महाकवि शंकर केरल के राजा केरलवर्मा के आश्रित कवि थे। केरलवर्मा का शासनकाल वि.सं. १४८० से १५०३ (१४२३ से १४४६ ई.) तक रहा। शंकर कवि के गुरु राघव भी केरलवर्मा के आश्रित कवियों में थे। कवि ने काव्य के आरम्भ में अपना परिचय दिया है। शंकर पल्लिकुन्तु के निवासी थे जो आज चिरकाल तरलुक में है। इस ‘कृष्णविजय’ महाकाव्य की रचना केरलवर्मा की इच्छानुसार हुई। इस शंकर कवि की प्रशंसा समकालीन उद्दण्ड शास्त्री ने अपने कोकिलसन्देश में की है - गुरु कोलानेलावनसुरभितान याहि यत्र प्रथन्ते। वेलातीतप्रथितयशसः शंकराधाः कवीन्द्राः।। कृष्णाभ्युदय काव्य के रचयिता ने अपने गुरु शङ्कर की प्रशंसा में लिखा स्वयं विनिर्यन्नवपद्मबन्धक्षामाम्बु यस्याननपदुमलग्नम्। चय II ममार्ज वाणी करपल्लवेन स शंकराख्यो मम शं करोतु।। मा प्री कृष्णविजय में शंकर का काव्य-माधुर्य पद-पद पर पाया जा सकता है। उपवनभवनान्ते रिङ्गणं व्यादधानाः सरकार का परिपतितपरागै—सराः केसराणाम्। क्वणितमधुकराली किकिणीका विचेरु Kitopit-fore विगलितमधुलालाक्षपाथसो वातपाताः। 5 15