भोजविरचित ‘गोविन्दविलास’ महाकाव्य की हस्तलिखित प्रतियां राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर और अनूप ग्रन्थालय, बीकानेर में है। इसमें श्रीकृष्ण की कथा है। इस काव्य में नौ सर्ग और ५६१ श्लोक हैं। श्रीहर्ष के नैषधचरित के समान इस महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग के अन्त में भी कवि ने आत्मपरिचयात्मक श्लोका को दुहराया है। श्रीमल्लः सविदग्धवर्धकिशिरोलंकाररत्नांकुरो मन्दोदर्यपि यं कवीन्द्रतिलकं प्रासूत भोज सुतम् । तस्य श्रीचरिताप्रसादविकसद्वास्वात्रकाद्योतते श्रीगोविन्दविलासनाम्नि विरतिं सर्गोयमाद्योगमत्।। स्पष्ट ही गोविन्दविलास महाकाव्य का रचयिता भोज धाराधीश राजा भोज से सर्वथा भिन्न था। इसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रति संवत् १५१४ (१४५७ ई.) की है। इस महाकाव्य में मनोरम भाषा और रमणीय कल्पना का सुन्दर समन्वय हुआ है। उदाहरण के लिए प्रारम्भ कस्तुत्यात्मक दा श्लाक प्रस्तुत है - या पर स्मितमिषोन्मिषदं श्रुतरङ्गित-व्रजवधूजनरागपयोनिधिः। पापाच्या म श मनभीतितमः स मनोहरं मुदमुदञ्चयतान्मुखचन्द्रमाः।। याद शाम नियम नवमिवीनतमम्बुदमण्डलं वलयित तरुणारुणरश्मिभिः पयमा सुरतलग्नरमाकुचकुंकुमं शितिशिवाय ममास्तु हरेरुरः।। इस काव्य में पाण्डित्य और लालित्य के साथ ही कल्पना-वैचित्र्य पदे पदे पाया जाता है। इससे इस काव्य की गरिमा का बोध होता है। श्रीहर्ष के समान आत्मपरिचय देने से १. इसकी हस्तलिखित प्रति शासकीय प्राच्य हस्तलिखित ग्रन्थागार, मद्रास में है। २. डा. भगवतीलाल राजपुरोहित, राजा भोज का रचनाविश्व, १E६०, पृष्ठ-१३-१४ ।’ परवर्ती संस्कृत महाकाव्य ५६१ सम्भवतः यह कवि उसके पश्चात् ही हुआ होगा। परन्तु यह १५१४ ई. से पूर्ववर्ती तो है। ही।