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संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास पञ्चम-खपत पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय प्रो. जयमन्त मिश्र उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ संस्कृत-वाङ्मय का बृहद् इतिहास पञ्चम-खण्ड __गद्य प्रधान सम्पादक पद्मभूषण आचार्य बलदेव उपाध्याय सम्पादक प्रो. जयमन्त मिश्र उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ प्रकाशक : डॉ. सच्चिदानन्द पाठक, निदेशक : उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ पुरा ालय पनि म.45211 प्राप्ति स्थान : विक्रय विभाग : उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, नया हैदराबाद, लखनऊ-२२६ ००७ फोन : २७८०२५१, फैक्स : २७८१३५२ ई-मेल : nideshak@upsansthanam.org प्रथम संस्करण : वि.सं. २०६० (२००३ ई.) प्रतियाँ : ११०० मूल्य : ३००.०० © उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ मुद्रक : शिवम् आर्ट्स, निशातगंज, लखनऊ। दूरभाष : २७८२३४८, २७८२१७२ प्रकाशकीय व सात व उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के माध्यम से संस्कृत वाङ्मय के इतिहास के पञ्चम खण्ड को प्रस्तुत करते हुए मुझे अत्यन्त हर्ष का अनुभव हो रहा है। इस ग्रन्थ के प्रधान सम्पादक पद्मभूषण आचार्य स्व. बलदेव उपाध्याय जी की भूमिका एवं आशीर्वचन से समलङ्कृत इस खण्ड में संस्कृत वाङ्मय की गद्यविधा के साथ चम्पूकाव्य, कथासाहित्य, नीत्युपदेश आदि अवशिष्ट विधाओं का समावेश किया गया है। इसे विकीर्ण पुष्पों द्वारा पुष्पगुच्छ के रूप में सुधी पाठकों एवं जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत करके खण्ड के सम्पादक डॉ. जयमन्त मिश्र जी ने अनेक बाधाओं को उपेक्षित करते हुए विशिष्ट लेखकों के सत्प्रयासों को ग्रन्थाकार में प्रस्तुत करने के लिए अपनी मनीषा के साथ-साथ दृढप्रतिज्ञता का भी विपुल परिचय दिया है। वास्तव में गद्य विधा जैसा कि इसकी मूलभूत ‘गद्’ धातु से ही स्पष्ट है कथन को सीधे प्रस्तुत करने की सहज विधा है। यह प्राचीन परम्परा में अल्पप्रचलित रही है क्योंकि लिपिबद्ध करने की परम्परा से कहीं पूर्व परम्परा श्रुति परम्परा रही है जिसमें स्मरणीयता के लक्ष्य से गेयता (छन्द के रूप में) कहीं अधिक प्रचलित रही है। इसलिए सभी भाषाओं के वाङ्मय के इतिहास में प्रथम पद्य या छन्द काव्य ही स्थायित्व पा सके। चाहे वैदिक साहित्य हो या संस्कृत साहित्य, काव्यग्रन्थों की स्थापना तत्कालीन प्रचलित छन्दों के माध्यम से प्रमुख स्थान पा सकी और वही स्मृति के माध्यम से जन-जन तक सस्वर उच्चारण के रूप में स्थायित्व पा सकी। इसलिए गद्य विधा को जनमानस में प्रतिष्ठित करना तथा उसे कालजयी काव्य के रूप में स्थापित करना अपने में अत्यन्त ही दुरूह कार्य था। यद्यपि रसात्मकता अथवा लोकेतर प्रस्तुति की अपनी विशिष्टता में सहज वाक्यों द्वारा अभिव्यक्ति बाधक कदापि नहीं है, लेकिन प्रभाव की दृष्टि से ऐसी रचना में रस-प्रवणता भावों का प्रवाह तथा रचना-वैचित्र्य लाना उतना सरल नहीं है क्योंकि ऐसी रचना अपने अर्थवैचित्र्य एवं भावगाम्भीर्य के द्वारा ही जनसामान्य में प्रभावोत्पादक हो सकती है। यह भी कहा गया है-‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति’-गद्य ही कवि की (वास्तविक) कसौटी है। . । परम्परा में अल्पप्रचलित गद्य की विधा को लेखन के युग में अधिक गौरवपूर्ण स्थान मिल सका है। यह विधा अपनी वर्णनशैली में विशिष्ट अभिव्यक्ति के कारण और प्रचलित हो सकी। यद्यपि भवाभिव्यक्ति का अकृत्रिम साधन गद्य वैदिक वाङ्मय से ब्राह्मण, उपनिषद्, सूत्र, भाष्य आदि ग्रन्थों से यात्रा करता हुआ बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ एवं ‘हर्षचरित’ जैसी रचनाओं को अपनी व्यञ्जना शक्ति एवं रसप्रवणता के साथ कालजयी बना गया। ‘वासवदत्ता’ प्रत्यक्षरश्लेषमय प्रबन्ध है जिसमें वक्रोक्ति निपुण सुबन्धु ने अपनी अद्भुत प्रस्तुति की। अपनी इसी विशेषता के कारण उनकी यह कृति बिना गुणावगुण विवेच्य के गद्य-खण्ड भी रसिक श्रोताओं के कानों में रस की धारा बरबस ही उड़ेल देती है। इसी प्रकार बाणभट्ट अपनी अद्भुत कृति में महर्षि जाबालि के आश्रम वर्णन, महाश्वेता की स्वरूप प्रस्तुति जिस रूप में की है उससे उनकी ‘कादम्बरी’ अद्वितीय बन गयी है। __ इसी प्रकार ‘दशकुमारचरित’ की कथावस्तु विन्यास तथा चित्रण दण्डी को प्रशस्त कवि के रूप में स्थापित कर देता है। तिलकमञ्जरी, गद्यचिन्तामणि आदि अनेक रचनाएँ जहां गद्यविधा की काव्यत्मकता को अमर बनाती हैं वहीं गद्य-पद्यमय पद्धति के रूप में न्याय काव्य की संस्कृत में अत्यन्त लोकप्रिय हुए हैं। ‘विश्वनाथ प्रशस्ति-रत्नावली’, ‘चम्पूरामायण’, ‘नलचम्पू’ ‘यशस्तिलक चम्पू’ जैसी रचनाएँ इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में कथा-साहित्य, नीतिकाव्य, ‘संस्कृत कवयित्री रचना’ जैसे संस्कृत वाङ्मय के अल्पप्रचलित किन्तु अत्यन्त महत्वपूर्ण अङ्गों को विशिष्ट लेखों के माध्यम से विवेचित किया गया है। यही नहीं संस्कृत वाङ्मय में अभिलेख साहित्य की विभिन्न अभिलेखों के माध्यम से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इनमें गुप्तकालीन अभिलेख अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इसमें समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख, सांचीस्तूप के प्राचीराभिलेख, मेहरौली के लौहस्तम्भलेख उल्लेखनीय हैं। मिहिरकुल का ग्वालियर दुर्ग स्थित सूर्यमन्दिर में उत्कीर्ण अभिलेख, यशोधर्मा का मन्दसौर का प्रस्तर अभिलेख साहित्यिक दृष्टि से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस प्रकार संस्कृत वाङ्मय की दृष्टि से प्रस्तुत खण्ड संस्कृत साहित्य के उन स्रोतों को प्रकाश में लाता है जो संस्कृत की साहित्यिक धारा की सरस्वती को अपने विशिष्ट योगदान द्वारा रसवती बनाते हैं। वस्तुतः छन्दात्मकता ही काव्य नहीं है अपितु छन्दमुक्त साहित्य भी रागात्मक तत्व के कारण काव्य है जिसमें रचनाकार अपनी लोकोत्तर प्रतिभा द्वारा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा का आश्रय लेते हुए लोकेतर वर्णनाशक्ति द्वारा अकृत्रिम (सहज) अभिव्यक्ति में भी काव्यात्मकता की आत्मप्रतिष्ठा कर देता है। आख्यायिका भी वर्णन विधा की अपनी विशिष्ट विधा से घटनाओं तथा स्थानों का चित्र, पात्रों के प्रति रागात्मकता की सृष्टि करके मानस पटल पर घटना का चित्राङ्कन करते हुए अमिट प्रभाव छोड़ देता है। __ संस्कृत वाङ्मय के इतिहास के इस बहुआयामी खण्ड के मनीषी सम्पादक माननीय जयमन्त मिश्र का यह भगीरथ प्रयास इस खण्ड की सुव्यवस्थित प्रस्तुति का आधारस्तम्भ है जिसके मूल में इनके प्रधान सम्पादक परम सम्माननीय आचार्य स्व. बलदेव उपाध्याय की प्रेरणा एवं दिशा निर्देश हैं। यह संस्थान इन दोनों महानुभावों की अत्यन्त ऋणी है। इस खण्ड की समयबद्ध प्रस्तुति के लिए प्रेरणाभूत सम्माननीय प्रो. नागेन्द्र पाण्डेय अध्यक्ष, उ.प्र. संस्कृत संस्थान के हम अत्यन्त आभारी हैं जिन्होंने अपने अध्यक्षीय सम्बोधन से इस खण्ड को सुशोभित किया तथा अपनी निरन्तर प्रेरणा से संस्थान को इस प्रस्तुति के लिए सजग रखा। प्रकाशकीय अन्त में अस्वस्थता की दशा में भी संस्कृत सेवा को गुरु-ऋण मानकर इस खण्ड को शुद्ध परिमार्जित रूप प्रदान करने वाले मनीषी डॉ. रमाकान्त झा जी का सादर आभारी हूँ और आशा करता हूँ कि भविष्य में भी संस्कृत संस्थान के प्रकाशनों पर कृपा बनी रहेगी। संस्थान के सहायक निदेशक डॉ. चन्द्रकान्त द्विवेदी को विशेष आभार प्रकट करते हुए मैं उन सभी सहभागियों को साधुवाद देता हूँ जिन्होंने अहर्निश प्रयास करके इसे निर्धारित समय की सीमा अन्तर्गत प्रकाशित कराने में अपना अमूल्य सहयोग दिया। उन सभी लेखकों का भी मैं हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपने अमूल्य जानकारी एवं विचार को लेखों के माध्यम से ही उपलब्ध कराया तथा जिन्हें इस ग्रन्थ में पुष्पों के रूप में ग्रथित किया जा सका। शिवम् आर्ट प्रेस का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने मुद्रण की सीमाओं के बावजूद इसे यथासम्भव शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने में अपना अमूल्य सहयोग दिया। सबसे बड़ा आभार तो उस परमनियन्ता की उस परमाशक्ति को जो हम सभी को ऐसे सत्कार्यों की ओर प्रेरित करती रहती है पग-पग पर हमें नियंत्रित तथा निर्देशित करती है जिनकी कृपा के बिना अनेक बाधाओं से संरचित इस संसार में कुछ भी सम्भव नहीं होता। रामनवमी वि. संवत २०६० विनयावनत सच्चिदानन्द पाठक निदेशक अध्यक्षीयम् यही पता था कि THHTHHTHHHHHTATIRTHATHI 8 मानवानां कृते परमेश्वरस्य वरदानस्वरूपेण स्फुटा वाक् स्फुरिता, मननशीलाना मेषामनुभूत्यभिव्यक्त्योः मणिकाञ्चनसंयोगो यदा वाचा स्फुरति तदा स वाङ्मय इति कथ्यते। एवं भूतस्य संस्कृतवाङ्मयधारा आसृष्टेरजस्रं प्रवहति। तच्च वाङ्मयं द्विविधम्-शास्त्रं काव्यञ्च। . शास्त्रं ज्ञानात्मकसाहित्यम्, काव्यं रागात्मकम् । तत्र काव्यं नित्यनूतनं स्फुरति कदापि पुरातनं न भवति। कविः लोकोत्तरवर्णना निपुणो भवति (वर्णनानिपुणः कविः) तत् कर्म काव्यम् । कविः चराचरात्मकजगन्निर्माणकुशलस्य वेधसः समानयोगक्षेमः । यथा वेधाः स्वकल्पनया नित्यनूतनं नामरूपात्मकं दृश्यं जगन्निर्माति तथा काव्यस्रष्टाऽपि नवनवोन्मेषशालिन्या प्रज्ञयाऽभिनवं प्रतिभासमानं काव्यं निर्माति। अतएव श्रुतिः कविरित्याख्यया जगद्विधातारं विधातारं निर्दिशति “कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूः”। (ईशावास्योपनिषद्) तच्च काव्यं-सहृदय-हृदयाह्लादिशब्दार्थमयं भवति। तच्च त्रिविधम्-गद्यं, पद्यं च मिश्र अच। तत्र गद्यं पद्यापेक्षया प्राचीनं वर्तते। यदुक्तं राजशेखरेण अतः पूर्वं हि विद्वांसो गद्यं ददृशुर्न पद्यम्। गद्यं वृत्तगन्धोज्जिझतमनियताक्षरं भवति। तदुक्तं वृत्तगन्धोज्झितं तच्चतुचर्विधम्। साहित्यदर्पणेऽप्युक्तम् - (६/१३४) वृत्तगन्धोज्झितं गद्यं मुक्तकं वृत्तगन्धि च। भवेदुत्कलिकाप्रायं चूर्णकं च चतुर्विधम् ।। इति। गद्यकाव्यस्योदाहरणानि यथा सुबन्धुदण्डिबाणभट्टादिभिर्निर्मितानि गद्यकाव्यानि यदा समालोचकैरास्वादितानि तदा तेषां लक्षणं, भेदाश्च स्फुटतया निर्दिष्टानि। तथा हि विश्वनाथः कथाऽऽख्यायिकयोः स्वरूपं निर्दिशन् प्राह (साहित्यदर्पणे षष्ठपरिच्छेदे) “कथायां सरसं वस्तुगद्यैरेव विनिर्मितम् । क्वचिदत्रभवेदार्या क्वचिद् वक्त्रापवक्त्रके आदौ पद्यैर्नमस्कारः खलादेर्वृत्तकीर्तनम् ।। (६।३३२-३३। इति। एतदुदाहरणं कादम्बर्यादि वर्तते। आख्यायिका लक्षणं च तत्रैव (३३४-३३५ १/२) आख्यायिका कथावत् स्यात् कवेवंशानुकीर्तनम्। अस्यामन्यकवीनां च वृत्तं पद्यं क्वचित् क्वचित् ।। अध्यक्षयीयम् कथांशानां व्यवच्छेद आश्वास इति बध्यते। आर्यावक्त्रापवक्त्राणां छन्दसा येनकेनचित्। अन्यापदेशेनाश्वासमुखे भाव्यर्थसूचनम्।। इति आख्यानादयश्च कथाऽऽख्यायिकयोरेवान्तर्भाव्यान्न पृथगुक्ताः। तदुक्तं दण्डिना-“अत्रैवान्तर्भविष्यन्ति शेषाश्चाख्यानजातयः। इति। (काव्यादर्श) आख्यायिकाया उदाहरणं हर्षचरितादि। आख्यानं च पञ्चतन्त्रादयः । कथाख्यायिकयोरुदाहरणं बाणभट्ट एव सर्वप्रथमं स्वयं निबध्य प्रस्तुतवान् । स स्वयं हर्षचरितमाख्यायिकां, कादम्बरी च कथामाह।” करोम्याख्यायिकाम्भौधौ जिवाप्लवनचापलम् ।। (हर्षचरित १/१८) “धियानिबद्धेयमतीद्वयी कथा” ।। इति (कादम्बरी कविवंशवर्णनप्रस्तावे) आख्यायिकायाः कथावस्तु इतिहासप्रसिद्धं प्रख्यातं भवति, कथायां तु कल्पितं भवति। भोजराजश्च गद्यपद्ययोर्विषयविभागमपि कृतवान्। तथाहि सरस्वतीकण्ठाभरणे कश्चिद् गद्येन पद्येन कश्चिन्मिश्रेण शक्यते। कवितुं कश्चन द्वाभ्यां काव्येऽर्थः कश्चन त्रिभिः।। इति अस्यार्थः-कश्चिदर्थ : गद्येनैव कवितुं शक्यते, यथा-अटवीवर्णनं, तद् यथा गद्येन विधातुं शक्यते न तथा पद्येन। तत्र गद्यमेव प्रगल्भते। एवं काव्यशास्त्रता निर्वाहोचितेऽर्थे यथा पद्यमुत्सहते न तथा गद्यम् । कथायामाख्यायिकायां च गद्यमेव प्रगल्भते। चम्पूकाव्यं मिश्रेणैव स्वदते। इति तु अर्थोचित्यगवेषणया निश्चीयते। स्वरूपत एव पद्यादिकं कवेः “परिस्फुरन्तं प्रतिभाविशेषम्" आवेदयद् सहृदयहृदयावर्जकमवसीयते। अतएव कस्यचित् कवेः पद्यनिर्माणे -एवापरस्य गद्यबन्धे एव निर्माणकौशलं स्फुरल्लक्ष्यते। तदुक्तम् तत्रैव “यादृगु गद्यविधौ बाणः पद्यबन्धेऽपि तादृशः। गत्यां गत्यामियं देवी विचित्रा हि सरस्वती।। (२/२०) अतः कवेः शक्ति-व्युत्पत्ती पात्रस्यौचित्यम्, उभयोरुचिमाश्रित्य प्रयोगव्यवस्था क्रियते “यथामतिर्यथाशक्तिर्यथौचित्यं यथारूचिः। कवेः पात्रस्य चैतस्याः प्रयोग उपपद्यते। (तत्रैव २/२१) गद्यकाव्यमतीव प्रशंसितमालोचकैः – “गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति।" इत्यादिभिः सूक्तिभिः। गद्य-खण्ड गद्यकाव्यस्य वैशिष्ट्यम् ये भावा अभिप्राया वा वाक्यबाहुल्ये नान्यत्र वर्णयितुं शक्यास्त एव लघुना समस्तेन पदेन प्रकाशयितुं शक्यन्ते। ‘समसनं समासः स च बहुनांपदानामेकपदविधाने समर्थः । गद्यमपि अतिरुचिरं श्रुतिमधुरं सहृदयावर्जकं भवति। यथा मुक्तकं गद्यं समासरहितं भवति। यथा-यश्च मनसि धर्मेण, कोपे यमेन, प्रसादे धनदेन, प्रतापे वहिना, भुजे भुवा, दृशि श्रिया वाचि सरस्वत्या, मुखे शशिना, बले मरुता, रूपे मनसिजेन; सवित्रा च बसता सर्वदेवमयस्य प्रकटितविश्व-रूपाकृतेरनुकरोति भगवतो नारायणस्य। (कादम्बरी कथामुखे) वृत्तगन्धि-अत्र वृत्तानां गन्धो भवति । यथा- “अम्बिकाकरतलमिव रुद्राक्षग्रहणनिपुणम्, शिशिरसमयसूर्यमिव कृतोत्तरासङ्गम्, बडवानलमिव सततपयोभज्यम्…..जाबालिम्।" (कदाम्बरी पूर्वार्ध जाबालिवर्णनम्)। उत्कलिका-प्रायः दीर्घसमासं भवति। यथा- “उद्दामकेकारवानुमीयमानमरकत कुट्टिमस्थित शिखण्डिमण्डलम्, अतिशिशिरचन्दनविटपिच्छायानिषण्ण निद्रायमाण-गृहसारसम्-।” (कादम्बरी राजकुलवर्णनम्)। चूर्णकम्-एतदल्पसमासकं भवति। यथा “सप्तच्छदतरव इव कुसुमरजो विकारैरासन्नवर्तिनां शिरः शूलमुत्पादयन्ति, आसन्नमृत्यव -इव बन्धुजनमपि नाभिजानन्ति। उत्कुपितलोचना इव तेजस्विनो नेक्षन्ते। कालदष्टा इव महामन्त्रैरपि न प्रतिबुध्यन्ते” (कादम्बरीपूर्वार्धे शुकनासोपदेशे !)। इत्थं यैः कविभिः सरसं गद्यं निर्मितं त एव कवयः कथ्यन्ते। गद्यमधुरतायै यावान् शब्दानां तारतम्य भावोऽपेक्षितस्तावानेव पद्यमाधुर्ये, तथा कोमलकान्तपदावली पद्यादपि समधिका गद्येऽपेक्षिताऽस्ति। पूर्वे कवयो गद्यमेव ददृशुः __ ऐतरेय ब्राह्मणे-“अग्निदेवानायवयो विष्णुः परमस्तदन्तरेण सर्वा अन्या देवता। अग्नावैष्णवं पुरोडाशं निर्वपन्ति"….(१/१)। छान्दोग्ये-“यत्र नान्यत् श्रृणोति नान्यद् विजानाति तद्भूमा। अथ यत्रान्यत् पश्यति अन्यच्छृणोति अन्यद् विजानाति तदल्पं यो वै भूमा तदमृतमथ यदल्पं तन्मय॑म् ।।” पुराणेषु गद्यपद्ययोः मिश्रणं क्वचिल्लक्ष्यते। यथा श्रीमद्भागवते (पञ्चमस्कन्धे) “सांसर्गिको दोष एव नूनमेकस्यापि सर्वेषां सांसर्गिकाणां भवितुमर्हति इति निश्चित्य निशम्य कृपणवचो रहूगण उपासितवृद्धोऽपि निसर्गेण बलात्कृत-इत्यादि।" इत्थमतिरुचिरं गद्यकाव्यं वर्तते तल्लेखकेषु सुबन्धुरेव प्रथमः। स हि वासवदत्तां कथां निवबन्ध इति। अध्यक्षयीयम् अथ पद्यम्-पद्यं च छन्दोबद्धं नियताक्षरं भवति। “तच्च एकद्वित्रिश्चतुश्छन्दोभिर्मुक्तक सान्दानितक- विशेषककलापकानि इति मुक्तकभेदाश्चत्वार, इति हेमचन्द्रः (काव्यानुशासनम् ८/११) क्वचित् पञ्चविधमप्युक्तम्। प्रबन्धकाव्यं-खण्डकाव्यं महाकाव्यभेदाद् द्विविधम्। तत्र गद्यकाव्यं लोके सुबन्धु-दण्डि-वाणभट्टादिभिर्निबद्धम्। अनयोर्गद्य-पद्यमुभयोः काव्ययोः पृथक् पृथक् विलक्षणमास्वादमास्वाद्योभयात्मक-रचनानन्दानुभुतिमेकत्र सम्पादियतुं चम्पूकाव्यं कवन्ते कवयः। तदुक्तं हरिचन्द्रेण-गद्यावली पद्यपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम्। हर्ष-प्रकर्ष तनुते मिलित्वाद्राग्बाल्यतारुण्यवतीव कन्या।।। जीवनन्धरचम्पू : १/६। नृपत्वकवित्वोभयसम्पादिकाभ्यां युगपदेव लक्ष्मी - सारस्वतीभ्यां समालिङ्गितो नन्दित बुधसमाजो भोजराजश्चाह -“गद्यानुबन्ध रसमिश्रित पद्य सूक्ति हृदया हि वाद्यकलया कलितेव गीतिः। तस्माद् दधातु कविमार्गजुषां सुखाय चम्पूप्रबन्धरचनां रसना मदीया।। (चम्पूरामायणम् बालकाण्ड ३) बैंकटाध्वारिरपि विश्वगुणादर्शचप्वां (१/४) निगदति - पद्यं यद्यपि विद्यते बहु सतां हृद्यं विगद्यं न तत् गद्यं च प्रतिपद्यते न विजहत् पद्यं बुधा स्वाद्यताम् । आदत्ते हि तयोः प्रयोग उभयोरामोदभूमोदयं सङ्गः कस्य हि न स्वदेत मनसे माध्वीकमृद्वीकयोः।। इति शरभोजिराजः कुमारसम्भवचप्वां (१/६) प्राह - पद्यं हृद्यमपीह गद्यरहितं धत्ते न हृद्यास्पदं गद्यं पद्यविवर्जितं च भजते नास्वाद्यतां मानसे। साहित्यं हि तयोर्द्वयोरपिसुधामाध्वीकयोयोगिवत् सन्तोषं हृदयाम्बुजे वितनुते साहित्यविद्याविदान् ।। इति च। आधुनिका कथयन्ति चम्पूकाव्यं गद्यकाव्यस्यैव प्रकारान्तरेणोपबृंहणं प्रतीयते परमिदं न रोचते साधु समीक्षकेभ्यो विदग्धेम्यः। नलचम्पू - वरदाम्बिका - परिणयादिचम्पूषु सत्सपि गद्यबाहुल्येषु चम्पूरामायण-महाभारतचम्प्वादिषु पद्यस्यैव बाहुल्यं दृश्यते। वीरभद्रचम्प्वां नीलकण्ठविजयचम्वां चोभयो-गद्य पद्ययोः साम्यं दृग्गोचरीभवति। चम्पूकाव्यस्य तादृशान्यपि वैशिष्ट्यान्युपलभन्ते यानि गद्यपद्यकाव्येषु नोपलभ्यन्ते। __वेदोऽप्यपौरुषेयात्मकं काव्यं वर्तते । तत्र ऋग्वेदः पद्यमयम्, यजुर्गद्यमयम् । विभागात् पूर्व गद्यपद्यमयं वेद आसीत् चम्पूरूपम् । इत्थं संस्कृतसाहित्ये मिश्ररचनाया मूलं वेद स्वोपलभ्यते। __ कृष्णयजुर्वेदस्य तैतिरीयमैत्रायिणी, - कठशाखासु गद्यपद्यात्मिका मिश्ररचना बहुत्रोपलभ्यते।गद्य-खण्ड ब्राह्मणग्रन्थेषु मिश्ररचना पद्धतिः दृश्यते। ऐतरेय ब्राह्मणे हरिश्चन्द्रोपाख्यानं तन्निदर्शनम्। यद्यपि ब्राह्मणे प्रोक्तानि उपाख्यानानि - अलङ्कृतानि न सन्ति। उपनिषत्स्वपि यद्यपि संख्यावैषम्यं गद्यपद्ययोरस्ति तथापि मिश्रारचनातूपलभ्यत एव। केनोपनिषदः द्वितीयः खण्डः गयेनोपक्रान्तः पद्येनोपसंहृतश्च दृश्यते। श्वेताश्वतरोपनिषत् कठोपनिषच्च प्रश्नमुण्डकोपनिषच्च गद्यपद्यमयी दृश्यते। वस्तूपमा-रूपक-विरोधाभास -दृष्टान्तादयो ऽलङ्काराअपि उपलभ्यन्ते जातकमाला आर्यसूरिकृता मिश्ररचनाया निदर्शनम्। मा पञ्चतन्त्रादीनि मिश्ररचनाया उदाहरणानि। काम पुराणानि बाहुल्येन पद्यात्मकान्येव सन्ति, तथापि बहुन्युपाख्यानानि गद्यैः पद्यैश्च निर्वद्धानि सन्ति। प्रशस्तयो जातकमालाख्यमिश्ररचना-निदर्शनभूता उपलभ्यन्ते। इत्थं दृश्यते वैदिकसाहित्ये मिश्ररचनाया बीजं, ब्राह्मणेऽङ्कुरितमुपनिषत्युकन्दलितं, पुराणेषु पल्लवितं, प्रशस्तिषु जातकेषु च पुष्पितं, चम्पूकाव्यरूपेण च फलितम्। तत्र चम्पूकाव्यस्य प्रथमं निदर्शनं नलचम्पूकाव्यं त्रिविक्रमभट्टस्य रचनारूपं दशमशताब्दयां प्रादुर्भूतम्। चम्पूलक्षणम् - चम्पूकाव्यं भामहेन न निर्दिष्टं परं दण्डिना ‘गद्यपद्यमयी काचिच्चम्पू रित्यभिधीयते” इति लक्षणं काव्यादर्श १/३१) दर्शितम्। परमिदं लक्षणम् अविवेचित निदर्शनमिव भाति। हेमचन्द्रश्चाह-“गद्यपद्यमयी साका सोच्छ्वासाचम्पू: (काव्यानुशासने ४/६) परं बहुषु चम्पूकाव्येषु स्तबका भवन्ति, नोच्छ्वासाः। यथा- भागवत भारत विजय-आनन्दवृन्दावनादिषु। यशस्तिलकचम्पू,-नीलकण्ठविजय- द्रौपदी परिणयादिषु आश्वासाः सन्ति। यतिराजविजय,-काकुत्स्थविजय,-शिवविलासादिषु परिच्छेदका उल्लासाः सन्ति। रामायणाचप्वादिषु तरङ्गा उपलभ्यन्ते। अतः साङ्का सोच्छ्वासा इति यल्लक्षणै विन्यस्तं तत् लक्ष्यताऽवच्छेदकं न व्याप्नोति। डॉ. सूयकान्तोऽपि सिंह चम्पूकाव्यस्य भूमिकायां केनचित् कृतं चम्पूलक्षणमुदाहृतवान् - “गद्यपद्यमयी साङ्का सोच्छासा कविगुम्फिता। वापसी उक्ति प्रत्युक्ति - विष्कम्भशून्या चम्पूरुदाहृता ।। इति परमिदमपि लक्षणं विश्वगुणादर्श-, वीरभद्रविजयादिषु उक्ति- प्रत्युक्ति- युक्तेषु अव्याप्तमेव भवति। विश्वनाथश्च - “गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते” (साहित्यदर्पणे ६/३) लक्षणमिदं श्रव्यकाव्यप्रस्तावे उक्तमतो दृश्ये नातिव्याप्तिः। श्रव्यकाव्यं च रसान्वितमलङ्कृतं भवत्येवेति विवेचनं बहुभिरिदं लक्षणं स्वीकृतम्। इदं चम्पूकाव्यं ख्यातं प्रकीर्णमिति भेदाद् द्विधाभवतीत्यग्नि पुराणे उक्तम् । विश्वनाथस्तु मिश्ररचनायां राजस्तुतिः विरुदमुक्तवान्। विविधाभि-र्भाषाभिर्निवद्ल करम्भकमुक्तवान्। “गद्यपद्यमयी राजस्तुतिर्विरुदमुच्यते। करम्भकंतु भाषाभिर्विविधामि-र्विनिर्मितम् ।। इति (साहित्यदर्पणे ६/३६ - ३७) अध्यक्षयीयम् चम्पूकाव्यस्य महत्वं सूरिभिर्बहुधा वर्णितम् । गद्यरचना तु “गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति” इत्यादिभिरुक्तिभिर्बहुप्रशंसिता। पद्यरचनाऽपि रसनिर्भराऽलङ्कृता छन्दोबद्धागेया भवतीति-उच्छलितयौवना सरोजनयना विधुवदना पिकवचना तरूणी रमणीव पदविन्यासमात्रेण युवजनमनोहरति । परं मिश्रकाव्ये गद्यपद्यभययोरुभयोर्वैशिष्ट्यात् माधीकमृद्वीकयोर्योगवत्। किं बहुना मुक्ताफल - पद्मराग - हीरक - नीलमणिसगुम्फिता कनकसाग्रिवाति निर्मला विदग्धजनमनोहारिणी कामपि कमनीयतां धत्ते। उक्तं हि पद्मराजेन बालभागवते (१/३) – सामाजिक पद्यैरनववधैरपि गद्यैर्ललितास्तु यैः कृतिभिरियं हृदया। तुलसी-प्रबालविचकिलकलिता मालेव भगवतः शौरेः।। इति। साहित्यविधाविदां तु मिश्ररचना सुधामाध्वीकयोगवत् हृदि सन्तोषं विधते। चम्पूकाव्यम् - दशमशताब्द्यां त्रिविक्रमदेवविरचितं नलचम्पूकाव्यमतिरमणीयं रसनिर्भरं श्लेषोपनिबद्धमलङ्कृतं गुणगुम्फितं चम्पूगगने गगनमणिरिवो-दितमद्यापि चञ्चच्चमत्कृति मनिशं, विदधद् विद्योतते। तदनु बहूव्यश्चम्प्वः रामायण-महाभारत-पुराण-जैनसाहित्य देशमहत्त्व-चरित - कल्पनाप्रसूत-अध्यात्मनिष्ठ - यात्रा - दर्शन - समाजादिविषयानुपजीव्य रचिताः सञ्जनमनोहराश्चमत्कृतिं विदधाना प्रादुरभूवन्। अन्तिमं च अनिरुद्धचम्पूकाव्यम्; पुराण-महाभारत - हरिवंशादिषु वर्णितम् ब्रह्मवैवर्तपुराणे च वर्णितम् (श्रीकृष्णजन्मखण्डे ११४ अध्याये) __अनिरुद्धोपाख्यानमाश्रित्यं विरचितमति रमणीयं रसनिर्भरं सचेतसां मनोहरति। अस्यरचयिता महाकविर्देवराजः गोरक्षपुरमण्डलान्तर्गत रुद्रपुर राज्यवास्तव्य आसीत्। अस्य पूर्वजाः शैणेतनरेन्द्र पूजिताः कण्ठस्थीकृतसर्ववाङ्मयाः विश्वविश्रुतकीर्तयः शाण्डिल्यमहर्षिवंशोद्भवाः दयाक्षमादिगुणगरिष्ठाः भगवता रामचन्द्रेण पूजिताः प्रख्यातयशसः सरयूवारेनिवसन्त आसन्। तेषु वाग्देव्याः हवच्छन्दवासभूमिः ज्ञानगाम्भीर्यसीमा गौरीकान्त आसीत्। तस्मात् श्रुतशीलसिन्धु उदारगुणौध-धामाभिरामकीर्ती रघुपतिः सुतोऽजायत । तस्य पुत्रोदेवराज आसीत्। मातुर्नाम गोदावरी आसीत्। अस्याश्रय प्रदाता श्रीशिवलालपादः शीर्णेत नरेन्द्र, आसीत् । अस्य राज्यं प्रसिद्धमासीत्। अयं गोविन्दयशो वर्णियितारं कृष्णं कविं स्मरति।। __“सुगन्धिगोविन्दयशः करम्विता जयन्ति कृष्णस्य सरस्वती सुधा।।” (अनिरुद्धचम्पूकाव्यम् १/५) अयं कृष्णकविः षोडशशताब्दयां जातोऽतस्तद्नन्तरभावी देवराज इति निश्चीयते। इदमपि चम्पूकाव्यं श्री देवराजनिर्मित नवचम्पूकर्तारं विक्रमं स्पर्धते। __ परं खेदास्पदमद्यावधि सरस्वतीभवनेऽप्रकाशितैव वर्तते। अस्योपरि डॉ. वायुनन्दनपाण्डेयस्य निर्देशकत्वे श्रीमती उर्मिला देवी शोधकार्यमपि कृतवती। ETRIEFTET १० गद्य-खण्ड इत्थं चम्पूकाव्यानां विवरणमत्र समीचीनमुट्टङ्कितम् । यैर्विद्वद्भिः स्वनिबन्धेनापूरितोऽयं भागस्ते सर्वे विशिष्टाविद्वांसो धन्यवादार्हा सन्ति। तेषां समेषामाधमयं वहामि। यैरत्र साहाय्यं विहितं तेभ्योऽपि धन्यवादान् व्याहरामः। अस्य खण्डस्य सम्पादकं श्रीजयमन्तमिश्राचार्य विद्यावरिष्ठं लेखनकलाकुशलं स्वकीय श्रद्धासुमनोभिः समर्थ्य सम्भावयामि। खण्डेऽस्मिन् प्रशस्त - लेखकानां साहित्यशास्त्रमर्मज्ञानां श्रीमती डां. शिवशंकर उपाध्याय-त्रिलोकनाथझा-काशीनाथमिश्र-श्रीमती शारदा मिश्र-किशोरनाथझा- शिवशंकर प्रसाद महानुभानां कृते कृतज्ञतां ज्ञापयामि येषामालेखैर्गन्थस्यास्य संपूर्तिः संजाता। गद्यखण्डस्यास्य सम्पादने प्रकाशने च डॉ. रमाकान्त झा पर्याप्तं साहाय्यमकार्षीदतः डॉ. झा महोदयमपि साधुवादेन सभाजयामि। __ अस्य सफलप्रकाशने संस्थानस्य निदेशकः डॉ. सच्चिदानन्द पाठकः, सहायक निदेशकः डॉ. चन्द्रकान्त द्विवेदी तथान्ये च विद्यारसिकाः सहयोगं कृतवन्तः एते सर्वेऽपि साधुवादार्हाः। . __ मन्ये गद्यकाव्यस्य चम्पूकाव्यस्य च वैशिष्ट्यसम्पादकोऽयं खण्डो विदुषामाम्मोदाय महते उपकाराय च सम्पत्स्यते। वि.सं. २०६० वर्षप्रतिपदा नागेन्द्रपाण्डेयः अध्यक्षः उ.प्र. संस्कृत संस्थानस्य लक्ष्मणपुरस्थस्य पुरोवाक् गद्य-साहित्यम् अस्ति संस्कृत वाङ्मये गद्यकाव्यस्य स्वीयं वैशिष्ट्यम् । प्रथमतो वैदिकसंहितासु भवति गद्यस्य दर्शनम्। प्राचीनतमगद्यस्योदाहरणं कृष्णयजुर्वेदस्य तैत्तिरीय संहितायां समुपलभ्यते। अस्यैव वेदस्य काठकमैत्रायणीसंहितयोरपि विद्यते गद्यस्यास्तित्वम्। अथर्ववेदस्य षष्ठो भागो वर्तते गद्यात्मक एव । समग्रोऽपि मन्त्रयज्ञव्याख्यापरो ब्राह्मणग्रन्थो गद्य एवोपनिबद्धः परिदृश्यते। प्राचीनोपनिषत्सु गद्यस्य प्राचुर्य सुस्पष्टं परिलक्ष्यते। सिद्धान्तविवेचनप्रधानेषु दार्शनिक ग्रन्थेषु प्राप्यत एव गद्यस्य बहुलः प्रयोगः किन्तु ज्योतिषायुर्वेदसदृशवैज्ञानिकग्रन्थेषु नोपलभ्यते गद्यप्रयोग इति चिन्तनीया स्थितिः। संस्कृतगद्यस्य वरीवर्ति विलक्षणता-लघुता। समासरीत्या स्वल्पैरेव शब्दैरधि कार्थप्रकटनक्षमत्वमस्त्येव गद्यविधायाम्। “ओजो गुणः-समासभूयस्त्वमेतद्गद्यस्य जीवितम्” । शास्त्रप्रदिपादक ग्रन्थेषु गद्यस्य भूयस्त्वं विद्यत एव । वस्तुतः संस्कृत गद्ये कोमलभावाभिव्यञ्जनसामर्थ्य यथा वर्तते तथैव दाशर्निकगूढतत्त्वस्य प्रकटनक्षमत्वमपि विद्यते। संस्कृतभारत्या गद्यं प्राचीनता-प्रौढता-उपादेयता-भावाभिव्यञ्जनादीनां दृष्ट्या भारतीय साहित्यस्य वर्तते गौरवमयमङ्गम्। अस्ति वैदिक कालतो मध्ययुगपर्यन्तं गद्यविकास्येतिहासोऽतीव रोचकः। संस्कृत गद्यस्योपल्भ्येते द्वौ प्रकारौ-(१) वैदिककालिकः सरलो गद्यप्रकारः। (२) लौकिक संस्कृतस्य प्रौढः समासबहुलो गद्यप्रकारः। आस्तामुभयोरपि गद्यप्रकारयोः सौन्दर्य मोहकत्वञ्च । वैदिक-लौकिक संस्कृतगद्ययोर्मध्ये पौराणिकगद्यस्यालङ्कारिक प्रासादिकस्वरूपत्वमपि वैशिष्ट्यं भजते। अभिलेखेषु समुपलब्धानि गद्यान्यपि प्रौढानि प्राञ्जलानि च दृश्यन्त एव।। दार्शनिकगूढतथ्यानां समाधानाय धार्मिक विचाराणां सम्यगवबोधाय च बहुभिराचार्यै र्गद्यप्रयोगो भूरिशः कृत इति जानन्त्येव गुणैकपक्षपातिनो विद्वान्सः। एवं विधेष्वाचार्येषु सन्ति चत्वार आचार्याः प्रथिताः __ पतञ्जलि-शबरस्वामि-शंकराचार्यजयन्तभट्टाः। महर्षिः पतञ्जलिः पाणिनेरष्टाध्याः सूत्राणां विशदं व्याख्यारूपं महाभाष्यं विलिलेख। समस्तमपि महाभाष्यं विद्यते गद्यात्मकम्। व्याकरणसदृशं दुर्बोधं शुष्कं च विषयं सरलकथोपकथनशैल्यां बोधगभ्यं विघातुं सफलं प्रयासं चकार पतञ्जलिः । प्रोढमीमांसकश्शबर स्वामी कर्ममीमांसासूत्राणां भाष्यं विरचयामास। तस्य गद्यभाषाऽपि सुबोधा वर्तते। शंकरा चार्यस्य गद्य-सुषमा तु विलक्षणैव। आचार्यस्य वाक्यं वरीवर्ति सारगर्भ प्राञ्जलञ्च। शंकरा चार्येण प्रमुखप्राचीनोपनिषदां, ब्रह्मसूत्रस्य भगवद्गीतायाश्च प्रवाहमय्यां गद्यशैल्यां प्रशस्तं भाष्यं गद्य-खण्ड विलिख्य स्वरचनाकौशलस्य परिचयोऽदायि। दर्शनशास्त्रमर्मज्ञो मनीषी वाचस्पतिमिश्रः शङ्कराचार्यप्रणीतं भाष्यं प्रसन्नगम्भीरं जगाद। प्रसन्नगम्भीरं शाङ्कर भाष्यं देववाण्या अनुपममस्ति सौन्दर्यम्। __“न हि पद्भ्यां पलायितुं पारयमाणो जानुभ्यां रंहितुमर्हति” इत्येकेनैव सारगर्भण वाक्येन शंकराचार्यः सम्पूर्णस्यापि लौकिकसत्यस्यैतित्यं लिलेख। अस्ति जयन्त भट्टो न्यायशास्त्रस्य निष्णातो विद्वान्। अस्य ‘न्यायमञ्जरी’ न्यायदर्शनस्य प्रामाणिको ग्रन्थो विद्वत्सु नितरामस्ति प्रसिद्धः । जयन्तभट्टस्य व्यंग्योक्तिबहुला गद्य-गंगा वर्तते सरला प्राञ्जला च। भक भगवान् बुद्धो लोकभाषायां पाल्यां स्वानुपदेशान् कथयामास। लोका जनभाषामाध्यमेन ममोपदेशरहस्यं सम्यग् जानन्तु इति लक्ष्यीकृत्यैव संस्कृतापेक्षया लोकभाषां पालिं स्वीचकार तथागतः। पालिगद्यस्यास्ति रूपद्वयम्-(१) जातकग्रन्थेषु समुपलब्धं सरलं गद्यरूपम्, (२) शास्त्रीय ग्रन्थेषूपलब्धं प्रौढं गद्यरूपम्। त्रिपिटकानां पालिगद्यमतीव सुबोधं वर्तते। संस्कृतवाङ्मये गद्यात्मक कथानामुदयो विक्रमादपि प्रागभूत्। कात्यायनेन ४/२/६० सूत्रस्य स्ववार्तिके (आख्यानाख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यः) आख्यानस्य आख्यायिकायाश्च पृथगुल्लेखः कृतः। बृहत्कथायां पञ्चतन्त्रे तन्त्राख्यायिकायाञ्च कथाख्यायिकयोर्य उल्लेखः प्राप्यते तेन स्पष्टं प्रतीयते यद् गद्यकाव्यस्योद्भवो लोककथामाध्यमेनाप्यभूत्। कतिपयेषूपलब्धेष्वभिलेखेषु गद्यकाव्यस्य विकसितालंकृतरूपस्य परिज्ञानं जायते। अभिलेखेष्वेषु महाक्षत्रपस्य रुद्रदाम्नो जूनागढाभिलेखः समुद्रगुप्तस्य प्रयागप्रशस्तिलेखश्च प्रामुख्यं भजेते। रुद्रदाम्नोऽभिलेखकालः १५० ई. मन्यते। हरिषेणविरचितः प्रयागस्तम्भलेख ओजोगुणविशिष्टस्य गद्यकाव्यस्योदाहरणं विद्यते। लौकिक संस्कृत गद्यकाव्यस्य चरमोत्कर्षो मध्यकालिकगद्यकवीनां सुबन्धु-बाण-दण्डिनां गद्यरचनासु प्राप्यते। तदानीमेव गद्यकाव्यस्य कथाख्यायिकाभेदयोः पृथगुदाहरणग्रन्थोऽपि निर्मितः। गद्यकविषु सुबन्धुरेव प्रथमः कविर्यस्य काव्यमलङ्कृतशैल्यां निबद्धमुत्कृष्ट विद्यते विरचनम्। बाणभट्टेन प्रशंसितः सुबन्धुनिश्चितरूपेण बाणात् पूर्वकालिकः सिध्यति। मी न्यायवार्ति ककारस्यो द्योतकरस्य (षष्ठशतकस्य) स्पष्टोल्लेख “न्यायस्थितिमिवोद्योतकरस्वरूपामि” ति वाक्ये सुबन्धुः करोति अतः स उद्योतकरस्य पश्चाद्वर्ती स्वीक्रियते समालोचकैः। फलतः सुबन्धोराविर्भावकालः षष्ठशताब्या अवसाने सिद्ध्यति। सुबन्धोरेकैव रचना विद्यते ‘वासवदत्ता’। इयं ‘वासवदत्ता’ प्राक्तनाया उदयन वासवदत्ताप्रणयकथायाः सर्वथा भिन्नैवास्ति। वर्ततेऽस्याः समग्रमपि कथावस्तु सुबन्धो मौलिक कल्पनम्। अत्र कन्दर्पकेतु-वासवदत्तयोः प्रेमकथा श्लेषमय्यां गद्यशैल्यां चित्रिता विद्यते। ‘वासवदत्ता’ कथावस्तुनः स्वल्पतायां वर्णनप्राचुर्यस्य निदर्शनं प्रस्तौति। कविकौशलेन कथानके चत्कृतिप्रदानमेव कवेरुद्येश्यं परिलक्ष्यते। सुबन्धुर्वक्रोक्तिमार्गस्य निपुणः कविर्भण्यते “सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः। कि १३ पुरोवाक् वक्रोक्तिमार्गनिपुणाः चतुर्थो विद्यते न वा।।” सुरभारत्यां बाणभट्ट एवेदृशः कविर्यस्य जीवनचरितं नास्ति तिमिराच्छन्नम्। स्थाण्वीश्वरस्य सम्राजो हर्षवर्धनस्यासीद्बाणः सभाकविः, अतोऽस्याविर्भावकालो निर्विवाद एव। हर्षचरितवर्णना नुसारेण बाणभट्टस्य कालः सप्तमशताब्धाः पूर्वार्धो यतो हि बाणः हर्षवर्धनराज्यस्योत्तरकालिकः सम्मानितः सभापण्डितोऽवर्तत। बाणभट्टविरचितेषु नैकेषु ग्रन्थरत्नेषु ‘हर्षचरितम्’ ‘कादम्बरी’ इति ग्रन्थद्वयमेव बाणभट्टस्य महाकवित्वं प्रमाणयति। __अस्ति ‘हर्षचरितम्’ बाणभट्टस्यैतिहासिकं गद्यकाव्यम्। “करोम्याख्यायिकाम्भोधौ जिह्वाप्लवन-चापलम्” इत्युक्त्वा बाणभट्टो हर्षचरितमारख्यायिकां कथयति। अष्टसूच्छ्वासेषु विभक्तायामस्यामाख्यायिकायां स्थाण्वीश्वस्य हर्षवर्धनस्य जीवनचरितं सविस्तरमवर्णयद् बाणः। तत्र महाकविना बाणेन प्रारंभिकेषु त्रिषु उच्छवासेषु स्वजीवनवृत्तं शेषेसु पञ्चसु उच्छ्वासेषु सम्राजो हर्षवर्धनस्योदात्तं चरितवर्णनमकारि। हर्षचरिते ऐतिहासिकविषयमवलम्ब्य गद्यकाव्यविरचनस्य प्रथमः प्रयासो वर्तते बाणभट्टस्य । हर्षचरितं शुष्कघटनाबहुलेतिहासापेक्षया विद्यते विशुद्धकाव्यशैल्यामुपन्यस्तं वर्णनप्रधानं काव्यम्। गद्यकाव्येऽस्मिन् वर्तते वीररसस्य प्राधान्यम् यथास्थानं करुणोऽपि रसः सन्निविष्टः सहृदयान् चमत्करोति। काव्यमिदमैतिहासिकं सदपि काव्यसौन्दर्यादभुतवर्णनचातुर्यात् च परां प्रसिद्धिं भजति। __ अस्ति ‘कादम्बरी’ न केवलं बाणभट्टस्य अपि तु संस्कृतवाङ्मस्य अनुपमा गद्यरचना। कादम्बर्याः कथा नैकजननसम्बद्धा प्रत्युत नायकोपनायकयोश्चन्द्रापीडपुण्डरीकयोर्जन्मत्रय सम्बद्धा वर्तते। अत्रास्ति बाणस्य विलक्षणा कल्पना-नायिकाद्वारा नायकाप्राणरक्षणेन सह पुनर्मिलनप्रतीक्षा । वस्तुतः कादम्बरी विद्यते कालिदास्य आशाबन्ध-जननान्तरसौहृदयोरवतारणा। क्रान्तद्रष्टुः कवेः काव्यं मानवजीवनस्य परमोद्येशं निर्दिशति। काव्यस्यात्मा रसः रस आनन्दस्वरूपः। आनन्दानुभूतिरेव काव्यस्य चरमं प्रयोजनम्। लौकिकवासनात्मकप्रेमापेक्षया तपसा अलौकिकस्नेह प्राप्तिरेव मानवजीवनस्य शोभनं लक्ष्यमिति संदिशति कादम्बरी। गद्यकाव्यप्रणेतृषु पदलालित्ये प्रसिद्धिंगतस्य दण्डिनो नाम केषां न विदितम् ! अवन्तिसुन्दयां प्राप्यते महाकवेर्दण्डिनः स्वल्पपरिचयः। तदनुसारेणासीद् दण्डी महाकवे रवेः प्रपौत्रः सनातनधर्मावलम्बिनामार्याणां पवित्रा नगरी काञ्ची आसीद् दण्डिनो जन्मभूमिः। शैवधर्मप्रवर्तकस्य पल्लवराज नरसिंह वर्मणो राज्यकालः ६६०-७१५ मन्यते। अतः काञ्च्याः पल्लवनरेशस्य सभाकवेर्दण्डिनोऽपि समयो बाणस्य पश्चात् अष्टमशताब्धाः पूर्वार्धः स्वीक्रियते। राजशेखरेण-त्रयोऽग्नयस्त्रयो देवास्त्रयो वेदास्त्रयो गुणाः त्रयोदण्डिप्रबन्धाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः” ।। इति पद्ये दण्डिनः प्रबन्धत्रयस्य निर्देशः कृतः। दण्डिनः त्रिषु प्रबन्धेषु काव्यादर्शः अलङ्कारशास्त्रस्य मान्यो ग्रन्थो यस्मिन् काव्यतत्त्वानां सारगर्भ संक्षिप्तं वर्णनं विद्यते। दण्डिनो १४ गद्य-खण्ड LTE द्वितीयं दशकुमारचरितं रोचकाख्यानयुतं नितरां प्रसिद्धं गद्यकाव्यं सहृदयानां मनांसि रञ्जयति। सन्त्यस्य दशकुमारचरितस्य त्रयो भागाः-(१) भूमिका, (२) मूलग्रन्थः (३) पूरकभागः तत्र भूमिकाभागः पूर्वपीठिका नाम्ना प्रसिद्धः। पूरकभागश्चोत्तरपीठिका नाम्ना ख्यातः। एवं हि प्रारंभे पूर्वपीठिकया अन्ते च उत्तरपीठिकया सम्पुटितः समग्रोऽपि ग्रन्थो दशकुमारचरितमिति नाम्ना विख्यातः काव्यतत्त्वविदां समाजे। काव्येऽस्मिन् कुसुमपुरनगरस्य दशकुमाराणां कौतूहल वर्धकं चरितं ललितपदविन्यासपूर्वकं वर्णितमस्ति । अवन्तिसुन्दरीकथा ‘दण्डिनो विद्यते मौलिकरचना यस्यां दशकुमारचरितस्य पूर्वपीठिकावर्णितमितिवृत्तं वर्तते। दण्डिनः तृतीयं काव्यं वर्तते द्विसन्धानकाव्यं यस्मिन् श्लेषद्वारा रामायण-महाभारतयोः कथा उपनिबद्धाऽस्ति। _सुबन्धु-बाण-दण्डिभिः प्रवर्तितमार्गमनुसरन्तः परवर्तिनः कवयोऽपि कतिपयानि शोभनानि गद्यकाव्यानि विरचितवन्तः। तेषु धनपालस्य ‘तिलकमञ्जरी’, वादीभसिंहस्य गद्यचिन्तामणिः वामनभट्टबाणस्य ‘वेमभूपालचरितम्’, विश्वेश्वरस्य ‘मन्दारमञ्जरी’, अम्बिकादत्तस्य शिवराजविजय इति प्रामुख्यं भजन्ति। सुरभारत्यां गद्य-पद्यकाव्यव्यतिरिक्ता चम्पू: इतिनाम्नी वर्तते अपरापि काव्य-विधा। “गद्य-पद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते” गद्य-पद्ययोर्विशिष्टमिश्रणेन निर्मितं काव्यमेव चम्पू उच्यते-गद्यकाव्यस्य वैशिष्टयमर्थगौरवात् पद्यकाव्यस्य च सुललितरागेण सह रमणीयार्थप्रतिपादनात् किन्तु अनयोरेकत्र समन्वयात् चम्पूकाव्यं सुतरामेव गद्य-पद्य काव्यापेक्षया मनोहरि इति आमनन्ति भावुकाः। प्रथमं महाकविना दण्डिनैव स्वलक्षणग्रन्थे काव्यादर्श (११३१) चम्पूकाव्यस्य लक्षणं निर्दिष्टम्-“गद्य-पद्यमयी काचित् चम्पूरित्यपि विद्यते” अनेन प्रतीयत एव यत् तदानीमासीत् चम्पूकाव्यस्य सत्ता। वस्तुतो गद्य-पद्ययोर्मिश्रितरूपस्यैकत्र विन्यासो नितरां रुचिरो हृदयावर्जकश्चेति सुस्पष्टमेव। __ चम्पूकाव्यं गद्यकाव्यस्यैव प्रकारान्तरेणोपबृंहणमतोऽस्योदयविकासौ गद्यकाव्यस्य स्वर्णयुगात् पश्चाद्वर्तिनौ । यद्यपि गद्यपद्ययोर्मिश्रित शैल्याः प्रयोग प्राचीनकालादेव दृश्यते। वैदिकयुगादारम्य पौराणिक कालं यावत् मिश्रशैल्या उदाहरणानि प्राप्यन्ते किन्तु तानि चम्पूकाव्यकोटौ नायान्ति। चमत्कारिणी शैली, मनोहारिणी कल्पना, समस्तपदानां प्राचुर्यम्, विशेषणबाहुल्यम् अलङ्कार विन्यासश्चेति सन्तीमानि चम्पूकाव्यस्य वैशिष्ट्यानि। एभिर्वैशिष्ट्यैः समलंकृतं चम्पूकाव्यं पाषाणयुगादारभ्य अद्यावधि संस्कृतवाङ्मये पृथक् काव्यविधारूपेण समाद्रियते। __ संस्कृते कथानां विषयेऽस्त्येकं विपुलं कथासाहित्यं यस्य न केवलं भारते, प्रत्युत विदेशेऽपि प्रभावोऽवलोक्यते। भारतवर्षस्य त्रिषु धार्मिकसम्प्रदायेषु कथाख्यानयोरुपयोगः स्वसिद्धान्तप्रचाराय बहुशः कृतः। वैदिकसाहित्यस्य ब्राह्मणेषु उपनिषत्सु च प्राप्ताख्यानानां संकेतः ऋग्वेदस्य सम्वादसूक्तेषु मिलत्येव। जैनसाहित्ये प्राकृत-संस्कृतापभ्रंशभाषासु कथानां विस्तरः समुपलभ्यते। बौद्धेषु पालिभाषायां निबद्धाः कथा जातक नाम्ना विख्याताः । सन्त्यासु जातककथासु भगवतो बुद्धस्य पूर्वजन्मनां कथा उपनिबद्धाः। जातककथासु पुरोवाक् ऐतिहासिक-भौगोलिकसामाजिकविषयाणां सामग्यः प्राचुर्येण समुपलभ्यन्ते यासां सामग्रीणां परिशीलनेन बुद्धादपि प्राक्तनकालिकेतिहाससमाजयोः स्वरूपं सम्यग् ज्ञायते। __ भारतीय साहित्ये प्राचीनकाले कथायाः चक्रद्वयमुपलभ्यते-(१) बृहत्कथा, (२) पञ्चतन्त्रम् । अनयोः बृहत्कथा प्राचीनतरा। पैशाची भाषायामुपनिबद्धा बृहत्कथा सम्प्रति मूलरूपे नोपलभ्यते किन्तु संस्कृते निबद्धं पञ्चतन्त्रमद्यापि तस्यामेव भाषायां सुरक्षितं विद्यते। उपयुक्तयोरुभयोरपि कथाग्रन्थयो-रनुशीलनं भारतीय कथासाहित्य स्वरूप-विकासज्ञानाय अतीवाश्वयकं विद्यते। __ ‘बृहत्कथा’ अद्भुतयात्राविवरणस्य प्रणयप्रसंगस्य च ईदृशो गभीरः सागरः यस्यैकेन बिन्दुना विविधाः कथा विरचिताः। तथाहि सत्यंबृहत्कथाम्भोधेर्बिन्दुमादाय संस्कृताः तेनेतरकथाः कन्थाः प्रतिभान्ति तदग्रतः।। (तिलकमञ्जरी) बृहत्कथायाः चत्वारि संस्करणानि प्राप्यन्ते-बृहत्कथाश्लोकसंग्रहः, वसुदेवहिण्डी बृहत्कथामञ्जरी-कथासरित्सागरः इति पंचतंत्रे यासां कथानां संग्रहः ताः कथा भारते प्राचीना विभिन्नासु शताब्दीषु प्रान्तेषु च पंचतन्त्रस्य बहुनि संस्करणानि जातानि तेषु प्राचीनतमं संस्करणं ‘तन्त्राख्यायिका इति नाम्ना प्रसिद्धम्। हितोपदेशः पञ्चतत्रमाधारीकृत्य विरचितः लोकप्रियः कथाग्रन्थः विद्वत्सु नितरां ख्यातिंगतोऽस्ति। वस्तुतः पञ्चतन्त्रं समग्रस्यापि विश्व साहित्यस्य एको दिव्यो निधिः यस्मिन् कथामाध्यमेन नीतेरुपयोगिनी शिक्षा प्राप्यत एव । संस्कृतवाङ्मयेतिहासस्य पञ्चमोऽयं गद्यखण्डः सप्तसु प्रकरणेषु विभाजितो यस्मिन् गद्यसाहित्यस्य साङ्गोपाङ्ग विवेचनं विद्यते। तत्र सन्ति इमानि प्रकरणानि (१) गद्यकाव्यम्, (२) चम्पूकाव्यम्, (३) कथासाहित्यम्, (४) लौकिक संस्कृत कवयित्रीनां-रचनाः, (५) परिशिष्टांशः (थेरीगाथा) (६) नीतिशास्त्रस्येतिहासः, (७) अभिलेख-साहित्यम्। उपर्युक्तेषु सप्तसु प्रकरणेषु गद्यकाव्यविवेचनक्रमे प्राचीनकालत इदानीं यावत् गद्यकाव्यलेखकानां तेषाञ्च कृतीनां विशदं विश्लेषणं विदुषो लेखकस्य काव्याकलनक्षमतां द्योतयति । चम्पूकाव्यस्य वर्गीकृतं समीक्षणं काव्यस्यास्य विषयव्यापकत्वमभिव्यनक्ति। कथावस्तुदृष्ट्या समुपलब्धचम्पूकाव्यानां वर्गीकरणं नवसु शीर्षकेषु निर्दिष्टं विद्यते-(१) रामायणकथाश्रितं चम्पूकाव्यम्, (२) महाभारतकथाश्रितं चम्पूकाव्यम्, (३) पुराणाश्रितं चम्पूकाव्यम्, (४) जैनग्रन्थाश्रितं चम्पूकाव्यम्, (५) महापुरुषजीवनचरिताश्रितं चम्पूकाव्यम्, (६)यात्राप्रबन्धात्मकं चम्पूकाव्यम्, (७) देवमहोत्सवाश्रितं चम्पूकाव्यम्, (८) दार्शनिकं चम्पूकाव्यम्, (६) काल्पनिक चम्पूकाव्यम् । इमानि चम्पूकाव्यानि मूलग्रन्थे खण्डसम्पादकस्य संस्कृतभूमिकायाञ्च सविस्तरं वर्णितानि तानि तत्रैव द्रष्टव्यानि गुणैकपक्षपातिभिः सुधीभिः। अस्ति कथासाहित्यस्य क्षेत्रमत्यन्तं व्यापकम् । सन्दर्भेऽस्मिन् विद्वान् लेखको वेदब्राह्मणोप १६ गद्य-खण्ड निषत्सु प्राप्ताख्यानानां च पर्यवेक्षणं प्राज्जलया भाषया कृतवान्। बौद्ध-जैनसाहित्येषु च समुपलब्धकथावैभवस्य विस्तृतोल्लेखो नितरामुपादेयः। उपदेशप्रदनीतिमूलककथासु पञ्चतन्त्र हितोपदेश-पुरुषपरीक्षाणां सर्वेक्षणं लेखकस्य सूक्ष्मविवेचनसामर्थ्य प्रकटयति। मनोरंजककथासु बृहत्कथा-कथामञ्जरी-कथासरित्सागर-वेतालपञ्चविंशति- शुकसप्तति-सिंहासनद्वात्रिंशिकाप्रभृतयः कथाग्रन्थाः विवेचनविषयकोटौ समागताः सन्ति । अस्मिन्नेव प्रकरणे आधूनिक-कथा-साहित्य सूचनाऽपि प्रकरणस्यास्य महत्त्वं व्यनक्ति। संस्कृतसाहित्य कवयित्रीनामृषिकानां च रचनानां चर्चाऽपि महत्त्वपूर्णा विद्यते। परिशिष्टांशे बौद्धभिक्षुणीनां गीतान्यपि निर्दिष्टानि सन्ति। ‘नीतिशास्त्रस्येतिहासः’ इति प्रकरणे मुख्यतः चाणक्यनीतिदर्पण-भर्तृहरिशतक भामिनीविलास-शतकावली-कुट्टनीमत-आर्यासप्तशती-कविकण्ठाभरण- देशोपदेश-नीतिरत्नादयो प्रमुखा ग्रन्थाः सम्यग् विवेचिताः सन्ति। अत्रैव विदग्धमुखमण्डनमिति प्रहेलिकाकाव्यमपि चर्चितं विद्यते। अभिलेखसाहित्ये पालि-प्राकृत-संस्कृताभिलेखैः सह बृहत्तर- भारतस्याभिलेखानां सविस्तरः परिचयोऽभिलेखानां माहात्म्यं द्योतयति लेखकस्य वैदुष्यमपि सम्यग् व्यनक्ति। ज खण्डस्यास्य सम्पादकः प्रो. जयमन्त मिश्रः साहित्यशास्त्रस्य लोकविश्रुतोऽस्ति मर्मज्ञो मनीषी। अस्य महानुभावस्य वैदुष्यपूर्णे सम्पादकत्वे प्रस्तुत ग्रन्थस्य प्रकाशनं सुतरां प्राशस्त्यं भजति। मिश्रमहाभागस्य विस्तृते संस्कृतसम्पादकीये समग्रस्य गद्यसाहित्यवैभवस्याकलनमस्य सारस्वतसाधनाया द्योतकम्। अहं प्रो. जयमन्त मिश्र महोदयाय हार्दिकं साधुवादं ददामि। खण्डस्यास्य समेऽपि लेखकाः स्व-स्वविषयाणां निष्णाता विद्वान्सस्तेऽपि साधुवार्दाहाः येषामालेखैः ग्रन्थस्यास्य उपयोगिता संवृद्धा। येषां विदुषां साहित्यसम्पद्भिः प्रत्यक्षपरोक्षतया गद्यखण्डस्य सम्पूर्तिः संजाता तान् प्रति कृतज्ञता ज्ञापयामि। खण्डस्यास्य प्रकाशन सन्दर्भ उत्तर-प्रदेशस्य शासन-विभागाधिकारिणः संस्कृत-संस्थानस्य कार्यकारिण्याः सदस्याश्च धन्यवादार्हा येषां सार्थकसहयोगेनोत्साहवर्धनेन च पुस्तकस्य प्रकाशनं यथासमयमभूत्। धान संस्थानस्य निदेशकसहायक निदेशक महोदयावपि साधुवादा), ययोः सक्रियः सहयोगः संस्थानप्रवतिर्तस्य कार्यक्रमस्य साफल्येऽपूर्वां भूमिकां सम्पादयति। __ गद्यखण्डस्य सम्पादन-प्रकाशनक्रमे ममान्तेवासी डॉ. रमाकान्त झा पर्याप्तं साहाय्यमकरोदतः तमपि स्वाशीर्वचोभिः संयोजयामि। अन्ते च शिवम् आर्टस्य व्यवस्थापकान् द्विवेदिबन्धून प्रति शुभकामना प्रकटयामि येषां सक्रियः सहयोगो गद्यखण्डस्य निर्विघ्नमुद्रणे उपयोगी अभूदिति शम्। महाशिवरात्रि किया विक्रमसम्वत् २०५५ बलदेवोपाध्यायः शारदा निकेतन रवीन्द्रपुरी, वाराणसी-५ . भमिका साकार गद्य-साहित्य संस्कृत वाङ्मय के गद्य-साहित्य की अपनी विशिष्टता है। वैदिक संहिताओं में सर्वप्रथम गद्य का दर्शन होता है। वैदिक साहित्य में गद्य भारती की झलक हमें यजुर्वेद में मिलती है। प्राचीनतम गद्य का उदाहरण कष्ण यजर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में प्राप्त होता है। इसी वेद की अन्य काठक, मैत्रायणी संहिताओं में भी गद्य की सत्ता विद्यमान है। अथर्ववेद में भी गद्य का उदाहरण मिलता है। अथर्ववेद का षष्ठ भाग गद्य में ही निबद्ध है। वैदिक मन्त्रों और यज्ञों का व्याख्यापरक समग्र ब्राह्मणग्रन्थ गद्य में ही लिखित है। वेद के अन्तिम भाग आरण्यकों तथा प्राचीन उपनिषदों में गद्य का प्राचुर्यस्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। दार्शनिक ग्रन्थों में जहाँ किसी सिद्धान्त का विवेचन ही मुख्य विषय है, गद्य का प्रचुर प्रयोग मिलता है, परन्तु ज्योतिष तथा आयुर्वेद जैसे वैज्ञानिक विषयों के ग्रन्थों में गद्य का दर्शन नहीं होता। पद्य रचना के प्रति विशेष पक्षपात का मुख्य कारण है-पद्य की छन्दोबद्ध संगीतमयता। गद्य की अपेक्षा पद्य शीघ्र याद होता है और वह स्मृतिपटल अमिट रूप से अङ्कित रहता है। संस्कृत गद्य की प्रथम विशेषता है-लघुता। समासपद्धति से अधिकाटि कि अर्थ को कम से कम शब्दों में अभिव्यक्त करने की क्षमता गद्य विधा में है। ओज गुण अर्थात् समास का बाहुल्य गद्य का प्राण तत्त्व है-“ओजः समासभूयस्त्वमेतद्गद्यस्य जीवितम्”। समास बहुल गद्यबन्ध का सद्भाव प्रथम तथा द्वितीय शतक के शिलालेखों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। क्षत्रप रुद्रदामन् के शिलालेख और हरिषेण की प्रयाग-प्रशस्ति के गद्य प्रौढ़, समास बहुल तथा उदात्त हैं। __ शास्त्रीय ग्रन्थों में भी गद्य का प्राचुर्य है। विचार-विनिमय तथा शास्त्रीय सिद्धान्तों के वर्णन का उचित माध्यम गद्य ही है। वस्तुतः संस्कृत गद्य में कोमल भावों को प्रकट करने की जितनी शक्ति है, उतनी ही दर्शन के दुरूह तथ्यों को अभिव्यक्त करने की क्षमता भी उसमें है। संस्कृत साहित्य का गद्य प्राचीनता, प्रौढ़ता, उपादेयता तथा भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से भारतीय साहित्य का गौरवमय अङ्ग है। __ वैदिक काल से मध्ययुग तक गद्य के विकसन का इतिहास बड़ा ही रोचक है। संस्कृत में गद्य के दो प्रकार के रूप मिलते हैं-वैदिक काल का सरल बोल-चाल का गद्य तथा लौकिक संस्कृत का प्रौढ़, समास बहुल, गाढ़ बन्ध वाला गद्य। दोनों प्रकार के गधों में सौन्दर्य तथा मोहकता है। वैदिक तथा लौकिक संस्कृत गद्य के मध्य पौराणिक गद्य भी आलंकारिक तथा प्रासादिक है।गद्य-खण्ड अभिलेखों में उपलब्ध गद्य भी प्रौढ़, आलंकारिक तथा प्राञ्जल हैं। दार्शनिक गुत्थिओं को सुलझाने तथा शास्त्रीय विचारों को सरलता से समझाने के लिए धार्मिक आचार्यों ने पर्याप्त मात्रा में गद्य को प्रश्रय दिया है। अपने मनोगत भावों को प्रकट करने की ओर विशेष ध्यान देने के कारण आचार्यों ने शब्द सौन्दर्य के मोह का संवरण किया है, किन्तु इनमें कुछ ऐसे भी आचार्य हैं जिनकी गद्य-गंगा विषय के अनुकूल ही रसपेशल प्राञ्जलता को लिए प्रवाहित दीख पड़ती है। ऐसे आचार्यों में मुख्यतः चार आचार्य उल्लेखनीय हैं-पतञ्जलि, शबरस्वामी, शंकराचार्य और जयन्त भट्ट महर्षि पतञ्जलि ने पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्रों की विशद व्याख्या के रूप में महाभाष्य की रचना की है। समस्त महाभाष्य गद्यात्मक है। पतञ्जलि ने व्याकरण जैसे कठिन और शुष्क विषय को भी सरल तथा कथोपकथन शैली में प्रस्तुत कर सुगम बनाने का सफल प्रयास किया है। शबर स्वामी प्रौढ़ मीमांसक हैं। उन्होंने कर्ममीमांसा-सूत्रों पर प्रसिद्ध भाष्य लिखा है। उनकी गद्य-भाषा सरल और सुबोध है। शंकराचार्य की गद्य सुषमा निराली है। उनके वाक्य सारगर्भ तथा प्राञ्जल हैं। आचार्य शंकर ने प्रमुख उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र तथा भगवद्गीता पर प्रवाहमयी गद्यशैली में भाष्य लिखकर अपने रचना कौशल का परिचय दिया है। दर्शनशास्त्र के मर्मज्ञ मनीषी वाचस्पति मिश्र ने आचार्य शङ्कर के भाष्य को प्रसन्न गम्भीर कहा है। शंकराचार्य का प्रसन्न गम्भीर गद्य संस्कृत भारती का अनुपम सौन्दर्य है। “न हि पदभ्यां पलायितुं पारयमाणो जानुभ्यां रंहितुमर्हति” अर्थात् पैरों से भागने में समर्थ व्यक्ति के लिए घुटनों के बल रेंगना शोभा नहीं देता, इस एक ही सारगर्भ वाक्य में आचार्य ने समस्त लौकिक सत्य का इतिहास लिख दिया है। जयन्त भट्ट न्याय शास्त्र के निष्णात आचार्य हैं। इनकी ‘न्यायमञ्जरी’ न्यायदर्शन का प्रामाणिक ग्रन्थ है। जयन्त का व्यंग्योक्ति प्रधान गद्य सरस तथा प्राञ्जल है। __भगवान बुद्ध ने लोक भाषा पाली में अपने उपदेशों का कथन किया। जनमानस तक अपने उपदेशों को पहुँचाना उनका लक्ष्य था अतः उन्होंने संस्कृत की अपेक्षा लोकभाषा पालि का सहारा लिया। पालिगद्य के दो रूप हैं-(१) जातक ग्रन्थों में उपलब्ध सरल तथा (२) शास्त्रीय ग्रन्थों में उपलब्ध प्रौढ गद्य। त्रिपिटकों का पालि गद्य बड़ा ही सरल और सुबोध है। __संस्कृत वाङ्मय में गद्यात्मक कथाओं का उदय विक्रम से लगभग चार सौ वर्ष पहले हुआ था। कात्यायन ने ४।२।६० सूत्र के अपने वार्तिक-(आख्यानाख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यश्च) में आख्यान और आख्यायिका का उल्लेख अलग-अलग किया है। पतञ्जलि ने ‘यवक्रीत’ ‘प्रियगु’, तथा ‘ययाति’ का आख्यान के उदाहरण में तथा ‘वासवदत्ता’ ‘सुमनोत्तरा’ और ‘भैमरथी’ का आख्यायिका के उदाहरण में नाम निर्देश किया है। काशिका में भी इन्हीं नामों का उल्लेख सूत्र की व्याख्या में मिलता है। इसके अतिरिक्त बृहत्कथा, पञ्चतन्त्र तथा तन्त्राख्यायिका में कथा और आख्यायिका का जो उल्लेख मिलता है, उससे यह स्पष्ट प्रतीत भूमिका १६ होता है कि गद्यकाव्य का उद्भव लोककथाओं के माध्यम से भी हुआ है। कुछ अकाट्य साक्ष्यों से विक्रम सं. के आस-पास और ईस्वी सन् ४०० के लगभग भी गद्यकाव्य के विकसित होने का उदाहरण मिलता है। कुछ उपलब्ध अभिलेखों से गद्यकाव्य के विकसित-अलंकृत रूप का परिज्ञान होता है। इन अभिलेखों में महाक्षत्रप रुद्रदामन् का जूनागढ़ अभिलेख और समुद्रगुप्त का प्रयागप्रशस्ति-लेख प्रमुख हैं। रुद्रदामन् के अभिलेख का समय १५० ई. माना जाता है। हरिषेण विरचित समुद्रगुप्त (४०० ई.) प्रयागस्तम्भलेख भी ओजोगुण विशिष्ट अलंकृत गद्यकाव्य का उदाहरण है। इस अभिलेख के लम्बे वाक्य और अलङ्कृत शैली का तुलना बाण की गद्यशैली से की जा सकती है। लौकिक संस्कृत गद्यकाव्य का चरम उत्कर्ष मध्यकालीन गद्यकवि सुबन्धु, बाण और दण्डी की गद्यरचनाओं में मिलता है। उसी समय गद्यकाव्य के कथा और आख्यायिका भेदों के अलग-अलग उदाहरण ग्रन्थ भी लिखे गये। गद्यकाव्य के कवियों में सुबन्धु ही सर्वप्रथम कवि हैं जिनका काव्य अलंकृत शैली में निबद्ध गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। बाणभट्ट से प्रशंसित सुबन्धु निश्चित रूप से बाण से पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। न्यायवर्तिककार उद्योतकर (षष्ठशती) का स्पष्ट संकेत “न्यायस्थितिमिवोद्योतकस्वरूपाम्” होने से सुबन्धु उद्योतकर के पश्चाद्वर्ती प्रतीत होते हैं। परिणमतः सुबन्धु का समय षष्ठशती का अन्त सिद्ध होता है। __ सुबन्धु का एक ही ग्रन्थ हैं-‘वासवदत्ता’। सुबन्धु की ‘वासवदत्ता’ उदयन-वासवदत्ता की प्राचीन प्रणय-कथा से सर्वथा भिन्न हैं। वासवदत्ता की पूरी कथावस्तु सुबन्धु की मौलिक कल्पना है। इसमें राजकुमार कन्दर्पकेतु और पाटलिपुत्रराजकन्या वासवदत्ता की प्रेमकथा श्लेषमय गद्य में सजीव चित्रित है। ‘वासवदत्ता’ उन गद्यकाव्यों का प्रतिनिधित्व करती है जिसमें कथावस्तु की स्वल्पता और वर्णन की प्रचुरता रहती है। कथानक को कविकौशल से विशेष अलङ्कृत तथा चमत्कृत करना ही कवि का उद्देश्य है। सुबन्धु प्रत्यक्षर श्लेषमय काव्य रचना की प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हैं। उनका काव्य श्लेष और विरोधाभास का ऐसा गहन कानन है जिसमें स्वाभाविक काव्य-सौन्दर्य अदृश्य सा हो जाता है। सुबन्धु वक्रोक्तिमार्ग के निपुण कवि मानते जाते हैं - सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः। वक्रोक्तिमार्गनिपुणाः चतुर्थो विद्यते न वा।। संस्कृत साहित्य में बाणभट्ट ही एक ऐसे महाकवि हैं जिनके जीवन चरित के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है। कन्नौज और स्थान्वीश्वर के प्रसिद्ध हिन्दू सम्राट हर्षवर्धन के समसायिक सभापण्डित होने के कारण इनका समय निर्विवाद है। १२वीं शती के आलंकारिक रुय्यक से लेकर आठवीं शती के वामन ने अपने-अपने ग्रन्थों में बाण तथा उनकी रचनाओं का उल्लेख किया है अतः अन्तः बाह्य साक्ष्यों के आधार पर बाणभट्ट २० गद्य-खण्ड का समय सप्तशती पूर्वार्ध तथा थोड़ा सा उत्तरार्ध सिद्ध होता है। हर्षचरित-वर्णन के आधार पर बाण हर्षवर्धन (६०६-६४८ ई.) के राज्य के उत्तरकाल में उनके सभाकवि सिद्ध होते हैं, क्योंकि उन्होंने हर्ष के प्रारंभिक दिग्विजय का उल्लेख नहीं किया है। यद्यपि बाणभट्ट की लेखनी से अनेक ग्रन्थ रत्नों का लेखन हुआ है किन्तु बाण का महाकवित्व केवल ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ पर प्रधानतया आश्रित है। इन दोनों गद्यकाव्यों के अतिरिक्त मुकुटताडितक, चण्डीशतक और पार्वती-परिणय भी बाण की रचनाओं में परिगणित हैं। इनमें ‘पार्वतीपरिणय’ को ए.बी. कीथ ने बाण की रचना न मानकर उसे वामनभट्टबाण (१७वीं शती) नामक किसी दाक्षिणात्य वत्सगोत्रीय ब्राह्मण की रचना माना है। . ‘हर्षचरित’ बाणभट्ट का ऐतिहासिक महाकाव्य है। बाण ने इसे आख्यायिका कहा है “करोम्याख्यायिम्भोधौ जिवाप्लवनचापलम्”। आठ उच्छवासों में विभक्त इस आख्यायिका में बाणभट्ट ने स्थाण्वीश्वर के महाराज हर्षवर्धन के जीवन-चरित का वर्णन किया है। आरंभिक तीन उच्छवासों में बाण ने अपने वंश तथा अपने जीवनवृत्त सविस्तार वर्णित किया है। हर्षचरित की वास्तविक कथा चतुर्थ उच्छवास से आरम्भ होती है। इसमें हर्षवर्धन के वंश प्रवर्तक पुष्पभूति से लेकर सम्राट हर्षवर्धन के ऊर्जस्व चरित्र का उदात्त वर्णन किया गया है। ‘हर्षचरित’ में ऐतिहासिक विषय पर गद्यकाव्य लिखने का प्रथम प्रयास है। इस ऐतिहासिक काव्य की भाषा पूर्णतः कवित्वमय है। ‘हर्षचरित’ शुष्क घटना प्रधान इतिहास नहीं, प्रत्युत विशुद्ध काव्यशैली में उपन्यस्त वर्णनप्रधान काव्य है। बाण ने ओज गुण और अलंकारों का सन्निवेश कर एक प्रौढ़ गद्यकाव्य का स्वरूप प्रदान किया है। इसमें वीररस ही प्रधान है। करुणरस का भी यथास्थान सन्निवेश किया गया है। ‘हर्षचरित’ तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों, सांस्कृतिक परिवेशों और धार्मिक मान्यताओं पर प्रकाश डालता है। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह महनीय ग्रन्थरत्न काव्य सौन्दर्य, अद्भुत वर्णन चातुर्य के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध कृति है। ‘कादम्बरी’ बाणभट्ट की अमर कृति है। यह उनकी ही नहीं समस्त संस्कृत वाङ्मय की अनूठी गद्य-रचना है। कादम्बरी की कथा एक जन्म से सम्बद्ध न होकर चन्द्रापीड तथा पुण्डीक के तीन जन्मों से सम्बद्ध है। कादम्बरी की कथा दो भागों में विभक्त है-पूर्वभाग तथा उत्तरभाग। पूर्वभाग बाणभट्ट की रचना है और उत्तरभाग उनके पुत्र भूषणभट्ट (पुलिन्द भट्ट) की। कादम्बरी ‘कथा’ है। बाण ने स्वयं प्रस्तावना के अन्त में-“धिया निवद्धेयमतिद्वयी कथा” कहकर इसे ‘कथा’ के रूप में स्पष्ट स्वीकार किया है। तीन जन्मों से सम्बद्ध कादम्बरी की कहानी रोचक शैली में लिखी गई है। बाण को कादम्बरी-कथा लिखने की प्रेरणा गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ से प्राप्त हुई है। पैशाची भाषा में निबद्ध ‘बृहत्कथा’ का संस्कृत रूपान्तर ‘कथा सरित्सागर’ में आई हुई राजा २१ भूमिका सुमना की कथा और कादम्बरी की कथा में बहुत कुछ समानता मिलती है। अतः बाण ने कादम्बरी की मूल घटनाओं को बृहत्कथा से लिया हो और अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा से बृहत्कथा के निष्प्राण घटनाचक्रों और पात्रों में सजीवता लाकर उन्हें नवीन कलेवर दिया हो। कादम्बरी में बाण की सबसे अनूठी कल्पना जो प्रेम के अलौकिक स्वरूप और रहस्य का प्रतीक है-वह है नायिका द्वारा नायक की शरीर रक्षा करते हुए पुनर्मिलन की प्रतीक्षा करना। कादम्बरी कालिदास के आशाबन्ध और जननान्तर सौहृद के आदर्श की सजीव अवतारणा है। कविक्रान्त द्रष्टा होता है। उसका काव्य मानव जीवन के परम लक्ष्य की ओर संकेत करता है। काव्य आत्मा रस है। रस स्वरूप आनन्द है। आनन्द की अनुभूति ही काव्य का परम प्रयोजन है। बाणभट्ट ‘कादम्बरी’ के नायक और नायिका के प्रारंभिक लौकिक प्रेम को शापवश जन्मान्तर में समाप्त कर पुनः अलौकिक विशुद्ध प्रेमप्राप्ति द्वारा मानव के लिए आदर्श प्रेम का दिव्य संदेश देते हैं। गद्यकाव्य के प्रणेताओं में दण्डी का नाम आदर से लिया जाता है। ‘अवन्तिसुन्दरी’ के आधार पर दण्डी का स्वल्प परिचय प्राप्त होता है। महाकवि भारवि के तीन पुत्र हुए जिनमें मनोरथ मध्यम पुत्र था। मनोरथ के चार पुत्रों में ‘वीरदत्त’ कनिष्ठ होने पर भी एक सुयोग्य दार्शनिक थे। ‘वीरदत्त’ की धर्मपत्नी का नाम ‘गौरी’ था। इन्हीं से कविवर दण्डी का जन्म हुआ था। बचपन में ही दण्डी के माता-पिता दिवंगत हो गये थे। ये काञ्ची में निराश्रय ही रहने लगे। हिन्दुओं की पवित्र नगरी काञ्ची दण्डी की जन्मभूमि थी। पश्चात् काञ्ची के पल्लव-नरेशों की छत्रछाया में सुखमय जीवन व्ययतीत हुआ। नवम शती के ग्रन्थों में दण्डी का नामोल्लेख होने से निश्चित है कि दण्डी नवमशती से पूर्ववर्ती थे। सिंघली भाषा के अलंकार ग्रन्थ ‘सियबस लकर’ (स्वभाषालंकार) तथा कन्नड़ भाषा का अलंकार ग्रन्थ ‘कविराज मार्ग’ में दण्डी के ‘काव्यादर्श’ की छाया स्पष्टतः दिखायी देती है। उपर्युक्त दोनों अलंकार ग्रन्थ नवीं शती की रचना है अतः काव्यादर्श के लेखक दण्डी उससे पूर्ववर्ती हैं। प्रो. आर. नरसिंहाचार्य तथा डाक्टर बेलवल्कर ने भी दण्डी का समय सातवीं शती का उत्तरार्ध बतलाया है। शैव धर्म के प्रवर्तक पल्लवराज नरसिंह वर्मा का समय ६६०-७१५ ई. माना जाता है। अतः इनके सभाकवि दण्डी का भी समय बाण के पश्चात् अष्टम शती का पूर्वार्थ सिद्ध होता है। राजशेखर ने निम्न पद्य में दण्डी के तीन ग्रन्थों का स्पष्ट निर्देश किया है त्रयोऽग्नस्त्रयो देवात्रयो वेदास्त्रयो गुणाः। त्रयो दण्डिप्रबन्धाश्च त्रिषु लोकेषु विश्रुताः।। २२ गद्य-खण्ड __ दण्डी की उपर्युक्त प्रबन्धत्रयी में ‘काव्यादर्श’ उनकी निःसंदिग्ध रचना है। यह अलंकार शास्त्र का मान्य ग्रन्थ है जिसमें काव्यशास्त्र के तत्त्वों का सारगर्भ संक्षिप्त वर्णन किया गया है। दण्डी के द्वितीय ग्रन्थ के रूप में ‘दशकुमार चरित’ नामक रोमाञ्चक आख्यानों तथा कौतूहलपूर्ण ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध है। दशकुमार चरित के विभिन्न पाठ संस्करणों के परीक्षण से स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ के तीन खण्ड हैं-भूमिका, मूल ग्रन्थ तथा पूरक भाग, जिनमें क्रमशः ५, ८ तथा १ उच्छास हैं। भूमिका भाग पूर्वपीठिका के नाम से प्रसिद्ध है तथा पूरक भाग उत्तरपीठिका के नाम से और मध्यवर्ती मूल ग्रन्थ दशकुमार चरित के नाम से विख्यात है। इस प्रकार आरम्भ में पूर्वपीठिका से और अन्त में उत्तर पुस्तिका से संपुटित समग्र ग्रन्थ ही दश कुमार चरित के नाम से विख्यात है जिसमें कुसुमपुर नगर के दस कुमारों के विचित्र चरित्र का वर्णन है। ‘अवन्ति सुन्दरी कथा’ दण्डी की मौलिक रचना है जिसमें दशकुमार चरित की पूर्वपीठिका में वर्णित वृत्त है। दण्डी की तीसरी रचना द्विसन्धान काव्य है जिसमें श्लेष द्वारा रामायण एवं महाभारत की कथा वर्णित है। परवर्ती गद्यकाव्य सुबन्धु, बाण एवं दण्डी इन तीनों मूर्धन्य गद्य कवियों के द्वारा प्रवर्तित मार्ग का अनुसरण परवर्ती गद्य कवियों ने भी किया है जिनमें मुख्यतः अधोलिखित रचनायें प्रसिद्ध हैं - __१. तिलक मञ्जरी-कविवर धनपाल (दशम शती) की ‘तिलकमञ्जरी’ बाणभट्ट की गद्यशैली के अनुकरण पर लिखी गयी एक श्लाघनीय रचना है। धनपाल धारानरेश राजा मुञ्ज तथा उनके उत्तराधिकारी राजा भोज के सभा पण्डित थे। मुञ्ज राजा ने धनपाल की काव्य प्रतिभा से प्रसन्न होकर इन्हें ‘सरस्वती’ की उपाधि से सम्मानित किया था। धनपाल ने भोजराज के जिनगमोक्त कथा सुनने के कुतूहल निवृत्ति हेतु तिलकमञ्जरी का प्रणयन किया था। इसमें राजकुमार हरिवाहन और दैवी राजकुमारी तिलकमंजरी तथा राजकुमार समरकेतु और अर्धदेवी राजकुमारी मलयसुन्दरी-इन दो युग्मों की प्रणय-कथा वर्णित है। बाणभट्ट की कादम्बरी और तिलकमञ्जरी की कथावस्तु में पर्याप्त साम्य है। धनपाल ने तिलकमञ्जरी में बाण की पाञ्चाली रीति का अनुसरण किया है। २. गद्य चिन्तामणि-वादीम सिंह-विरचित ‘गद्यचिन्तामणि’ अलंकृत शैली में लिखा गया एक रोचक गद्य काव्य है। इसमें जिनसेन के महापुराण (८६७ ई.) में वर्णित जीवन्धर की कथा का वर्णन ११ लम्बों में किया गया है। वादीम ने इसी कथा को अनुष्टुप् छन्द में लिखकर ‘क्षत्र चूडामणि’ का निर्माण किया है। वादीम सिंह का समय ११वीं शती माना जाता है। हरिचन्द्र लिखित ‘जीवन्धर चम्पू’ का उपजीव्य वादीम के उपर्युक्त दोनों ग्रन्थ हैं। गद्य चिन्तामणि की गद्यशैली अत्यन्त रोचक तथा हृदयावर्जक है। भूमिका ३. वेमभूपाल चरित-वामन भट्ट बाण विरचित ‘वेमभूमिपाल चरित’ एक स्तुत्य गद्य रचना है जिसमें त्रिलिंग के शासक ‘काम’ नामक राजवंश में उत्पन्न वेमभूपाल के उदात्त चरित्र का वर्णन है। बाण के हर्षचरित से प्रेरित होकर वामनभट्ट ने इस मनोरम गद्यकाव्य का प्रणयन किया है। वेमभूपाल चरित का पदविन्यास मधुर है, अलंकार-योजना सरस है तथा अर्थ का प्रकटन सुन्दर है। __४. मन्दार मञ्जरी-विश्वेश्र पाण्डेय विरचित ‘मन्दारमञ्जरी’ कादम्बरी की शैली में उपनिबद्ध गद्यकाव्य का मनोरम रूप प्रस्तुत करती है। विश्वेश्वर पाण्डेय अल्मोड़ा जिले के पाटिया ग्राम के निवासी भारद्वाज गोत्रीय पर्वतीय ब्राह्मण थे। इनके पिता लक्ष्मीधर वृद्धावस्था में काशी आये और आशुतोष शिव की कृपा से उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जो उन्हीं के नाम पर ‘विश्वेश्वर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्री विश्वेश्वर विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे जिनकी सारस्वत कृतियाँ विविध शास्त्रों से सम्बद्ध होकर तत्तत् शास्त्रों के वैदुष्य की परिचायिका हैं। विश्वेश्वर पाण्डेय की रचनाओं में वैयाकरणसिद्धान्त सुधानिधि, तर्ककुतूह, श्रृंगारमञ्जरी, अलंकार-कौस्तुभ, रसचन्द्रिका, अलंकार मुक्तावली, कवीन्द्रकण्ठाभरण, रोमावशीशतक और आर्यासप्तशती इनके व्याकरण, न्याय, अलंकारशास्त्रादि विषयों में अगाध पाण्डित्य के सशक्त उदाहरण हैं। __ इन्हीं की गद्य काव्यमयी प्रौढ़ रचना है ‘मन्दारमञ्जरी’ इस गद्यकाव्य के दो भाग हैं-पूर्वभाग तथा उत्तरभाग। पूर्वभाग विश्वेश्वर की निःसंदिग्ध रचना है, किन्तु उत्तरभाग उनके किसी योग्य शिष्य की रचना मानी जाती है। मन्दारमञ्जरी में पल्लवराज राजशेखर के पुत्र चित्रभानु और विद्याधरेन्द्र चन्द्रकेतु की राजपुत्र मन्दारमञ्जरी की प्रेम कथा वर्णित है। इसमें कादम्बरी का प्रभाव होने पर भी कवि ने सर्वत्र नवीनता लाने का सफल प्रयास किया है। शिवराजविजय बीसवींशताब्दी में पण्डित अम्बिकादत्त व्यास द्वारा रचित यह गद्यकाव्य नवीनता से विभूषित है। इसमें छत्रपति शिवाजी के चरित तथा विजय का वर्णन है। ऐतिहासिक विषय के सम्यक् निर्वाह हेतु घटनाचक्रों का वर्णन नितान्त मनोरम है। यह घटनाप्रधान काव्य है जिसमें कवि का आग्रह विशेष वर्णन पर न होकर घटना की विविधता पर है। इसमें देशभक्ति के उदात्त भावों का सशक्त चित्रण है। ‘शिवराजविजय’ की कथा १२ निःश्वासों में विभक्त हैं। शिवाजी के वीरचरित्र के ऐतिहासिक विवरण से मण्डित इस काव्य की भाषा सरल-सुबोध तथा प्राञ्जल है। इसकी घटनायें अधिकतर वास्तविक है। नवीन शैली में निबद्ध यह लोकप्रिय काव्य संस्कृत वाङ्मय में ऐतिहासिक उपन्यास की पूर्ण योग्यता रखता है। २४ गद्य-खण्ड गद्यमञ्जरी-यह पं. हृषीकेश शास्त्री की गद्यकृति है जिसमें सामयिक निबन्धों का संग्रह है। यद्यपि यह निबन्धों का संग्रह है किन्तु गद्य-साहित्य की निधि है। चम्पूकाव्य संस्कृत वाङ्मय में पद्यकाव्य और गद्यकाव्य से अतिरिक्त ‘चम्पू’ नामक काव्य का विपुल भण्डार है। चम्पूकाव्य अपने साहित्यिक सौन्दर्य, मधुरविन्यास तथा रसपेशलता की दृष्टि से अन्य साहित्य से न्यून महत्व का नहीं है। गद्य और पद्य के विशिष्ट समिश्रण से निर्मित काव्य चम्पू कहलाता है-गद्य-पद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते। गद्यकाव्य का वैशिष्ट्य अर्थगौरव और विन्यास के कारण है और पद्यकाव्य का महत्व सुललित राग-लय के साथ रमणीय अर्थ के प्रतिपादन के कारण है। इन दोनों के एकत्र समन्वय से चम्पूकाव्य अधिक चमत्कारी बन जाता है। चम्पूकाव्य का दण्डी ने सर्वप्रथम लक्षण निर्दिष्ट किया है-गद्यपद्यमयी काचित् चम्पूरित्यपि विद्यते (काव्यादर्श १।३१) दण्डी के इस कथन से स्पष्ट है कि उस समय चम्पूकाव्य का अस्तित्व था। गद्य-पद्य-मिश्रित शैली में निबद्ध चम्पूकाव्य का निष्कर्ष लक्षण है - गद्यपद्यमयं श्रव्यं सबन्धं बहुवर्णितम्। सालङ्कृतं रसैः सिक्तं चम्पूकाव्यमुदाहृतम्।। वस्तुतः गद्य-पद्य के मिश्रित रूप का एकत्र विन्यास अवश्य ही रुचिर तथा हृदयावर्जक होता है। चम्पूकाव्य गद्यकाव्य का ही प्रकारान्तर से उपबृंहण है। अतएव इसका उदयकाल गद्यकाव्य के स्वर्णयुग से पश्चाद्वर्ती है। गद्यपद्य की मिश्रित शैली का प्रयोग अत्यन्त प्राचीन है। वैदिक युग से पौराणिक युग तक मिश्रशैली के उदाहरण तो मिलते हैं किन्तु वे चम्पूकाव्य की कोटि में नहीं आते। चमत्कृत शैली, मनोरम कल्पना, समस्तपदों की प्रचुरता विशेषणों की बहुलता, अलंकार विन्यास-ये मुख्यतया चम्पूकाव्य के वैशिष्ट्य हैं। इस विशिष्टता से युक्त चम्पूकाव्य की रचना का आरम्भ पाषाण की गोद से निकलकर साहित्य के चिकने धरातल पर आ चमका और तब से २०वीं शती तक साहित्य के इस विलक्षण विधा के रूप में समादृत हुआ है। चम्पू ग्रन्थ त्रिविक्रम भट्ट की अमर कृति ‘नल चम्पू’ चम्पू साहित्य का प्रथम ग्रन्थ है। त्रिविक्रम भट्ट राष्ट्रकूट वंशोद्भव इन्द्रराज तृतीय के आश्रित कवि थे। इन्द्रराज के समकालिक होने १. डा. छविनाथ त्रिपाठी, चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन पृ. ४६ में उद्धृत। भूमिका के कारण त्रिविक्रमभट्ट का समय दशम शती का पूर्वार्थ है और ये विख्यात नाटककार राजशेखर के समसामयिक थे। _ ‘नलचम्पू’ में राजा नल की कथा वर्णित है जो महाभारत के ‘नलोपाख्यान’ में वर्णित है। सात उच्छवासों में विभक्त इस चम्पू में दमयन्ती का वृत्तान्त जानकर इन्द्रादि देवताओं तक उनके सन्देश पहुँचाने तक की कथा है। नलचम्पू में सरल-पेशल-प्रसन्न सभङ्ग श्लेष का प्रयोग अत्यन्त रोचक है। इसमें परिसंख्या का भी सफल प्रयोग बाणभट्ट की समता रखता है।

  • त्रिविक्रम भट्ट की दूसरी चम्पू रचना है ‘मदालसाचम्पू’। यह एक प्रणय-कथा है। राजा कुवलयाश्व और उनकी रानी मदालता का चरित ‘मार्कण्डेयपुराण’ (अ. १८-२२ तक) सविस्तर वर्णित है। इस चम्पू काव्य का आधार मार्कण्डेयपुराण कथा है। यद्यपि इसमें नलचम्पू के समान रमणीयता नहीं है तथापि कथा-विकास तथा काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से यह लोकप्रिय रचना है। __सोमदेव सूरि रचित ‘यशस्तिलक चम्पू’ जैनपुराण में विश्रुत यशोधर के चरित का वर्णन प्रौढ़ आलंकारिक शैली में किया गया है। इस चम्पू में आठ उच्छवास हैं जिनके आदिम पाँच उच्छवासों में यशोधर के आठ जन्मों की कथा वर्णित है। शेष तीन उच्छवासों में जैन धर्म के तथ्यों का सविस्तर वर्णन किया गया है। ‘यशस्तिलक’ की भाषा प्राञ्जल और शैली प्रौढ़ तथा आकर्षक है। सोमदेव प्रधानतः सात्त्विक जीवन के उपासक सन्त पुरुष थे अतः उनके काव्य में धर्म तथा नीति सम्बन्धी सूक्तियों का बाहुल्य स्वाभाविक है। हरिचन्द्र विरचित ‘जीवन्धर चम्पू’ में ‘उत्तरपुराण’ में वर्णित जैनसाहित्य में प्रसिद्ध जीवन्धर की कथा का रोचक वर्णन है। इसमें जैनधर्म के सिद्धान्तों का रोचक शैली में कथानक के माध्यम से प्रकट करना अभीष्ट प्रतीत होता है। __ सोड्ढल की रचना ‘उदयसुन्दरी कथा’ कविकल्पित आख्यान का चम्पूरूप है। इसमें प्रतिष्ठान नगर के राजा मलयवाहन का नागराज शिखण्डतिलक की कन्या उदयसुन्दरी की कथा आठ उच्छवासों में उपन्यस्त है। गुजरात के शासक चालुक्यनरेश वत्सराज के समकालिक सोड्ढल का समय ११वीं शती है। उपर्युक्त प्रसिद्ध चम्पूकाव्यों के अतिरिक्त रामायण, महाभारत, कृष्ण कथा, पुराण, ऐतिहासिक तथा जीवन-चरित्र विषय बहुसंख्यक चम्पूकाव्य भी उपलब्ध हैं। रामायण के आधार पर अनेक चम्पूकाव्यों की रचना हुई है जिनमें सर्वविश्रुत ‘रामायण चम्पू’ भोजराज की अमर कृति है। भोज का यह चम्पूकाव्य कलापक्ष के सौन्दर्य पूर्ण वर्णन का अनूठा उदाहरण है। प्रसादमयी शैली में नूतन भावों का समावेश चमत्कारजनक है। २६ गद्य-खण्ड __ महाभारत पर आश्रित चम्पू काव्यों में अनन्त भट्ट रचित ‘भारत चम्पू’ श्रेष्ठ एवं विश्रुत चम्पू है। महाभारत के विविध प्रसंगों के वर्णन में चमत्कार आधान कवि की काव्य रचना चातुरी का निदर्शन है। __कृष्णकथापरक चम्पुओं में अभिनव कालिदास रचित ‘भागवत चम्पू’ संभवतः प्राचीन है। अभिनव कालिदास संभवतः आन्ध्र के निवासी थे और इनका समय अनुमानतः ११ शतक है’। दूसरी रचना कवि कर्णपूर की (१६वीं शती) का ‘आनन्दवृन्दावन चम्पू’ है। यह चम्पू चम्पूसाहित्य का शिरोमणि है काव्यकला के विशद विद्योतन में। इसके २२ स्तवकों में १७-२० स्तवकों में रासलीला का विस्तृत रसपेशल वर्णन कवि के भक्तहृदय का साक्षी है। इसके अतिरिक्त जीवस्वामिकृत ‘गोपाल चम्पू’ मित्रमिश्रकृत ‘आनन्दकन्द चम्पू’, रघुनाथदासकृत’ ‘मुक्ताचरित्र’ और शेषश्रीकृष्ण रचित पारिजातहरण चम्पू प्रमुख चम्पूकाव्य हैं। __ पौराणिक चम्पुओं में प्रहलाद चरित पर आधृत ‘नृसिंहचम्पू’ दैवज्ञ सूर्यकवि की प्रसिद्ध रचना है। केरल के नारायणभट्ट विरचित मत्स्यावतारप्रबन्ध’ उनकी चौदह चम्पूकाव्यों में प्रमुख है। __ द्रविड़ कवि नीलकण्ठ दीक्षित का ‘नीलकण्ठविजय चम्पू’ १६३६ ई. की रचना मानी जाती है। __ भारतीय इतिहास के मध्ययुग से सम्बद्ध अनेक चम्पुओं में दो प्रमुख हैं-‘वरदाम्बिका परिणय चम्पू’ तथा ‘आनन्दरंगविजय चम्पू’ इनमें प्रथम चम्पू की लेखिका तिरुमलाम्बा और द्वितीय चम्पू के लेखक श्रीनिवास कवि हैं। __ विख्यात धार्मिक आचार्यों का जीवन चरित भी चम्पूकाव्यों का श्लाघनीय स्रोत रहा है। __ आचार्य शङ्कर के दिग्विजय पर वल्लीसहायकवि विरचित ‘आचार्यदिग्विजयचम्पू’, श्रीकण्ठशास्त्री विरचित ‘जगद्गुरुविजय’, लक्ष्मीपति रचित ‘शङ्कर चम्पू’, नीलकण्ठकृत ‘शङ्करमन्दारसौरभ, तथा बालगोदावरी रचित ‘शङ्कराचार्यचम्पूकाव्य’ प्रसिद्ध हैं। वैष्णव आचार्यों के जीवन चरित चम्पुओं में रामानुजदास रचित ‘नाथमुनिविजय चम्पू’, रामानुजाचार्य विरचित ‘रामानुजचम्पू’ अहोबलसूरि रचित ‘यतिराजविजय चम्पू’ ‘विरूपाक्षमहोत्सव चम्पू’, वेदान्ताचार्यरचित ‘आचार्यविजय’ आदि विख्यात हैं। ऐतिहासिक महापुरुषों के जीवन चरित से सम्बद्ध चम्पुओं की बहुलता भी पायी जाती है। पद्मनाभरचित ‘वीरभद्रदेव चम्पू’ ऐतिहासिक-चम्पुओं में प्रमुख है। बालकवि कृष्णदत्त रचित इसके अतिरिक्त जानराजचम्पू भी ऐतिहासिक चम्पुओं में अन्य है। इसके अतिरिक्त १. कृष्णमाचारी, हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर पृ. ५०६ भूमिका वेङ्कटाध्वरी रचित पाँच चम्पू काव्यों का विवरण मिलता है। ये पाँच चम्पूकाव्य हैं १. विश्वगुणादर्श चम्पू, लक्ष्मीसहस्र, वरदाभ्युदय (हस्तिगिरि चम्पू), उत्तररामचरित चम्पू तथा यादवराघवीयम् । इनमें ‘विश्वगुणादर्श चम्पू’ में विषयवर्णन तथा कल्पना में नवीनता है। __समरपुंगवदीक्षित रचित ‘यात्रा प्रबन्ध’ तीर्थयात्रा वर्णनपरक चम्पूकाव्य है। इनकी दूसरी रचना ‘आनन्दकन्द चम्पू’ शैव सन्तों की जीवनी प्रस्तुत करता है। ‘मन्दारमरन्द चम्पू’ उपर्युक्त चम्पुओं से विषय में अत्यन्त भिन्न है। इसके रचयिता कृष्णकवि ने इसमें दो सौ छन्दों के लक्षण और उदाहरण के साथ अलंकार, गुण-दोष आदि काव्य तत्त्वों का विवेचन किया है। वस्तुतः यह चम्पू एक लक्षण ग्रन्थ है। इसी परम्परा में चिरंजीव भट्टाचार्य की ‘विद्वन्मोदतरङ्गिणी’ भी है। इसके आठ तरंगों में भारतवर्ष के दार्शनिक एवं धार्मिक मतों की नाट्यशैली में आलोचना की गई है। इनकी दूसरी रचना ‘माधव चम्पू’ कवि के कवित्वपक्ष को उजागर करती है। अध्यात्मविषयक चम्पुओं के अन्तर्गत ही वाणेश्वरविद्यालंकार रचित ‘चित्र चम्पू’ भी परिगणित है। वर्दवान के राजा चित्रसेन के नाम पर रचित यह चम्पू एक काल्पनिक कथा पर आधृत है। __ दाक्षिणात्य कवियों ने काव्य की इस चम्पू विद्या को अपनी रसमयी रचनाओं से समृद्ध किया है। अब तक ज्ञात चम्पुओं की संख्या २५० के आसपास है।’ उनमें से प्रमुख चम्पुओं का यह दिग्दर्शन उनके उदय तथा विकास का संक्षिप्त परिचायक है। कथा साहित्य-संस्कृत वाङ्मय में कथाओं के विषय में एक विशाल साहित्य है जिसका न केवल भारतीय साहित्य पर, अपितु भारत से भिन्न साहित्य पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा है। भारतवर्ष के तीनों धार्मिक सम्प्रदायों ने कथा तथा आख्यान का उपयोग अपने सिद्धान्तों के विशद प्रचार-प्रसार के लिए किया है। वैदिक, बौद्ध तथा जैन-ये तीनों ही कथा-कहानियों के धनी हैं जिनका उद्देश्य धार्मिक तथ्यों के विवेचन के साथ ही व्यावहारिक उपदेश देना भी है। वैदिक साहित्य के ब्राह्मणों और उपनिषदों में विस्तार से प्राप्त आख्यानों का संकेत ऋग्वेद के सम्वाद सूक्तों में मिलता है। सम्वाद सूक्तों में प्राप्त आख्यानों का विस्तृत विवरण यास्क के निरुक्त में, शौनक के बृहद्देवता में, कात्यायन सर्वानुक्रमणी व्याख्या वेदार्थ दीपिका में तथा तदनुसार सायण के वेद भाष्यों में उपलब्ध होता है। तत्पश्चात् गुजराती विद्वान् धाद्विवेद की ‘नीतिमञ्जरी’ में वैदिक कहानियों का संकलन किया गया है। १. विशेष द्रष्टव्य, डॉ. छविनाथ त्रिपाठी का ग्रन्थ-चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन, चौखम्बा, वाराणसी १६६५ ई. नीतिमञ्जरी का एक विमर्शात्मक संस्करण पं. सीताराम जयराम जोशी ने सम्पादित किया है। यह ग्रन्थ चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से १६४२ ई. में प्रकाशित हुआ है।गद्य-खण्ड जैनसाहित्य में प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रंश में कथाओं का विस्तार उपलब्ध होता है। जैनमुनि धार्मिक देशना के लिए जिन कथाओं का उपयोग करते थे, उनका मूल रूप अंगों में तथा विस्तार उनके व्याख्यापरक चूर्णि, नियुक्ति आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है।’ जैनमतावलम्बिओं में ‘कथाकोश’ स्वयं विस्तृत साहित्य है जिसका अपना वैशिट्य है। बौद्धों में पालिभाषा में निबद्ध मनोरञ्जक कथायें ‘जातक’ नाम से विख्यात हैं। इसमें भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथायें उपनिबद्ध हैं। जातक कथाओं की संख्या साढ़े पांच सौ है। इनमें ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सामजिक सामग्री विपुल मात्रा में मिलती है, जिनके परिशीलन से बुद्ध से भी प्रचीन काल के भारतीय इतिहास तथा समाज के मनोरम चित्र मिलते हैं। भारतीय साहित्य में प्राचीन काल में दो कथाचक्र उपलब्ध होते हैं-बृहत्कथा तथा पंचतंत्र। इनमें बृहत्कथा प्राचीन है। पैशाची भाषा में निबद्ध बृहत्कथा आज अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है, परन्तु संस्कृत में निबद्ध पञ्चतन्त्र आज भी उसी भाषा में उपलब्ध है। उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों का अनुशीलन भारतीय कथा-साहित्य के स्वरूप तथा विस्तार के ज्ञान के लिए अत्यन्त आवश्यक है। बृहत्कथा अत्यन्त अद्भुत यात्रा विवरणों तथा प्रणय-प्रसंगों का अगाध समुद्र है जिसकी एक-एक बूंद से अन्य कितनी ही विचित्र कथाओं की रचना हुई - सत्यं बृहत्कथाम्भोधेर्बिन्दुमादाय संस्कृताः तेनेतरकथाः कन्थाः प्रतिभान्ति तदग्रतः (१, धनपालः तिलक मञ्जरी) ‘बृहत्कथा’ के अमर रचयिता गुणाढ्य सातवाहन राज्यसभा से सम्बद्ध कवि थे जिनका आविर्भाव काल प्रथम-द्वितीय ईस्वी था। मूलरूप में पैशाची भाषा में निबद्ध किन्तु सम्प्रति अनुपलब्ध बृहत्कथा में नरवाहनदत्त का चरित्र वर्णित है तथा उसके परिच्छेदों का नाम ‘लम्भक’ है। बृहत्कथा की तीन वाचनायें सम्प्रति उपलब्ध हैं। मूलरूप में पैशाची भाषा में लिखी इसकी चमत्कारिता और सुन्दरता से प्रभावित अनेक विद्वानों ने विभिन्न शताब्दियों में इसका रूपान्तर संस्कृत में किया। संस्कृत साहित्य के कवि और नाटककार ‘बृहत्कथा’ से अपनी कथावस्तु की रूपरेखा ग्रहण करते थे। नाटकों, काव्यों और गद्यकाव्यों के उपजीव्य ग्रन्थों के लिए बृहत्कथा का नाम्ना निर्देश मिलता है। मूलतः पैशाची भाषा में निबद्ध अधुना संस्कृत एवं प्राकृत में अनूदित ‘बृहत्कथा’ की तीन वाचनायें उपलब्ध हैं - ३. द्रष्टव्य, हरिषेण : बृहत्कथाकोश की अंग्रेजी भूमिका, डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये रचित (भारतीय विद्याभवन, मुम्बई १६४३ ई.) २६ भूमिका (१) नेपाली वाचना-बुध स्वामी का ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह’ बृहत्कथा की नेपाली वाचना कहलाती है। इसके २८ सर्गों में ४५३६ श्लोक हैं। बुधस्वामी ने इस ग्रन्थ की रचना पांचवी शताब्दी में की। इस काव्य का उदय गुप्तसम्राटों के स्वर्णिम युग में हुआ। प्राकृत वाचना-बुध स्वामी के अनन्तर संघदासगणि कृत ‘वसुदेव हिण्डी’ की प्राकृत वाचना उपलब्ध हुई। ‘वसुदेव हिण्डी’ में २६ लम्बक हैं और यह महाराष्ट्री-प्राकृत में गद्यशैली में निबद्ध है। यह सम्प्रति प्रथम खण्ड और मध्यम खण्ड नाम से दो रूप में उपलब्ध है। ‘वसुदेव हिण्डी’ ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह’ से मिलता-जुलता है अतः इन दोनों के तुलनात्मक अनुशीलन से मूल ‘बृहत्कथा’ का पर्याप्त परिचय मिलता है। (३) काश्मीरी वाचना - कश्मीर के दो कवियों - क्षेमेन्द्र तथा सोमदेव ने बृहत्कथा का संस्कृत में अनुवाद किया; यही काश्मीरी वाचना के नाम से सुविख्यात है। दोनों कवियों ने एक ही शताब्दी ११वीं में तथा एक ही प्रान्त कश्मीर में एक ही ग्रन्थ के दो भिन्न-भिन्न अनुवाद प्रस्तुत किए, जो शैली और कथानक दोनों दृष्टियों से पार्थक्य रखते हैं। ‘बृहत्कथामञ्जरी’ में क्षेमेन्द्र ने बृहत्कथा का रूपान्तर प्रस्तुत किया है। क्षेमेन्द्र का उद्देश्य कथानक में अलंकृत शैली में प्रस्तुत करना है। इस ग्रन्थ में १८ लम्बक हैं जिनमें प्रधान कथा के साथ-साथ अवान्तर कथायें भी कही गई हैं। कथा का नायक है वत्सराज उदयन का पुत्र नरवाहनदत्त। वह अपने पराक्रम से गन्धर्यों का चक्रवर्तित्व प्राप्त करता है और अनेक गन्धर्व सुन्दरियों से विवाह करता है। उसकी पटरानी है मदनमञ्चुका। इसकी मुख्य कथा की परिपुष्टि में अनेक अवान्तर कथायें भी जोड़ी गयी हैं जिनमें ‘वेतालपंचविंशति’ (वेताल पचीसी) इसी के अर्न्तगत वर्णित है। गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ के विलक्षण कथाओं से संस्कृतज्ञों को परिचित करना ही इस ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य है। बृहत्कथामञ्जरी संस्कृत के कथा-साहित्य में भारतीय जीवनदर्शन को अभिव्यक्त करने वाला एक नितान्त रोचक, सरस तथा उपदेशप्रद रचना है। ‘कथासरित्सागर’ संस्कृतवाङ्मय के कथासाहित्य का शिरोमणि ग्रन्थ है। इसे कश्मीर के मूर्धन्य मनीषी सोमदेव ने त्रिगर्त (कुल्लूकांगडा) की राजपुत्री, कश्मीरनरेश अनन्त की रानी सूर्यमती के मनोविनोद के लिए ११वीं शती (१०६३ ई.-१०८१ ई.) में लिखा था। यह ग्रन्थ १८ लम्बकों तथा १२ तरङ्गों में विभक्त है। इसमें श्लोकों की संख्या २१६८८ है। ‘बृहत्कथा’ का यही सबसे अर्वाचीन अनुवाद और सभी अनुवादों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। सोमदेव ने ग्रन्थ के आरंभ में ही बड़ी ईमानदारी से मूल कथा को यथावत् प्रस्तुत करने की प्रतिज्ञा की है। सोमदेव ने तत्कालीन समाज के यथार्थस्वरूप का चित्रण अपनी प्रसादमयी ३० गद्य-खण्ड वाणी में कर रसिकजनों के मनोरञ्जन तथा ज्ञानवर्धन की अद्भुत सामग्री एकत्रित की जिसकी समता नितान्त असम्भव है। सोमदेव की संस्कृतवाणी भगवती भागीरथी की विमल धारा के समान प्रवाहित होकर सहृदय पाठकों के चित्त को आकृष्ट करती है। संस्कृत पद्यों में कहानी कहने की कला में सोमदेव पारंगत कलाकार हैं। अपने युग की प्रचलित समासबहुलाशैली को न अपनाकर सोमदेव ने समासरहित नैसर्गिक प्रसादमयी शैली से अपनी कविता को सजाया है। सोमदेव की भाषा शैली, सरस, सुन्दर, प्रसादमयी तथा वस्तुप्रधान है। सोमदेव ने कथासरितत्सागर’ में वस्तुवर्णन के मध्य मनोरम नीतिमयी सूक्तियों का भी सन्निवेश किया है जिससे वर्णन का आस्वाद बढ़ जाता है। पञ्चतन्त्र में जिन कथाओं का संग्रह है वे भारत में नितान्त प्राचीन हैं। पञ्चतन्त्र के विभिन्न शताब्दियों और प्रान्तों में अनेक संस्करण हुए हैं। इनमें सबसे प्राचीन संस्करण ‘तन्त्राख्यायिका’ नाम से सुप्रसिद्ध है। पञ्चतन्त्र के भिन्न-भिन्न चार संस्करण उपलब्ध हैं (१) पञ्चतन्त्र का पहलवी अनुवाद, सम्प्रति अनुपलब्ध। (२) गुणाढ्य की बृहत्कथा में सन्निविष्ट (३) तन्त्राख्यायिका तथा उससे सम्बद्ध जैनकथा। (४) दक्षिणी पञ्चतन्त्र । नेपाली पंचतंत्र तथा हितोपदेश इस संस्करण के प्रतिनिधि हैं। पञ्चतन्त्र में पांच तन्त्र हैं-मित्रभेद, मित्रलाभ, सन्धिविग्रह, लब्धप्रणाश तथा अपरीक्षितकारक । प्रत्येक तन्त्र में मुख्य कथा एक ही है जिसके अंग को पुष्ट करने के लिए अनेक गौण कथायें कहीं गयी हैं। ग्रंथकार का लक्ष्य आरंभ से ही सदाचार तथा नीति की शिक्षा देना रहा है। दक्षिण के महिलारोप्य नामक नगर के राजा अमरकीर्ति के मूर्खपुत्रों को विद्वान तथा नीति निपुण बनाने के उद्देश्य से विष्णुशर्मा ने पञ्चतंत्र की रचना की। विष्णु शर्मा लोक तथा शास्त्र दोनों विषयों के पारंगत पण्डित थे इसीलिए उन्होंने स्वल्प समय में राजपुत्रों को व्यवहारकुशल, सदाचार-सम्पन्न तथा नीतिनिपुण बना दिया। पञ्चतन्त्र की भाषा मुहावरेदार सीधी-सादी है। वाक्यविन्यास में कहीं भी दुरूहता नहीं है। भाव-बोध में सुगममता है। कथानक का वर्णन गद्य में है किन्तु उपदेशप्रद सूक्तियाँ पद्य में निहित हैं। ये सूक्तिपद्य रामायण, महाभारत तथा प्राचीन नीतिग्रन्थों से संगृहीत हैं। पञ्चतन्त्र राजनीति तथा लोकनीति का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है अतः कौटिल्य के अर्थशास्त्र के उद्धरणों से बहुशः अलंकृत है। १. कथासरित्सागर का हिन्दी अनुवाद पण्डित केदारनाथ शर्मा सारस्वत ने किया है, जिसे बिहारराष्ट्र भाषापरिषद् पटना ने तीन खण्डों में प्रकाशित किया है। भूमिका डॉ. हर्टेल ‘तन्त्राख्यायिका’ को पञ्चतन्त्र की प्राचीनतम वाचना मानते हैं। उनके अनुसार पञ्चतन्त्र के मूलरूप का निदर्शन ‘तन्त्राख्यायिका’ के द्वारा होता है। इसका उद्देश्य राजनीति की शिक्षा देना है अतः यह राजनीति का शिक्षण-ग्रन्थ माना जाता है। परिणामतः राजनीति के प्राचीन ग्रन्थों से इसमें गद्य और पद्य के लम्बे उद्धरण पाये जाते हैं। राजनीति के पारिभाषिक शब्दों का भी प्रयोग यहाँ बहुतायत में मिलता है। ‘तन्त्राख्यायिका’ चाणक्य के अर्थशास्त्र से परिचित है अतः इसका समय चाणक्य (तृतीयशती विक्रम) से पश्चाद्वर्ती है। __ दक्षिण भारतीय पंचतंत्र में ६६ कथायें हैं। इसमें तमिल देश की भी कथाएँ भी जोड़ी गई हैं। __ ‘तन्त्राख्यान’ नेपाल में प्रचलित है। इसका सर्वाधिक प्राचीन हस्तलेख १४८४ ईस्वी में उपलब्ध होता है जिससे स्पष्ट है १४शती में किसी विद्वान ने इसका संकलन किया था। ‘तन्त्रोपाख्यान’ में पञ्चतन्त्र का ही एक विशिष्ट पाठ विवरण उपलब्ध होता है। पञ्चतन्त्र की अपेक्षा इसमें केवल तीन ही प्रकरण मिलते हैं-(१) नन्दक-प्रकरण, (२) पक्षिप्रकरण (३) मण्डूक प्रकरण। इसके आरम्भ में कथामुख का अभाव है। प्रत्येक प्रकरण के अन्तर्गत पंचतन्त्र की शैली में ही मुख्यकथा तथा अवान्तर कथा का सम्मिलित रूप उपलब्ध होता है। अर्थज्ञान से नीति का ज्ञान होता है और कथा सुनने से सुख मिलता है अतः ज्ञान तथा सुख-दोनों की प्राप्ति के लिए तन्त्रोपाख्यान की रचना हुई है - अर्थे भवेन्नयज्ञानमाख्यानश्रवणे सुखम्। ज्ञानार्थं च सुखार्थं च तन्त्रोपाख्यानमुच्यते।। __ ‘हितोपदेश’ पञ्चतन्त्र पर आधारित नितान्त लोकप्रिय कथा-ग्रन्थ है। ग्रन्थ के अन्तिम पद्यों में इसके रचयिता नारायण तथा उनके आश्रयदाता राजा धवलचन्द्र का निर्देश मिलता है। ग्रन्थकार ने स्पष्ट रूप से इसका आधार पंचतन्त्र को माना है। इसमें चार भाग हैं मित्रलाभ, सुहृद्भेद, विग्रह तथा सन्धि। इनमें प्रकारान्तर से पञ्चतन्त्र के पाँचों तन्त्र समाविष्ट हैं। बालकों को कथा-व्याज से नीति की शिक्षा देना ही हितोपदेश का उद्देश्य है-कथाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते। १।८। ‘हितोपदेश’ संस्कृतशिक्षण की प्रथम सफल पुस्तक है और यूरोप की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद इसकी लोकप्रियता का साक्षी है। हितोपदेश का नेपाली हस्तलेख १३७३ ई. का है अतः यह ग्रन्थ उससे प्राचीन सिद्ध होता है। डॉ. फ्लीट के अनुसार हितोपदेश की रचना नवमशती के अनन्तर और १२वीं शती से पूर्व अर्थात् ११वीं शती में होनी चाहिए। गद्य-खण्ड पञ्चतन्त्र के गम्भीर तथा विपुल शोध के श्रेय जर्मनी के दो विद्वानों को दिया जाता है जिनमें एक हैं डॉ. बेनफी तथा दूसरे हैं डॉ. हर्टेल। डॉ. बेनफी पूर्वी तथा पश्चिमी भाषाओं के प्रतिभाशाली वेत्ता थे। उन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर यूरोप, एशिया तथा अफ्रीका जैसे तीन महादेशों के कथासाहित्य पर भारतीय कथा साहित्य के विस्तृत प्रभाव को प्रदर्शित किया है। इस सन्दर्भ में पञ्चतन्त्र की कथाओं के विश्वभ्रमण की प्रामाणिक कहानी डॉ. बेनफी का महनीय अवदान है। डॉ. हर्टेल ने पञ्चतन्त्र के साहित्यिक रूप, उसकी विविध वाचनाओं तथा उससे आविर्भूत कथासाहित्य का बड़ा ही विशद तथा गम्भीर अनशीलन किया है। उन दोनों विद्वानों ने यक्तिपूर्वक यह सिद्ध किया है कि पञ्चतन्त्र भारतीय साहित्य का ही नहीं प्रत्युत विश्व साहित्य का भी एक उदात्त तथा श्लाघनीय अंग है’। विश्वसाहित्य के लिए पञ्चतन्त्र निःसंदेह एक महत्त्वपूर्ण कृति है। __वस्तुतः पञ्चतन्त्र समग्र विश्व-साहित्य की एक दिव्यविभूति है। कथा के साथ नीति की उपयोगी शिक्षा प्रदान करने की सुन्दर भारतीय योजना को स्वीकार कर विश्वसाहित्य ने अपने को उदात्त, लोकप्रिय और हृदयावर्जक बनाया है। ‘वेतालपञ्चविशतिका’ रोचक लोककथाओं का सुव्यवस्थित संग्रह है। ये पचीस कहानियाँ मूल ‘बृहत्कथा’ में विद्यमान थीं, यह कथन संदिग्ध है, क्योंकि इनका अस्तित्व बृहत्कथामञ्जरी तथा कथासरित्सागर में तो अवश्य है, किन्तु बुधस्वामी की नेपाली वाचना ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह’ में उपलब्ध नहीं होता। इन कहानियों का एकादश शतक में प्रचलित सर्वप्राचीन रूप क्षेमेन्द्र तथा सोमदेव के ग्रन्थों में मिलता है। इन कथाओं के अनेक गद्यात्मक संस्करण भी हैं जिनमें शिवदास की रचना है, जिसमें बीच-बीच में श्लोक भी दिये गये हैं। जम्भलदत्त की ‘वेतालपञ्चविंशति’ बिल्कुल गद्यात्मक है। डॉ. हर्टल की सम्मति है कि शिवदास ने १४८७ ई. से पूर्व ही वेतालपंचविंशति की रचना की थी, क्योंकि उसी समय इसका सबसे प्राचीन हस्तलेख मिलता है। __‘वेतालपञ्चविंशति’ की कथाएँ बड़ी ही रोचक, बुद्धिवर्धक तथा कुतूहल भरी हैं। कोई साधक राजा विक्रमसेन (विक्रमादित्य) को रत्नगर्भितफल देता था जिसकी सिद्धि में सहायतार्थ राजा एक वृक्ष पर लटकते हुए शव को लाना चाहता है, परन्तु वह शव किसी वेताल से आविष्ट है जो राजा को चप रहने पर ही वह शव देना चाहता है, परन्त वह इतनी विचित्र कथा सुनाता है कि राजा को मौन भंग करना ही पड़ता है। कहानियाँ रोचक एवं पेचीदी हैं। वेताल के प्रश्न विषम हैं किन्तु राजा के उत्तर भी मनोहारी हैं। विषम प्रश्नों के समुचित उत्तर विक्रम की चातुरी के परिचायक हैं। शिवदास का यह अद्भुत कथाग्रन्थ साहित्यिक दृष्टि से सुन्दर, रोचक तथा आकर्षक है। १. इस सिद्धान्त के विस्तृत प्रामाणिक प्रतिपादन के लिए द्रष्टव्य डा. विण्टरनित्ज : हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर खण्ड ३, भाग १, पृ. ३२६-३४६ (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली १६६३ ई.) ३३ भूमिका ‘विक्रमचरित’ या ‘सिंहासनद्वात्रिंशिका’ भी एक रोचक कथा ग्रन्थ है। राजा भोज जमीन में गड़े हुए विक्रमादित्य के सिंहासन को उखाड़ता है तथा उस पर बैठने का उपक्रम करता है किन्तु उसमें जड़ी हुई बत्तीसों पुतलियाँ विक्रम के पराक्रम का वर्णन कर राजा को उस पर बैठने से रोकती हैं। इसकी दो वाचनिकायें-उत्तरी तथा दक्षिणी परस्पर भिन्न हैं। दक्षिण भारत में यह विक्रमचरित के नाम से विख्यात है जिसके पद्यबद्ध और गद्यबद्ध दो रूप हैं। दोनों वाचनाओं में हेमाद्रि के ‘दानखण्ड’ का स्पष्ट निर्देश है अतः यह ग्रन्थ १३ शती से प्राचीनतर नहीं हो सकता। कथाग्रन्थों में ‘शुकसप्तति’ कहानियों का रोचक संग्रहग्रन्थ है जिसमें एक तोता अपने स्वामी के परदेश जाने पर अन्य पुरुषों पर आकृष्ट अपनी स्वामिनी को ७० कहानियां सुनाकर पथभ्रष्ट होने से बचाता है। इसकी दो वाचनायें मिलती हैं-एक विस्तृत और एक संक्षिप्त। विस्तृत वाचनिका के लेखक चिन्तामणिभट्ट हैं और संक्षिप्त वाचनिका के लेखक कोई जैनकवि। कहानियाँ बड़ी रोचक एवं आकर्षक हैं। __ मैथिलकोकिल विद्यापति (१४वीं शती) की ‘पुरुषपरीक्षा’ साहित्यिक सौन्दर्य से विभूषित है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका महत्त्व कम नहीं है। कथासाहित्य में जैन लेखकों की रचनायें भी महत्त्वपूर्ण हैं। लोक में प्रचलित धूर्त, विट, मूर्ख तथा स्त्रियों की कहानियों को लिखने में जैनलेखकों की प्रतिभा विशेष द्रष्टव्य है। हेमविजयमणि विरचित ‘कथारत्नाकर’ में २५६ छोटी-छोटी कथाओं का संग्रह है जिसका निर्माण १७वीं शती में किया गया है। जैन संस्कृत-प्राकृत साहित्य में कथाओं के अनेक महनीय संग्रह उपलब्ध होते हैं, जो ‘कथाकोश’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। कथाकोशों में हरिसेणाचार्य रचित ‘कथाकोश’. जो ‘बृहत्कथाकोश’ के नाम से विख्यात है, अपनी विपुल कलेवरता के कारण विशेष महत्वपूर्ण है। गद्य में रचित जैन प्रबन्धों की भावना कथाशिल्प से भिन्न है। इसमें अर्ध-ऐतिहासिक प्रसिद्ध पुरुषों की जीवनी रोचक शैली में लिखी गई है। ऐसे प्रबन्धों में दो विशेष प्रसिद्ध हैं-(१) प्रबन्धचिन्तामणि (२) प्रबन्धकोश। प्रबन्ध चिन्तामणि मेरुतुङ्गाचार्य (१४वीं शती) की रचना है और प्रबन्धकोश राजशेखर की। जैनकवि सिद्धर्षि की एक रचना है ‘उपमितिभवप्रपञ्चकथा’। डॉ. याकोबी के अनुसार सिद्धर्षि की यह कृति भारतीय साहित्य में पूर्ण तथा विशुद्ध रूपात्मक आख्यान है। यह कथा रूपक शैली में लिखित एक बृहत् संस्कृत काव्य है जिसे काव्यात्मक उपन्यास कहा जा सकता है। रूपात्मक प्रबन्धों में जयशेखरसूरिकृत ‘प्रबोधचिन्तामणि’ तथा नागदेवरचित ‘मदनपराजय’ विशेष उल्लेखनीय है। इस प्रकार जैनकथाओं में दोनों रूप उपलब्ध होते हैं-शुद्ध विवरणात्मक कथा, कोश आदि तथा शुद्ध रूपात्मक उपमिति भवप्रपञ्चकथा, मदन पराजय आदि। गद्य-खण्ड संस्कृत में बौद्ध कथाओं का समावेश करने वाले ‘अवदान-साहित्य’ का पृथक अस्तित्व है। अवदान का अर्थ है-महनीय कार्य की कहानी। ‘अवदान’ जातकों के ढंग पर संस्कृत में विरचित नीतिप्रधान साहित्य है। पालिजातक की भांति अवदान भी भगवान बुद्ध के पूर्वजन्म के शोभन गुणों का वर्णन करते हैं। ऐसे ग्रन्थों में ‘अवदानशतक’ प्राचीनतम संग्रह है। इसमें उन विशिष्ट गुणों का वर्णन तथा तत्संबद्ध कहानियां हैं जिनमें बुद्धत्व-प्राप्ति का संकेत है। इसका रचनाकाल द्वितीय शती माना जाता है। अवदानशतक में साहित्यिक सौन्दर्य की अपेक्षा नीति का प्रतिपादन प्रमुख है। __साहित्यिक दृष्टि से ‘दिव्यावदान’ भी विशेष आर्कषक नहीं है। यह हीनयान सम्प्रदाय का अनुयायी ग्रन्थ है। इसकी भाषा सामान्यतया विशुद्ध संस्कृत है, किन्तु स्थान-स्थान पर पाली के संपर्क से मिश्रित सी हो गई है। __भारतवर्ष विश्व के प्राचीन देशों में अन्यतम है। ऋषियों का यह निर्देश “एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः" के गम्भीर उद्घोष से संसार के ज्ञानगुरु पद को सुशोभित करता था। इस पावन देवभूमि के उबुद्ध दार्शनिकों की ज्ञानज्योति से समस्त भूमण्डल का अज्ञान-तिमिर तिरोहित होता था। परन्तु सर्वप्रथम विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाने वाला यह भारत एक दिन विधि के क्रूर अट्टहास का लक्ष्य बना। सदियों तक यह देश विदेशी लौह श्रृंखला में जकड़ा रहा। हमारे देश, समाज और संस्कृति को प्रतिबिम्बित करने वाले सत्साहित्य और इतिहास पर पर्दा डालकर उसके स्थान पर मनगढन्त पिछड़ेपन का तथाकथित इतिहास रचाया गया। आधुनिक ऐतिहासिक किसी देश की राजनैतिक उथल-पुथल की क्रमबद्ध तिथियों और घटनाओं के सूचीमात्र को ही इतिहास कहते हैं। परन्तु भारतीय आदर्श के अनुसार इतिहास का उद्देश्य मानव जीवन के शाश्वत सिद्धान्तों को जीवन में घटाते हुए राष्ट्र के सांस्कृतिक अभ्युदय में अपूर्वयोगदान करना भी था। हमारे यहां इस उद्देश्य के पूर्तिस्वरूप रामायण, महाभारत तथा पुराण सच्चे इतिहास का प्रतिनिधित्व करते हैं। स्वतन्त्र भारत में परतन्त्रताकालीन मिथ्यारोपों का निराकरण आवश्यक हुआ और अपनी भूली सांस्कृतिक परम्परा का अन्वेषण-मूल्याङ्कन होने लगा। इसी प्रसंग में विदेशियों द्वारा कल्पित इतिहास के स्थान पर सच्चे राष्ट्रिय इतिहास-निर्माण की योजना बनी। इस महत्त्वपूर्ण कार्य की सफलताप्राप्ति के साधनों में अभिलेखों की उपलब्धि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सदियों से मूक अभिलेखों ने अपना हृदय खोल दिया और तब पुरातत्वविदों ने इस अक्षयनिधि से इतिहास को महनीय बनाने का भगीरथ प्रयास किया। _ वस्तुतः इतिहास के दो पक्ष हैं-बाह्य तथा आन्तरिक। इतिहास के बाह्यपक्ष से तात्पर्य किसी देश विशेष की भौगोलिक स्थिति से है और आंतरिक पक्ष से राजवंश, शासनप्रबन्ध, सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक स्थिति से। शक क्षत्रप भूमिका रुद्रदामन् की ख्याति उनके जूनागढ़ शिलालेख में वर्णित है। प्रयाग प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की विजय यात्रा का सुन्दर वर्णन है। मध्ययुग में कन्नौज पर अधिकार करने के लिए प्रतिहार, राष्ट्रकूट तथा पाल नरेशों में परस्पर युद्ध की स्थिति बनी रहती थी जिसकी पुष्टि भोर संग्रहालय लेख, खालिसपुर प्रशस्ति तथा ग्वालियर प्रशस्ति से होती है। ऐहोल शिलालेख में पुलकेशी द्वितीय की जीवनकथा उसके द्वारा सम्राट हर्षवर्धन को भी पराजित करने की बात सिद्ध होती है। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से मूल किन्तु सजीव अभिलेखों का विशेष महत्व है। संस्कृत वाङ्मय के बृहद् इतिहास के इस पञ्चम गद्यखण्ड में मुख्य रूप से सात प्रकरण हैं जिनमें गद्यसाहित्य का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया गया है। ये सात प्रकरण हैं (१) गद्यकाव्य, (२) चम्पूकाव्य, (३) कथा साहित्य (वैदिक, बौद्ध-जैन, उपदेशात्मक, मनोरञ्जक कथायें) (४) लौकिक संस्कृत साहित्य की कवयित्रयाँ (५) परिशिष्ट-अंश (बौद्ध भिक्षुणियों के गीत-थेरीगाथा), (६) नीतिशास्त्र का इतिहास, (७) अभिलेखीय साहित्य। उपर्युक्त सातों प्रकरणों के वर्ण्यविषय के अन्तर्गत गद्यकाव्य के सन्दर्भ में प्राचीनकाल से लेकर २०वीं शती के गद्यलेखकों और उनकी रचनाओं का विस्तत विवेचन लेखक के साहित्यिक मूल्याङ्कन क्षमता का परिचायक है। चम्पूकाव्य का वर्गीकृत विश्लेषण उस काव्य की विषयव्यापकता का द्योतक है। कथावस्तु की दृष्टि से उपलब्ध चम्पू-काव्यों का वर्गीकरण नौ शीर्षकों में किया गया है-(१) रामायण पर आधारित चम्पू, (२) महाभारत पर आधारित चम्पू, (३) पुराणों पर आधारित चम्पू, (४) जैन ग्रन्थों पर आधारित चम्पू, (५) महापुरुष-जीवन पर आधारित चम्पू, (६) यात्रा प्रबन्धात्मक चम्पू, (७) देवताओं एवं महोत्सवों पर आधारित चम्पू, (८) दार्शनिक चम्पू, (E) काल्पनिक चम्पू। -_कथासाहित्य का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसमें विद्वान लेखक ने वैदिक सूक्त सन्निविष्ट आख्यान, यजुर्वेदगत आख्यान, ब्राह्मण ग्रन्थ में उपलब्ध आख्यान तथा उपनिषदों में प्राप्त आख्यानों का विश्लेषण प्राञ्जल भाषा में किया है। साथ ही बौद्ध एवं जैन साहित्य में उपलब्ध कथा-वैभव का विस्तृत उल्लेख अत्यन्त उपादेय है। __ उपदेशात्मक एवं नीतिमूलक कथाओं में पञ्चतन्त्र हितोपदेश तथा पुरुषपरीक्षा का सर्वेक्षण भी लेखक की सूक्ष्म विवेचन शक्ति का साथी है। मनोरञ्जक कथाओं में बृहत्कथा, बृहत्कथामञ्जरी, कथासरित्सागर, वेतालपंचविंशति, शुकसप्तति और सिंहासननद्वात्रिंशिका प्रमुख हैं। इसी प्रकार में आधुनिक कथा साहित्य की सूचना भी इसकी उपादेयता सिद्ध करती है। परिशिष्ट अंश में बौद्धभिक्षुणियों के गीत-थेरीगाथा का भी समावेश किया गया है। संस्कृत साहित्य की कवयित्रयों में लौकिक कवयित्रियों के साथ ही कुछ वैदिक-ऋषिकाओं का भी वर्णन किया गया है। नीतिशास्त्र का इतिहास के अन्तर्गत चाणक्यनीतिदर्पण, भर्तृहरिशतक, भामिनी विलास, शतकावली कुट्टनीमत, आर्यासप्तशती, कविकण्ठाभरण, ३६ गद्य-खण्ड देशोपदेश, नीतिरत्न आदि प्रमुख ग्रन्थों का परिचय दिया गया है। इसी सन्दर्भ में प्रहेलिका ग्रन्थ विदग्धमुखमण्डल की भी चर्चा है। अभिलेखीय साहित्य में पालि, प्राकृत, संस्कृत, नेपाली, अभिलेखों के साथ ही बृहत्तर भारतीय अभिलेखों का सविस्तर वर्णन नितान्त महनीय है। इस खण्ड के सम्पादक प्रो. जयमन्त मिश्र साहित्यशास्त्र के मर्मज्ञ मनीषी हैं। इनके वैदुष्यपूर्ण सम्पादकत्व में प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन विशेष महनीय है। इनकी विस्तृत संस्कृत भूमिका में सम्पूर्ण गद्यसाहित्य का आकलन इनकी सारस्वत साधना का द्योतक है। मैं डा. जयमन्त मिश्र को हृदय से साधुवाद देता हूँ। इस खण्ड के सभी विद्वान् लेखक अपने-अपने विषय के निष्णात पण्डित हैं। उन्होंने अपने वैदष्यपूर्ण आलेखों से इस खण्ड की उपादेयता में विशेष योगदान किया है अतः वे सभी लेखक बधाई के पात्र हैं। साथ ही मैं उन समस्त साहित्य सेवी विद्वानों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनकी साहित्य-सम्पत्ति के प्रत्यक्ष या परोक्ष उपयोग से ग्रन्थ की सम्पूर्ति संभव हो सकी है। __ संस्कृत वाङ्मय के बृहद इतिहास के इस पञ्चम खण्ड के प्रकाशन के संदर्भ में उत्तर प्रदेश शासन (भाषा विभाग) के अधिकारियों तथा संस्कृत संस्थान की कार्यकारिणी समिति के सदस्यों एवं अध्यक्ष को भी हृदय से साधुवाद देता हूँ जिनके सार्थक सहयोग एवं उत्साहवर्धन से प्रस्तुत खण्ड का प्रकाशन यथासमय हो सका है। संस्कृत संस्थान के निदेशक, सहायक निदेशक तथा संस्थान के अन्य सहयोगी सदस्य भी धन्यवाद के पात्र हैं जिनकी सतत सक्रियता संस्थान द्वारा प्रवर्तित कार्यक्रमों की सफलता में विशेष भूमिका निभाती है। इस पञ्चम गद्य-खण्ड के संपादन प्रकाशन में मेरे स्नेहभाजन शिष्य डॉ. रमाकान्त झा का अपेक्षित सहयोग महत्त्वपूर्ण है अतः डॉ. झा को मैं हार्दिक आर्शीवाद देता हूँ। अन्त में मैं ‘शिवम् आर्ट’ के व्यवस्थापक द्विवेदी बन्धुओं के प्रति अपनी शुभकामना व्यक्त करता हूँ जिनका सक्रिय सहयोग इस खण्ड के निर्विघ्न मुद्रण में सहायक सिद्ध हुआ है। इति शम्। महाशिवरात्रि विक्रम संवत् २०५५ बलदेव उपाध्याय शारदा निकेतन रवीन्द्रपुरी (दुर्गाकुण्ड) वाराणसी-५ ३७ सम्पादकीयम्-गद्यसाहित्यम् प्रथमोऽध्यायः