यमी के उद्गार को अधोलिखित मन्त्रों में देखा जा सकता है : ओ चित् सखायं सख्या ववृत्यां तिरः पुरू चिदर्णवं जगन्वान्। पितुर्नपातमा दधीत वेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः।। यमस्य मायम्यकाम आगन् त्समाने योनौ सहशेय्याय। जायेव पत्ये तन्वं रिरिच्यां वि चिदवृहेब रथ्येव चक्रा।। बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम अन्या किल त्वां कक्ष्येव युक्तं परिष्वजाते लिबुजेव वृक्षम् ।। (ऋग्वेद संहिता मं. १० सू. ६ मन्त्र-१,५,१३) मा

५. शाश्वती

महर्षि अगिरा की पुत्री शश्वती वैदिक साहित्य के अन्तर्गत एक आदर्श पत्नी के २७८ गद्य-खण्ड रूप में परिचित ऋषिका है। स्त्रीत्व से अभिग्रस्त अपने पति की पुंस्त्व-प्राप्ति के लिए इसने तपश्चर्या की, जिसके फलस्वरूप इसे अभीष्ट लाभ हुआ। अपने पति की पुंस्त्व-प्राप्ति से आनन्द-विहल पतिव्रता शश्वती के मन्त्र में उसके हार्दिक उल्लास का अनुभव किया जा सकता है। अन्वस्य स्थूरं दहशे पुरस्ता दनस्थ ऊरुरवरम्बमाणः। शश्वती नार्यभिचक्ष्याह सुभद्रमर्य भोजनं विभर्षि।। (ऋग्वेद संहिता-म-८, सूक्त-१ मन्त्र सं.-३४)

६. वाक्

अम्मृण ऋषि की पुत्री वाक् द्वारा दृष्ट मन्त्रों में वाणी की महिमा एवं ऐश्वर्य का बड़ा ही भव्य वर्णन प्राप्त होता है। तदनुसार वाणी ही राष्ट्र की अधिष्ठात्री है, सम्पत्तियों के सङ्गमन की विधायिका है तथा यज्ञार्ह वस्तुओं में प्राथम्य के साथ परिगणित है। देवताओं ने वाणी को देव, मनुष्य तथा तिर्यग-योनि के व्यक्तियों में विविध रूप से स्थापित किया है। देवताओं और मनुष्यों द्वारा सेवित ऋषिका वाणी का ओजस्वी उद्घोष है कि वह जिन्हें चाहती है उनमें से किसी को अपरिमित तेजस्विता से सम्भृत कर देती है, और किसी को ब्रह्मा का पद प्रदान कर देती है तथा किसी अन्य को मेधा-सौष्ठव से सम्पन्न मन्त्रद्रष्टा का गौरव प्रदान करती है। वही वाक् ब्रह्मद्रोही असुर के वध के लिए रुद्र को शक्तिशाली धनुष प्रदान करती है। और समस्त भुवनों की सृष्टि कर वही वाक् पवन की भाँति सतत गतिशील रहा करती है। उसका निवास स्थान समुद्र के मध्य में अप्रमेय जलराशि के अन्तर्गत विद्यमान है। इस सूक्त में ऋषिका द्वारा महिमामण्डित आत्मवृत्त का मुक्तकण्ठ से प्रख्यापन किया गया है। वाक् तत्त्व की विशेषता के वर्णन से संवलित होने के कारण असाधारण रूप से प्रसिद्ध यह सूक्त निम्नोघृत है : अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमोदित्यैरुत विश्वदेवैः। अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा।। अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्।। अहं रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ। अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ।। अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वो तामू द्यां वर्मणोप स्पृशामि।। (ऋग्वेद संहिता-मं. १०, सू. १२५, मन्त्र १,३,६,६) २७६ संस्कृत कवयित्री-रचना

७. सूर्या

सविता की पुत्री सूर्या-द्वारा साक्षात्कृत एक सूक्त के मन्त्रों में विवाह-संस्कार के माङ्गलिक विधि-विधानों का विशद वर्णन प्राप्त होता है। इन मन्त्रों में नवविवाहिता वधू के रूप-वैभव का नितान्त हृदयग्राही चित्रण किया गया है। सूर्या का सोम से विवाह-कृत्य का अनुष्ठान इस सूक्त का मुख्य विषय है। वधू-प्राप्ति की अभिलाषा से समागत सोम को सविता ने सुसज्जित केशपाश एवं दिव्याभरणों से विभूषित अपनी सुदर्शना पुत्री सूर्या का सम्प्रदान किया और विवाह की समाप्ति पर समवेत समाज के द्वारा मङ्गलमूर्त्ति वधू एवं सौभाग्यशाली वर के प्रति शुभाशीर्वाद प्रदान करने के क्रम में कहा गया कि तुम दोनों पति-पत्नी यहीं अपने घर में पुत्र-पौत्रों के साथ मनोविनोद करते हुए प्रसन्नतापूर्वक आयु की सम्पूर्ण अवधि का उपभोग करो, तुम दोनों का एक-दूसरे से कभी वियोग न हो और तुम्हारे नयनों की भगिमा कभी भी उग्र न हो, तुम सास, ससुर, ननद एवं देवर की सम्राज्ञी बनी रहो। और, इसके बाद भास्वर चन्द्रातप से आवृत गोरथ पर आरूढ होकर नववधू सूर्या पतिग्रह के लिए प्रस्थान कर जाती है। अन्त में पति-पत्नी के सौमनस्य एवं साम्मनस्य की मङ्गलकामना के साथ समाप्त होनेवाले सूक्त के प्रसङ्ग प्राप्त मन्त्र अधोनिर्दिष्ट हैं : सोमो वधुयुरभव दश्विनास्तामुभा वरा। सूर्यां यत् पत्ये शंसन्ती मनसा सविताददात् ।। सुमङ्गलीरियं वधूरिमां समेत पश्यत। सौभाग्यमस्यै दत्त्वायाऽथास्तं वि परेतन।। (ऋग्वेद संहिता-मं. १०. सू. ८५. म. ६, ३३,) इस प्रकार, ब्रह्मवादिनी ऋषिकाओं द्वारा साक्षात्कृत कतिपय मन्त्रों के उपर्युक्त विवरण के आधार पर छान्दस संस्कृत साहित्य के सारस्वत सत्र में उनके भास्वर योगदान की चिरन्तन कथा का परिचय प्राप्त होता है। दिव्य काव्य की अलौकिक महिमा से मण्डित इनके मन्त्रों में भाव और भाषा की युगल मूर्ति परस्पर स्पर्धा से आविष्ट होकर समान ताल और लय में विविध मोहक भगिमाओं के साथ नृत्यनिरत दृष्टिगोचर होती है, जिसकी दूरागत स्वरलहरी छान्दसी कविता के सुधी समीक्षकों को उस अतीत-युग की काव्य माधुरी के प्रति चिरकाल से आकृष्ट करती आ रही है।