१५ पारिजातहरण

‘हरिवंशपुराण’ की प्रसिद्ध कथा में कतिपय नये प्रसंगों की अवतारणा करते हुए कवि कर्णपूर ने इस महाकाव्य में अपनी श्रीकृष्णभक्ति को अभिव्यक्ति दी है। महाकाव्यलक्षणसम्मत जलक्रीडा, ऋतुवर्णनादि के प्रसंग भी इसमें जोड़े गये हैं। यह महाकाव्य १५८३-८५ ई. के लगभग रचा गया। इसमें १८ सर्ग हैं। चैतन्यचरितामृतम् की अपेक्षा कर्णपूर का भाषाशिल्प इसमें और अधिक निखरा हुआ है तथा कल्पनाशक्ति भी प्रौढतर हुई है। शृङ्गार और भक्ति का समन्वय उन्होंने इस महाकाव्य में प्रस्तुत किया है और वीररस का भी अंगी के रूप में निर्वाह किया है। सौन्दर्यवर्णन में विशेष दक्षता कर्णपूर ने प्रदर्शित की है। शची के मुख की अप्रतिम रमणीयता के वर्णन में प्रान्तिमान् की योजना करते हुए वे कहते हैं अतिसमुच्छितशृगसमुद्गतत्रिदशराजवधूमुखवीक्षणात्। इह दिनेपि विधूदयशकिनी कमलिनी मलिनीभवति क्षणम् ।। (१०।४४) परवर्ती संस्कृत महाकाव्य - सुमेरु पर्वत पर इन्द्र के साथ शची जब विहार करने जाती, तो उसका मुख उदित हुआ चन्द्रमा लगता और उसके कारण कमलिनी मुरझा जाती। कवि का यमक अलङ्कार का प्रयोग विशेष चमत्कारमय है। सुमेरु पर्वत पर निवास करने वाले देवताओं तथा सो का एक साथ वर्णन करते हुए उसने यमक का यह प्रयोग किया है समुज्ज्वल श्रीरयमिन्दुसुन्दरो बिभर्ति मेरुः शिखरैरनुत्तमैः। a विलासिनः कुण्डलिनः सुभोगिनो विलासिनः कुण्डलिनः सभोगिनः।। समिती अनि तिनली (१०।६०) - पारिजातहरण महाकाव्य में पूरे भारत के वर्णन का प्रयास किया गया है। श्रीकृष्ण स्वर्ग से लौटते हुए कामरूप (असम) में आते हैं। वहाँ से वे लोहित नद (ब्रह्मपुत्र), कमता नगरी, गौड़ देश, मिथिला, वाराणसी, प्रयाग, मथुरा, वारणावत, कुरुक्षेत्र, महाराष्ट्र क्षेत्र आदि होते हुए द्वारिका पहुँचते हैं। इस प्रकार पूरे देश की एकता को व्यक्त करना भी कवि का लक्ष्य रहा है। माना वीक माग मा पता लगाया कि