३२ सुभाषितों के कवि

प्रसिद्ध और सुविदित महाकवियों के अतिरिक्त संस्कृत कवियों की सुदीर्घ परम्परा में असंख्य रचनाकार ऐसे हैं जिनके कवित्व से हम सुभाषितसंग्रहों, काव्यशास्त्र तथा । नाट्यशास्त्र से संबद्ध ग्रंथों में उनकी रचनाओं से प्रदत्त छिटपुट उद्धरणों के द्वारा ही परिचित हैं। इनमें से अनेक कवियों के तो स्वयं सुभाषितसंग्रहकर्ताओं को नाम तक विदित नही हैं। जिन कवियों के नाम विदित भी होते हैं, उनकी रचनाओं का परिचय नहीं मिलता। १. प्रतिभा भोजराजस्य : डा० मगवतीलाल राजपुरोहित, पृ. ५५-५६ सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि ५२१ पर इन कवियों में शताधिक कवि ऐसे होंगे, जिनकी प्रतिभा और काव्यात्मक अवदान संस्कृत के श्रेष्ठ कवियों के समतुल्य हैं तथा अपने रचनात्मक उत्कर्ष के कारण ही उनकी रचनाओं से कतिपय मार्मिक सुभाषित या स्फुट पद्य शताब्दियों तक वाचिक परम्परा में संजोये जाते रहे हैं और संग्रहकारों और शास्त्रकारों के द्वारा इसीलिये उद्धृत भी होते रहे हैं।

  • निश्चय ही सुभाषितसंग्रहों अथवा शास्त्रीय ग्रन्थों में आचार्यों द्वारा उद्धृत या स्मृत इन कवियों में से अनेक ने स्फुट मुक्तकों की ही नहीं, प्रबन्धकाव्यों की भी रचना की होगी और ऐसी अप्राप्य प्रबन्धरचनाओं से भी उनके सुभाषित उद्धत किये गये हैं,। पर अब इन कवियों को हम उनके कतिपय सुभाषितों के द्वारा ही जानते हैं, चाहे ये सुभाषित स्वतंत्र मुक्तक हों या प्रबंधांश। इसके साथ ही सुभाषितसंकलनों या अन्यत्र उद्धत सुभाषितों के अनेक रचनाकार ऐसे हैं, जिनकी प्रबन्धात्मक रचनाएं प्राप्त हैं, पर मुक्तककार के रूप में उनके कवित्व से साक्षात्कार स्फुट उद्धरणों में हो पाता है। इस पृष्ठभूमि में, यथासंभव कालक्रम का ध्यान रखते हुए यहाँ निम्नलिखित श्रेणियों के कवियों का परिचय उनकी स्फुटतया उद्धृत रचनाओं के द्वारा प्रस्तुत है - (१) प्रबन्धकवि, जिनके अप्राप्य प्रबन्धों से स्वतन्त्र रूप में भी आस्वाद्य तथा रमणीय पद्य उद्धृत हैं, (२) प्रबन्धकवि, जिनकी प्रबन्धरचनाएँ प्रख्यात हैं, पर तद्व्यतिरिक्त उनके रचे स्फुट पद्य अल्पज्ञात हैं और यत्र तत्र उद्धृत हैं। जड (३) ऐसे कवि जिनकी न प्रबन्धरचनाएँ प्राप्त होती हैं, न स्वतन्त्र रूप से उनके मुक्तककाव्य ही मिलते हैं। उद्धृत सुभाषितों से इन कवियों का अभिज्ञान होने से इन्हें यहाँ केवल प्रकृत प्रसंग में ‘सुभाषितों के कवि’ कहा गया है। पाक हानि कि जिस नि परीकी

चन्द्रक

चन्द्रक का उल्लेख चन्द्र, चन्दक तथा चम्पक नामों से भी मिलता है। वे संस्कृत के उन महाकवियों में सर्वप्रथम स्मरणार्ह हैं, जिनकी रचनाएँ विलुप्त हो गयीं, तथा कतिपय उल्लेखों या उद्धरणों के द्वारा ही जिनके कृतित्व की महनीयता प्रमाणित होती है। कल्हण ने राजतरङ्गिणी (२।१६) में चन्द्रक को कश्मीर में उत्पन्न एक नाट्यकार बताया है, जो बड़ा लोकप्रिय था तथा राजा तुंजीन के शासनकाल में विद्यमान था।’ अभिनवगुप्त ने चन्द्रक का स्मरण किया है (अभिनवभारती अ. १६)। मटा माती जाति पार नाट्यं सर्वजनदयं यश्चके स महाकविः। देपायनमुनेरशस्तत्काले चन्द्रको ऽभवत् ।।-कह कर कल्हण ने चन्द्रककवि को व्यास का अवतार बताया है। काव्यमालासंपादक तुंजीन का शासनकाल १६० वि.सं.– पूर्व (१०३ ई.पू.) मानते हैं, कनिंघम ३७६ वि.सं. (३१८ ई.) और स्टर्नबाख दूसरी शताब्दी। ५२२ काव्य-खण्ड _चन्द्रक के कुल १३ पद्य जल्हण की सूक्तिमुक्तावली, शाङ्गधरपद्धति, सुभाषितावली, सभ्यालङ्कार तथा कवीन्द्रवचनसमुच्चय में उद्धृत हैं। चन्द्रक के नाम से निम्नलिखित पद्य इन सभी सुभाषितसंग्रहों में उद्धृत है - एकेनाक्ष्णा परिततरुषा वीक्षते व्योमसंस्थं भानोर्बिम्बं सजललुलितेनापरेणात्मकान्तम् । 25 अनश्छेदे दयितविरहाशकिनी चक्रवाकी द्वौ सङ्कीर्णी रचयति रसौ नर्तकीव प्रगल्भा।। किन्तु इस एय को ‘सदुक्तिकर्णामृत’ और ‘सुभाषितरत्नकोष’ में मधु नामक कवि का बताया गया है। संभव है, मधु भी चन्द्रक का ही अन्य नाम हो। वस्तुतः उनका यह पद्य मधुमय ही है, रससांकर्य की कल्पना को विदग्धता और गहरे संवेदन के संयोग से यहाँ प्रस्तुत किया गया है। काव्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्यों ने चन्द्रक का स्मरण किया है तथा आनन्दवर्धन ने एक पध चन्द्रक का उद्धृत किया है। अभिनव तथा मम्मट ने उनके ‘प्रसादे वर्तस्व प्रकटय मुदं सन्त्यज रुषम्.-’ इत्यादि पद्य पर विशद विचार किया है। निश्चय ही क्षेमेन्द्र की दृष्टि में चन्द्रक एक विश्रुत महाकवि थे, तभी उन्होंने इनके सारे पद्यों को दोषोद्घाटन के लिए ही प्रस्तुत किया है। जिगवी मित

बाण

महाकवि बाण ने अपने दोनों गद्यकाव्यों में सन्निविष्ट पद्यों तथा चण्डीशतक के अतिरिक्त अनेक स्फुट सुभाषित लिखे थे। संभवतः इन मुक्तकों की रचना उन्होंने अपने जीवन के उस दौड़ में की होगी, जब वे अपने पिता के देहावसान के पश्चात् इत्वर होकर इधर-उधर भटक रहे थे। उनके इन सुभाषितों में जीवन के व्यापक अनुभव, समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों की छवियाँ तथा भारतीय वसुन्धरा के रंग-बिरंगे चित्र हैं। विद्याकर के ‘सुभाषितरत्नकोष’ में बाण के कुल २५ पद्य उद्धृत हैं, जिनमें से एक चण्डीशतक का, चार हर्षचरित के तथा दो कादम्बरी के पद्य हैं, शेष पद्य स्वतन्त्र मुक्तक हैं। सुदक्तिकर्णामृत में बाण के १४ पद्य उद्धृत हैं, जिनमें दो चण्डीशतक के हैं। सुभाषितावली में बाण के नाम से २८ पद्य दिये गये हैं, जिनमें से अधिकांश बाण के प्रबन्धकाव्यों से भिन्न स्वतन्त्र मुक्तक हैं। शार्गधरपद्धति में भी बाण के अनेक स्फुट पद्य संकलित हैं। बाण के कवित्व के अछूते पक्ष इन पद्यों से उन्मीलित होते हैं। अनेक पद्यों में ग्राम जीवन तथा भारतीय जनसमाज के निम्नवर्ग का हृदयस्पर्शी अंकन हुआ है। शार्गधर ने उनके ग्रीष्मवर्णन के चार पद्य उद्धृत किये हैं, जिनमें दरिद्र तृषार्त बटोहियों के संताप का सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि ५२३ स्वानुभूत सा चित्रण हुआ है। पंकप्राय स्वल्पजल वाले तालाब में नहाकर, अपना फटा वस्त्र गीला करके वदन पर डाल कर और पानी पीकर पथिक कुछ आगे बढ़ता ही है कि प्यास के मारे उसके मुंह से हाय-हाय निकल पड़ता है - ग्रीष्मोष्यप्लोषशुष्यत्पयसि बकभयोद्धान्तपाठीनभाजिक प्रायः पङ्ककमात्रं गतवति सरसि स्वल्पतोये लुठित्वा। कई कृत्वा-कृत्वा जलार्द्राकृतमुरसि जरत्कर्प-धं प्रपायाँ प्रजाताकि तोयं जग्ध्वापि पान्थः पथि वहति हहा हेति कुर्वन् पिपासुः ।। उसी प्रकार शिशिर में ग्रामदेवी के मंदिर में आकर रात्रि बिताने वाले पथिक का यह चित्र जितना ही मनोरंजक है, उतना ही करुण भी - सापक सिया पुण्याग्नौ पूर्णवाञ्छः प्रथमगणितप्लोषदोषः प्रदोष व पान्थः सुप्त्वा यथेच्छं तदनु तततृणे धामनि ग्रामदेव्याः। या कि उत्कम्पी कर्पटाचे जरति परिजडे च्छिद्रिणि च्छिन्ननिद्रे किया भासी वाते वाति प्रकामं हिमकणिनि कणत् कोणतः कोणमेति ।। (शाधिर-३६४६, सुभाषितरत्नकोष-१३०५) का जाना प्रदोष के समय पथिक अच्छी तरह आग में ताप कर आराम से पुआल पर ग्रामदेवी के मन्दिर में जा सोया। रात में जब ठंडी बयार बहने लगी, और फटी कथरी के छेदों से हिम के कण उस पर प्रहार करने लगे, तो नींद टूट गयी, फिर तो रात भर वह इस कोने से उस कोने में शीत से बचाव के लिये आवाजाही करता रह गया। बाण ने अपने ऐसे अनेक पद्यों में भारतीय जनता का त्रास और जीवन संघर्ष व्यक्त किया है। दूसरी ओर उनके कई पद्य ऐसे भी हैं जिनमें सामान्य जन-जीवन के राग और मधुर क्षणों की सुकुमारता को प्रस्तुत किया गया है। संभवतः अपने घुमक्कड़ जीवन के दिनों में ऋतुचक्र के विपर्यय के साथ-साथ प्रपा (प्याऊ) और प्रपापालिकाओं से बाण का बहुत सामना हुआ होगा। उनके कई पद्य प्रपापालिकाओं पर हैं, इनमें विनोद की मीठी चुटकी और परकीया के आकर्षण को सरस अभिव्यक्ति दी गयी है। कोई पथिक प्रपापालिका के प्रति किस प्रकार अपना प्रच्छन्न राग व्यक्त करता है, इसका वर्णन करते हुए बाण कहते हैं -के का शिका दूरादेव कतोञ्जलिर्न तु पुनः पानीय पानोचितो PAPER TERE रूपालोकनकातुकात प्रचलितो मूर्धा न शान्त्या पुनः। (55) MES रोमाञ्चोपि निरन्तरं प्रकटितः प्रीत्या न शैत्यादपा- 6 PRAP DEPARE मक्षुण्णो विधिरध्वगेन विहितो वीक्ष्य प्रपापालिकाम।। BP (शाङ्गधरपद्धति, ३८५६, सु.र.को.-५१४)काव्य-खण्ड या पथिक ने प्याऊ वाली नवयौवना को देखकर दूर से ही अंजलि बांधी, पर वह पानी पीने की मुद्रा में नहीं था। पानी पीते समय सिर उठा कर वह उसका रूप निहारता हुआ सिर हिलाता था, तो यह प्यास बुझने के कारण नहीं, उसके रूप के अवलोकन के कौतुक के कारण वह ऐसा करता था। प्रीति के कारण उसके देह में रोमांच भर गया था, पानी ठंडा होने के कारण नहीं। वस्तुतः बाण के इतस्ततः बिखरे ये मुक्तकों के मुक्ता संस्कृतकाव्यपरम्परा की निधि हैं।

शङ्कुक

शकुक का समय इदमित्थम् रूप में निर्णीत नहीं किया जा सकता। काव्यशास्त्र के इतिहास में शकुक का नाम रसनिष्पत्ति के व्याख्याकार के रूप में सदैव लिया जाता रहा है। इन्होंने भरत के नाट्यशास्त्र पर जो टीका या भाष्य लिखा था, वह प्राप्त नहीं होता। उसी प्रकार इनका कोई स्वतन्त्र काव्य भी प्राप्य नहीं है। कल्हण ने शकुक का एक कवि के रूप में उल्लेख करते हुए (राज. ४७०३-५) बताया है कि शकुक ने ‘भुवनाभ्युदय’ नामक काव्य लिखा था। कल्हण के अनुसार कवि शकुक राजा अजापीड के काल में हुए, जिसका समय कनिंघम के अनुसार ७० वि. सं. (८१३ ई.) तथा एस.पी. पंडित के अनुसार ६७३ वि.सं. (८१६ ई.) के आसपास है।’ आचार्य शङ्कुक तथा कवि शङ्कुक की अभिन्नता स्थापित करने के लिये कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है। किसी मानक मिल जाए BE शार्ङ्गधरपद्धति, सूक्तिमुक्तावली तथा सुभाषितावली में कवि शङ्कुक के स्फुट पद्य उद्धृत हैं। वल्लभदेव ने सुभाषितावली (३१२७) में शङ्कुक का यह पद्य उद्धृत किया है हा असमसाहससव्यवसायिनः शिकाय माह मिलाई जनता का सकललोकचमत्कतिकारिणः। IS PERSLITERATURE नायक I यदि भवन्ति नवाजिमलमिटयो SPEPAL हतविधेरयशो न मनस्विनः।। । (असाधारण साहस से संपन्न, संसार को पराक्रम से चमत्कृत करने वाले व्यक्ति को वांछित सिद्धि यदि न मिले, तो यह तो विधाता के लिये अपकीर्ति है, मनस्वी के लिये नहीं।) शाङ्गधर (३८६४) ने शकुक का एक मार्मिक पद्य उद्धृत किया है, जिसमें कवि प्रवास पर जाते पथिक से गाँव में ही रहने की अभ्यर्थना करता है। स्टर्नबाख ने मयूर के पुत्र एक अन्य शङ्कुक का भी उल्लेख किया है। यानी ईमार नामा १. महासुभाषितसाह, भाग-२, पृ. ६६६ सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि ५२५

धर्मकीर्ति

धर्मकीर्ति एक महान् बौद्ध दार्शनिक के रूप में प्रख्यात हैं। आनन्दवर्धन जैसे मूर्धन्य काव्यशास्त्री ने उनका स्मरण एक सुकवि के रूप में किया है। निश्चय ही उनका कवित्वपक्ष भी उतना ही विचारणीय है, जितना आचार्यपक्ष। फिर मानगी धर्मकीर्ति का कविरूप इतस्ततः उद्धृत उनके फुटकर श्लोकों के आधार पर ही आँका जा सकता है। आनन्दवर्धन ने न केवल धर्मकीर्ति के दो पद्य उद्धृत किये हैं, वरन् उन पर विशद चर्चा उठाते हुए उनसे अपनी सैद्धांतिक अवधारणाओं का समर्थन पाया है। आनन्दवर्धन की दृष्टि में धर्मकीर्ति का काव्य लक्ष्य के रूप में महत्त्व रखता है। अभिनव और हेमचन्द्र ने भी इन पर विचार किया है। धर्मकीर्ति के सर्वाधिक पद्य विद्याकर ने ‘सुभाषितरत्नकोष’ में उद्धृत किये हैं। इस संग्रह में उदाहृत धर्मकीर्ति के सोलह पद्य विविध विषयों पर है। उनमें कहीं तो गहरा सौन्दर्यबोध और शृंगारित भाव है, कहीं निर्वेद और विषाद की सघन छाया है, तो कहीं विरोध का प्रखर स्वर गुंजित है। भवभूति की भाँति धर्मकीर्ति अपने कवि की समकालिक समाज द्वारा की गयी उपेक्षा से खिन्न हैं। एक पद्य में तो अपनी उपेक्षा से पीडित होकर उन्होंने व्यास और वाल्मीकि के कवित्व को भी चुनौती दे डाली है (सु.र.को, -१७२६)। इसमें कोई सन्देह नहीं कि धर्मकीर्ति के पास जो प्रौढ और परिष्कृत पदावली, गहरी संवेदनशीलता और विदग्धता है, वह विरले कवियों में मिलती है। उनकी अभिव्यक्ति और राह भी अलग ही है। एक पद्य (सु.र.को. १७२६) में वे कहते हैं कि भले ही मेरे आगे या पीछे कोई न चले, मैंने अपना सुस्पष्ट बहल वाम-पंथ (अपना अलग ही रास्ता) चुन लिया है। सीडीगणिक सुभाषितरत्नकोष में उद्धृत धर्मकीर्ति के पद्यों में है पद्य शृंगारपरक हैं, जिनमें धर्मकीर्ति का परिष्कृत सौन्दर्यबोध व्यक्त हुआ है। एक पद्य चन्द्रवर्णन का तथा शेष नीति या निर्वेद के भाव को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं। अपनी वैचारिक गंभीरता को दुरवगाह बताते हुए वे कहते हैं कि मेरा मत योग्य प्रतिग्राहक के अभाव में सागर के जल की भाँति अपने ही देह में जरा को प्राप्त हो जायेगा - अनव्यवसितावगाहनमनल्पधीशक्तिना प्यदृष्टपरमार्थतत्त्वमधिकाभियोगैरपि। मतं मम जगत्यलब्धसदृशप्रतिग्राहकं मा कि प्रयास्यति पयोनिः पय इव स्वदेहे जराम्।। (ध्वन्यालोक ३।४० की वृत्ति में उद्धृत) लाइन 2- - जीप मार

उद्भट

उद्भट अलंकारशास्त्र के सुप्रथित आचार्य हैं। राजतरङ्गिणी (४४६५-६७) के अनुसार वे राजा जयापीड (८३६-८७० वि.सं.) की राजसभा में सम्मानित कवि थे। काव्य-खण्ड ५२६ ‘काव्यालंकारसंग्रह’ उनकी काव्यशास्त्र के क्षेत्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। काव्यालंकार पर उनकी टीका भामह-विवरण सप्रति अप्राप्य है, उनका कुमारसम्भवकाव्य भी नहीं मिलता, उससे इन्हीं के द्वारा दिये गये उद्धरण अवश्य प्राप्त होते हैं। आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त ने उद्भट को सम्मान के साथ उद्धृत किया है और नाट्यशास्त्र की परम्परा में भी औद्भट सम्प्रदाय प्रसिद्ध रहा है। hy का श्रीधर द्वारा उद्धृत निम्नलिखित पद्य में उद्भट ने राधा के अनुराग में भर कर तन्मय हो गाते हुए श्रीकृष्ण का यह मनोहर चित्र उपस्थित किया है - EPFO मधील कालिन्दीजलकुञ्जव लवनच्छायानिषण्णात्मनो कमि . हावा नछि राधाबद्धनवानुरागरसिकस्योत्कण्ठितं गायतः। । ‘पशिशोणार अमित तत्पायादपरिस्खज्जलरुहापीडं कलस्पृङ्नत-मता लिएकी हर को ग्रीवोत्तानितकर्णतर्णककुलैराकर्ण्यमानं हरेः।। (सदुक्तिः - २८७) निश्चय ही यह पद्य उद्भटकृत कुमारसम्भवकाव्य के बाहर का है। विद्याकर द्वारा उद्धृत उनका यह पद्य अवश्य कुमारसम्भव से हो सकता है - मिलान की कि कौमुदीः शशिकलाः सकला विचूर्ण्य व मीठ संयोज्य चामृतरसेन पुनः प्रयत्नात।बाही गीता कामस्य घोरहरहुड्कृतिदग्धमूर्तेः ति होरि सिंह की । सञ्जीवनोषधिरियं विहिता विधात्रा।। (स.र.को. - ४५५) लिया (सुभाषितावली- १४६३ में भी उद्धृत) वागाई मोहे :

धीरनाग

विद्याकर द्वारा प्रदत्त धीरनाग कवि के उद्धरण के आधार पर श्री कौसांबी ने यह मत प्रकट किया है कि कुन्दमाला नाटक के कर्ता ये ही धीरनाग कवि हैं (दिङ्नाग या रविनाग नहीं)। विद्याकर द्वारा धीरनाग का यह पद्य कुन्दमाला में भी मिलता है नाविभा द्यूते पणः प्रणयकेलिषु कण्ठपाशः नाराका तार क्रीडापरित्रमहरं व्यजनं रतान्ते। सिर की प्रती शैयानिशीयकलहेषु मृगेक्षणायाः साविक प्राप्तं मया विधिवशादिदमुत्तरीयम्।। -सु.र.को. - ७६४ वल्लभदेव ने धीरनाग (भदन्तधीरनाग) के पाँच पद्य उद्धृत किये हैं। इनमें से तीन पद्य निर्वेदपरक हैं। संसार की व्यर्थता और विषयों की क्षणिकता का ऐसा मार्मिक चित्रण दुर्लभ है - सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि समाश्लिष्यत्युच्चैः पिशितघनपिण्डं स्तनधिया मुखं लालापूर्ण पिबति चषक सासवमिति। अमेध्यक्लेदाढ़ें पथि च रमते स्पर्शरसिकोमा शता महामोहान्धानां किमिव कमनीयं त्रिजगताम् ।। -सुभाषितावली- ३३८८ निका) मनुष्य कच्चे मांस के पिण्ड को स्तन समझ कर आलिंगन करता है, लार से भरे मुख का आसव से भरा चषक मानकर पान करता है, अपवित्र आर्द पथ पर स्पर्श का रस लेता रमण करता है। महामोह से अन्धों के लिये तीनों लोकों में हर वस्तु रमणीय है। वल्लभदेव द्वारा धीरनाग के नाम से उदाहत शेष दोनों पद्य शंगारपरक हैं, एक में प्रवत्स्यत्पतिका नायिका का चित्र है, दूसरे में विरहिणी का। द्वितीय श्लोक (११४२) में ही कवि का नाम भदन्तधीरनाग अंकित है, अवशिष्ट पद्यों के साथ केवल धीरनाग। FRनिश्चय ही धीरनाग जीवन के मर्म को छूने वाले कवि है। उनका निर्वेद का भाव जितना हृदय में गहराई से उतरता है, उतना ही हृदयस्पर्शी उनका प्रणय और प्रियविरह का अनुभव भी है। अपनी पत्नी से विदा लेकर प्रस्थान करते हुए नायक का उसको समझाने और इस पर प्रेयसी की प्रतिक्रिया का चित्रण अपनी स्वभावोक्ति के कारण उदाहरणीय है - कानिक विकास नियन्तः सा का यास्यामीति गिरः श्रुता अवधिरप्यारोपितश्चेतसि । गेहे यत्नवती भविष्यति सदेत्येतत् समाकर्णितम्। बाले मा शुच इत्युदीरितवतः पत्युनिरीक्ष्याननं निःश्वस्य स्तनपायिनि स्वतनये दृष्टिश्चिरं पातिता।। प्रस्थान करते हुए पति ने पत्नी को समझाया कि मुझे जाना ही पड़ेगा। पत्नी से सुन लिया। कब लौटना है- यह भी मन में गुन लिया। घर का ध्यान रखना- यह बात भी उसके कान में पड़ी। फिर-बाले, अब शोक न करो-जब यह पति कहने लगा, तो उसने प्रिय का मुख ताक कर लम्बी साँस छोड़ी और गोद में दुधमुंहे अपने बेटे पर टकटकी लगाये रह गयी। विद्याकर तथा वल्लभदेव द्वारा धीरनाग नाम का स्पष्ट प्रयोग तथा इन पद्यों की सहज भाषाशैली से प्रतीत होता है कि कुन्दमालाकार का नाम धीरनाग ही मानना चाहिए। और ये धीरनाग स्फुट सुभाषित पद्यों के भी रचयिता हैं।

मातृगुप्त

मातृगुप्त नाट्यशास्त्र के आचार्यों की परम्परा में एक जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं। उन्हें कवि और आचार्य के रूप में स्मरण करने वाले आचार्य हैं- कुन्तक, क्षेमेन्द्र, अभिनवगुप्त, ५२८

HTOELETE कारीकपोलतलकान्ततनः पाशा रामचन्द्र-गुणचन्द्र आदि। अतएव उनका समय निश्चित रूप से दसवीं शताब्दी के पूर्व है। कुन्तक ने मातृगुप्त को सुप्रथित महाकवि मानते हुए उनके काव्य की सराहना की है - ‘मातृगुप्त-मायुराज-मजीर-प्रभृतीनां सौकुमार्य-वैचि त्य-संवलित-परिस्पन्दस्यन्दीनि काव्यानि सम्भवन्ति। (वक्रोक्तिजीवित, सं. कृष्णमूर्ति, पृ. ६६) क्षेमेन्द्र ने ‘औचित्यविचारचर्चा’ में मातृगुप्त का यह पद्य उद्धृत किया है - नायं निशामुखसरोरुहराजहंसः कि जम न जमा TO शाकः। माकपाका मिति आभाति नाथ तदिदं दिवि दुग्धसिन्धु र्डिण्डीरपिण्डपरिपाण्डुयशस्त्वदीयम् ।। - काव्यमाला- १, पृ. १४२ कक कोस. इस पद्य से लगता है कि मातृगुप्त किसी राजा के आश्रित थे। कल्हण ने राजतरङ्गिणी में बताया है कि मातृगुप्त संस्कृत के यशस्वी महाकवि भर्तृमण्ठ के समकालीन थे तथा सम्राट विक्रमादित्य के आश्रित थे (राज. ३।१२५-३२३)। कल्हण के अनुसार विक्रमादित्य ने उन्हें कश्मीर का राजा नियुक्त किया था। मातृगुप्त के जीवन की अतिशय रोमांचक गाथा कल्हण ने प्रस्तुत की है। इसके साथ ही इसी प्रसंग में कल्हण ने मातृगुप्त के बनाये हुए कतिपय पद्य भी उद्धत किये हैं। इनमें शीत से अर्धरात्रि में काँपते हुए जब वे पहरा दे रहे थे, तब विक्रमादित्य से उनका यह संवाद है - शीतेनोद्धृषितस्य माषशिमिवच्चिन्तार्णवे मज्जतः शान्ताग्निं स्फुटिताधरस्य घमतः क्षुत्वामकण्ठस्य मे। निद्रा काप्यपमानितेव वनिता सन्त्यज्य दूरं गता_ सत्यात्रप्रतिपादितेव वसुधा नो क्षीयते शर्वरी।। (३।१८१) किविक्रमादित्य द्वारा अपनी प्रतिभा का अद्भुत सम्मान दिये जाने पर उन्होंने यह पद्य सम्राट् को लिखकर भेजा था नाकारमुद्वहसि नैव विकत्थसे त्वं किया कि मि दित्सां न सूचयसि मुञ्चसि सत्फलानि। लिम मियान निःशब्दवर्षणमिवाम्बुधरस्य राजन संलक्ष्यते फलत एष तव प्रसादः।। (राज. ३२५२) राजा बन जाने पर मातृगुप्त ने कवि भर्तृमेण्ठ को अपनी राजसभा में सम्मानित किया। म.म.पी.वी. काणे का मत है कि सम्राट्, कवि और आचार्य मातृगुत एक ही व्यक्ति सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि हैं और उनका समय विक्रम की सातवीं शताब्दी है। कौसांबी ने उनका काल सातवीं शताब्दी विक्रम के पूर्वार्ध में संभावित किया है। MSFIELTS पास विद्याकर ने (सु.र.को.-१४६६) मातृगुप्त के नाम से निम्नलिखित कारुणिक पद्य उद्धृत किया है, यद्यपि यही पद्य श्रीधर ने (सदुक्ति.- २१८३) श्रीहर्ष-प्रणीत बताकर उद्धृत किया है, जिनकीपर काका काकी मालगिरह को ये कारुण्यपरिग्रहादपणितस्वार्थाः परार्थान प्रति - POPxo/ प्राणैरप्यपकर्वते व्यसनिनस्ते साधवो दरतः। APPLORE PAHEEP BP विद्वेषानगमादनर्जितकपो रुक्षो जनो वर्तते चक्षुः संहर वाष्पवेगमधुना कस्याग्रतो रुद्यते ।। कल्हण ने मातृगुप्त के जीवन की जिन विकट परिस्थितियों का विवरण दिया है, उनको देखते हुए यह मातृगुप्त-प्रणीत हो- यह मानना सुसंगत लगता है।

मञ्जीर

मञ्जीर नामक कवि का भी उल्लेख कुन्तक ने ‘वक्रोक्तिजीवित’ में मातृगुप्त के साथ करते हुए उनके सौकुमार्य और वैचित्र्य गुणों से संवलित काव्य की सराहना की है। मञ्जीर कवि कुन्तक के पहले हो चुके थे - इससे अधिक उनके विषय में कोई ज्ञान नहीं है। वल्लभदेव ने ‘सुभाषितावली’ (२०२६) में उनका यह पद्य उद्धृत किया है - काकी अन्यतो नय मुहूर्तमाननं चन्द्र एष सरले कलामयः। पाएको ति पत्तालगा। मा कदाचन कपोलयोर्मलं नाह सक्रमय्य समतां स नेष्यति।। SIR 55 लाडका - 15 नायक किसी रमणी से कहता है- हे सरले, कलामय चन्द्रमा उग आया। तुम अपना मुख दूसरी ओर घुमा लो, कहीं ऐसा न हो कि वह अपने कलंक का मल तुम्हारे निर्मल कपोलों में संक्रान्त करके उन्हें अपने समान ही बना डाले। मिला शव काशिमा किन निश्चय ही कुन्तक द्वारा दिये गये परिचय के अनुसार मञ्जीर लालित्य और सौकुमार्य के श्रेष्ठ कवि रहे होंगे। कामना- सापट समापिसन्धानका कार्य

भवभूति

भवभूति मायामार्ग प्राविधिक विकास र भवभूति की रूपकत्रयी तो विश्वविश्रुत है, पर यह भी असंदिग्ध है कि भवभूति की काव्यप्रकृति प्रगीतात्मक अधिक थी और समय-समय पर अपने द्वारा रचे हुए मुक्तकों को १. सुभाषितरत्नकोशा, भूमिका। ५३० काव्य-खण्ड उन्होंने यथास्थान अपने तीनों रूपकों में सन्निविष्ट कर लिया होगा। साथ ही इसके अतिरिक्त बहुसंख्य स्फुट पद्य अवश्य ही ऐसे भी रहे होंगे, जो उनके तीनों रूपकों में भी नहीं हैं। इसीलिये भवभूति के स्फुट पद्य सुभाषितसंग्रहों में बहुधा उद्धृत हैं, उनमें अनेक ऐसे हैं, जो उनकी नाट्यकृतियों के अतिरिक्त हैं। BF संस्कृत के प्राचीनतम सुभाषितसंग्रह विद्याकरकृत ‘सुभाषितरत्नकोश’ में भवभूति के ४४ पद्य उद्धृत हैं, इनमें से पाँच ऐसे हैं, जो उनके तीनों रूपों में से किसी में भी नहीं मिलते। इन पद्यों के काव्यबंध में भवभूति की प्रतिभा का प्रकर्ष व्यक्त हुआ है। इनमें से यह पद्य वसंतवर्णन का है- पाकिह रिकको मायावती उत्फुल्ला नवमालिका मदयति घ्राणेन्द्रियाह्लादिनी की माने जातं धूसरमेव किंशुकतरोराश्यामलं जालकम् । हाणामा आचिन्वन्ति कदम्बकानि मधुनः पाण्डूनि मत्तालयः । स्त्रीणां पीनघनस्तनेषु कणवान् स्वेदः करोत्यास्पदम् ।। (१८६) शार्ङ्गधर (१४६, ७४६, ७६१) भवभूति के नाम से तीन अतिरिक्त सुभाषित उद्धृत किये हैं। इनमें से कस्तूरी को पामरपुरी में सुगन्ध बहाने वाले समीर पर यह अन्योक्ति अच्छी बन पड़ी है - जीयक है कि कि का स्तमिति का का ॐ अलिपटलैरनुयातां सहृदयहृदयज्वरं विलुम्पन्तीम्। मृगमदपरिमललहरी समीर पामरपुरे किरसि।। (७६१) जल्हण की सूक्तिमुक्तावली में भवभूति का एक पद्य ग्रामजीवन पर है।

आनन्दवर्धन

ध्वन्यालोककार आनन्दवर्धन संस्कृत काव्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य के रूप में जाने जाते हैं। आनन्दवर्धन स्वयं सूचित करते है कि उन्होंने अनेक काव्यप्रबन्ध लिखे थे। चित्रकाव्य में रसभावादितात्पर्य से वस्तुविनिवेश की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं ‘अस्माभिरपि स्वेषु प्रबन्धेषु यथारसं दर्शितमेव’ (ध्वन्या. ३।४० पर वृत्ति)। स्तोत्रकाव्यों में आनन्द का देवीशतक तथा अभिनव के द्वारा (और स्वयं आनन्द द्वारा भी) सूचित धर्मोत्तरी पर विनिश्चयटीका के अतिरिक्त आनन्दवर्धन ने अनेक स्फुट पद्य भी लिखे होंगे। ध्वन्यालोकवृत्ति में उन्होंने स्वयं अपने कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। जैसे अप्रस्तुतप्रशंसा का यह उनका स्वरचित उदाहरण कि कीमत की 6 मसिन ਨਿਰਮਾਣ ਚ ਜੀਣ अमी ये दृश्यन्ते ननु सुभगरूपाः सफलता भवत्येषा यस्य क्षणमुपगतानां विषयताम्। सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि निरालोके लोके कथमिदमहो चक्षरधना MDRIFE सामान कि समं जातं सर्वैर्न सममथवान्यैरवयवैः ।। (ध्वन्या. ३।४० वृत्ति) की यहाँ नेत्रों के विषय में कवि कहता है- शरीर के शेष अवयव सुन्दर तो हैं, पर इनके सौन्दर्य की सफलता तभी है, जब ये नेत्रों के विषय बनें- देखे जा सकें। पर इस अंधकार भरे संसार में तो नेत्र भी देह के शेष अवयवों की भाँति हो गये, अथवा शेष अवयवों से भी गये बीते होकर रह गये हैं। यह अन्धकार का वर्णन हो सकता है, या अन्धे व्यक्ति की उक्ति। ही इसी प्रकार विरोधालंकार और अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यध्वनि के सांकर्य के उदाहरण में भी आनन्दवर्धन ने अपना यह अत्यन्त रमणीय पद्य दिया है – मी लामाला या व्यापारवती रसान रसयितुं काचित कवीनां नवा दृष्टिर्या परिनिष्ठितार्थविषयोन्मेषा हि वैपश्चिती। ते द्वे अप्यवलम्ब्य विश्वमनिशं निर्वर्णयन्तो वयं श्रान्ता नैव, च लब्धमब्धिशयन त्वद्भक्तितुल्यं सुखम् ।। (ध्वन्या. ३४३ की वृत्ति में): (Sat"आनन्दवर्धन का देवीशतक जितना ही क्लिष्ट चित्रकाव्य है, उनके स्फुट सुभाषित उतने ही सरल और मर्मावगाही हैं। वस्तुतः उनके काव्यजगत् का प्रसार बड़ा दूरगामी है। उन्होंने प्राकृत भाषा में ‘विषमबाणलीला’ काव्य लिखा था, जिसका एक उदाहरण उन्होंने अर्थान्तरसमितवाच्यध्वनिनिरूपण में द्वितीय उद्योत में दिया है (ताला नाअंति गुणा.-) तथा एक अन्य उदाहरण इसी उद्योत में उपमाध्वनि के निरूपण में दिया है। शार्ङ्गधर ने इनकी दो अन्योकिक्तयां उद्धृत की हैं। (६०६, ६२०)। एक आलंकारिक आचार्य के रूप में आनन्दवर्धन जितने बड़े विचारक और व्याख्याकार हैं, कवि के रूप में भी वे वैसे ही महान् है। पर राम के कारणानक पिजा EPREETE पलाय

वागुर

महाकवि अभिनन्द ने कवि वागुर की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘निष्णातः कविकुञ्जरेन्द्रचरिते मार्गे गिरां वागुरः।" इस प्रशस्ति-पद्य में वागुर का उल्लेख योगेश्वर के पहले तथा बाण के पश्चात् किये जाने से अनुमान होता है कि वागुर कवि सातवीं से नवम शताब्दी के बीच हुए होंगे। उनके संबंध में और कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। भागुर अथवा वैयाकरण भागुरि से उनकी अभिन्नता अनुसंधेय है। १. सुभाषितरत्नकोश- १६६E २. आगे ‘योगेश्वर’ शीर्षक भी द.. ५३२ कायम सुभाषितरत्नकोष में वागुर के कुल चार पद्य मिलते हैं सदुक्तिकर्णामृत में एक। इन पद्यों के अवलोकन से वागुर निसर्ग के सौन्दर्य तथा भारतीय जनजीवन का स्वाभाविक चित्रण करने वाले कवि के रूप में हमारे समक्ष उभरते हैं। वे लोगों की मनोवृत्तियों पर अच्छा कटाक्ष करते हैं। शरवर्णन के प्रसंग में विद्याधर ने उनका यह पद्य उद्धृत किया की कि आढ्यान्निवापलाभो निकेतगामी च पिच्छिलः पन्थाः। द्वयमाकुलयति चेतः स्कन्धावारद्विजातीनाम् ।। (२६१) कि वर्षा का कीचड़ अभी सूखा नहीं है और पितृपक्ष आ पहुँचा। ऐसे में ब्राह्मणों का चित्त दोलायमान है, कीचड़ भरे मार्ग पर चलने में घबराते भी हैं, और धनी व्यक्ति से तर्पण की दक्षिणा का लाभ भी उन्हें खींचता है। वागुर का धान कूटती हुई ग्रामवधू का यह मनोहर वर्णन भी पठनीय है - क्वणद्वलयसन्ततिक्षणमुदञ्चिदोष्कन्दली गलतूपटसमुन्मिषत्कुचतटीनखाङ्कावली। कराम्बुजधृतोल्लसन्मुशलमुत्रमन्ती मुहुः ) प्रलम्बिमणिमालिनी कलमकण्डनी राजते।। (सुभा.र.को.- ११८२) | धान कूटती नायिका का हाथ उठाना, उससे कंगनों की खनखनाहट, उसका आँचल ढलकना, मणिमाला का झूलना - इन सब क्रियाओं के अनुरूप गतिशील पदावली, पांचाली रीति तथा पृथ्वी छन्द का चयन वागुर के कुशल कवित्व का परिचायक है। लोकजीवन के चितेरे के रूप में वे योगेश्वर आदि महाकवियों के पथप्रदर्शक प्रतीत होते हैं।

प्रद्युम्न

जल्हण द्वारा उद्धृत पद्य में राजशेखर ने गणपति आदि के साथ प्रद्युम्न कवि का नाम भी सुरभारती के श्रेष्ठ कवियों में परिगणित किया है। राजशेखर के अनुसार प्रद्युम्न ने नाटकों की रचना की थी। इसके साथ ही राजशेखर ने प्रद्युम्न की पद्यरचना को प्रद्युम्न (कामदेव) के ही समान मनोहर बताया है। प्रद्युम्न का समय दसवीं शताब्दी के पहले माना जा सकता है। IFP-शीम _ विद्याकर ने सुभाषितरत्नकोष में प्रद्युम्न के तीन पद्य उद्धृत किये हैं, पर इनमें से एक पद्य अर्जुनवर्मदेव द्वारा स्वीकृत अमरुशतक के पाठ में भी मिलता है। श्रीधर तथा प्रद्युम्नानापरस्येह नाटके पटवो गिरः। प्रद्युम्नानापरस्येह पौष्पा अपि शरा खराः ।। सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि वल्लभदेव ने भी प्रद्युम्न का एक-एक पद्य उद्धृत किया है। कुल मिलाकर प्रद्युम्न की सरस कविता के इने-गिने नमूने ही हमारे पास इन छिटपुट मुक्तकों के रूप में अवशिष्ट हैं। उदाहृत पद्यों से प्रद्युम्न अपने नाम के अनुरूप शृंगार और प्रणय के कवि प्रतीत होते हैं। तथापि वल्लभदेव ने प्रद्युम्न का जो एक पद्य उद्धृत किया है, उसमें दारिद्र्यजन्य विडम्बना को अभिव्यक्ति दी गयी है - या शिरा- दारिद्रयानलसन्तापः शान्तः सन्तोषवारिणा। जल निगा ; मा का याचकाशाविधातान्तहिं को नाम पश्यतु ।। म अशा कारि JIE काकी: HTTE न जाने कि

केशट

दसवीं शताब्दी के सुकवि वसुकल्प ने अपनी एक कविप्रशस्ति में बाण, केशट, योगेश्वर तथा राजशेखर को अपने आदर्श कवियों के रूप में परिगणित किया है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि केशट संभव है योगेश्वर के कुछ पहले आठवीं-नवीं शताब्दी के लगभग हुए होंगे। सूक्तिमुक्तावली में केशट के स्थान पर इस कवि का नाम केटस उल्लिखित है तथा कहीं-कहीं केशर और केशव भी पाठ मिलता है। योगेश्वर अथवा अभिनन्द जैसे महाकवि केशट के प्रशंसक रहे हैं। विद्याकर ने केशट के कुल दस पद्य उदाहृत किये हैं तथा श्रीधर ने उनीस । निश्चय ही काव्याभिव्यक्ति के परिपाक और प्रौढि में केशट बाण, योगेश्वर और राजशेखर की कोटि में आते हैं, पर इसके साथ ही केशट ने अपने आपको एक लोकजीवन के अंतरंग चितेरे के रूप में भी स्थापित किया है। वे मानवीय संबंधों की गहराई में उतर कर व्याख्या कर सकते हैं, सामान्यजन के जीवन को उन्होंने निकट से देखा है। विद्याकर, जल्हण, वल्लभदेव तथा शाजधर द्वारा उद्धृत उनका यह पद्य देखें - काही मिलावर आयाते दयिते मरुस्थलभुवामुल्लङ्घ्य दुर्लङ्थ्यता निका ति ज गेहिन्या परितोषवाष्पतरलामासज्य दृष्टिं मुखे। दत्वा पीलुशमीकरीरकवलान् स्वेनाञ्चलेनादरा- सातारा सामान न दामृष्टं करमस्य केशरसटाभारावलग्नं रजः।।जा की मरुस्थल की अलंध्य दूरी पार करके बड़े दिनों बाद प्रवासी प्रिय घर लौट कर आया है। गृहिणी ने उसे संतोष और अश्रु से तरल दृष्टि से निहारा और फिर जिस ऊंट पर बैठकर प्रिय आया था, उसके आगे पीलु, शमी और करीर के कौर डाले, फिर उसकी केशरसटाओं में लगी धूल अपने आँचल से सादर पोंछने लगी। प्रिय के आगमन से जनित उल्लास का नारी की ऐसी परोक्षप्रिय चेष्टाओं से ऐसा सूक्ष्म अंकन दुर्लभ ही है।काव्य-खण्ड EY ऐसा प्रतीत होता है कि काव्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्यों की दृष्टि में केशट का काव्य आया था। मम्मट ने काव्यप्रकाश में केशट का नामोल्लेख किये बिना दो पद्य उनके उद्धृत किये हैं, जो विद्याकर ने केशटकृत सूचित किये हैं (सु.र.को १५१०, १६४०)। निश्चय ही केशट अपनी अभिव्यक्ति की मौलिकता तथा वस्तु की नवीनता के द्वारा अलोकसामान्यप्रातिभ विशेष को प्रकट करते हैं। श्रीधर द्वारा उदाहृत पद्यों में केशटकृत पाँच पद्य स्तुतिपरक हैं, पर इनमें भी केशट देवता की अपनी कल्पना से नयी ही छवि उकेरते हैं। इसके साथ ही जीवन-सागर में गहरा गोता लगाकर सूक्तिरत्न निकाल लाने की केशट की क्षमता भी प्रभावकारी है। अनेक इतर उदात्त सूक्तिमय पद्यों के अतिरिक्त विद्याकर और श्रीधर ने तो ‘अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्’- इत्यादि प्रख्यात सूक्ति को भी केशटकृत बतलाया है।

गणपति

राजशेखर ने गणपति की संस्कृत के सोलह उत्तम कवियों में गणना की है। जल्हण द्वारा सूक्तिमुक्तावली (४७२) में उद्धृत राजशेखर के पद्य से यह भी विदित होता है कि गणपति ने ‘महामोह’ नामक काव्य रचा था। गणपति के कतिपय पद्य सूक्तिमुक्तावली, काव्यमीमांसा, सुभाषितावली, सदुक्तिकर्णामृत आदि में उद्धृत है। गणपति का समय दसवीं शताब्दी के पूर्व हो सकता है। जल्हण ने गणपतिकृत गणेशवन्दना का निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है, जिसे कविनाम का निर्देश न करते हुए राजशेखर तथा वल्लभदेव ने भी उदाहृत किया है काळ कापायाद् गजेन्द्रवदनः स इमां त्रिलोकी पटली नाही तयार के मीरचालक पना यस्योद्गतेन गगने महता करेण। ति कमाल ती कि मूलावलग्नसितदन्तबिसाकुरेण त्या का मामला कि नालायितं तपनबिम्बसरोरुहस्य। किणार यहाँ गणेश की सूंड़ को सूर्यरूपी रक्तकमल की नाल और उनके दाँतों को उसके बिसांकुर बताकर कवि ने कल्पना के विराट् विश्व की झलक दी है। इसी प्रकार कल्पना का वैचित्र्य श्रीधर द्वारा उद्धत एक पद्य में गणपति ने विशेष रूप से प्रकट किया है, जहाँ चन्द्रमा को चिकित्सक, उसकी कला को चिकित्सक की शलाका और आकाश को दृष्टिदोष से पीड़ित रोगी बताया गया है कि कि कित्ता ए का शिकार विगाढदोषं तिमिरं निरस्यता किंमछ क्रमेण विद्ध्वाग्रवलाशलाकया। चिकित्सकनेव विलोकनयम HिREE TRE FIRSITE पुनर्नमश्चक्षरिवेन्दना कृतम्।। (सदक्ति. ३६३) ROBOTRAF BIDO सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि ५३५ श्रीधर ने ही एक अन्य पद्य (७५४) विज्जा (विद्या) तथा गणपति दोनों की संयुक्त रचना बताकर उद्धृत किया है। सम्भव है कि विद्या कवयित्री तथा कवि गणपति आठवीं शताब्दी के उत्तरार्ध या नवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में एक ही समय विद्यमान रहे हों। इस पद्य में प्रोषितभर्तृका का एक रोचक संवाद उपनिबद्ध किया गया है।

योगेश्वर

सुभाषितसंग्रहों में उद्धृत पद्यों के आधार पर अपने कृतित्व की उत्कृष्टता के कारण सर्वाधिक चर्चित होने वाले कवि योगेश्वर हैं। स्वतन्त्र रूप से उनकी कोई काव्यकृति भले ही न बची हो, पर अपने स्फुट श्लोकों के कारण ही वे संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ महाकवियों की पहली पांत में गिने जा सकते हैं। श्री दामोदर कोसांबी ने योगेश्वर का समय नवीं शताब्दी के आसपास निर्धारित किया है तथा उन्हें बंगाल के पालवंशीय राजाओं की राजसभा का कवि माना है। प्रो. इंगाल्स भी कोसांबी के मत से सहमत हैं। श्री वार्डर ने योगेश्वर का समय ८०० ई. के कुछ पश्चात् माना है तथा उनके चन्द्रराजलेखा के कर्ता बौद्ध कवि योगेश्वर से अभिन्न होने की सम्भावना प्रकट की है। चन्द्रराजलेखा काव्य मूल संस्कृत में लुप्त है, इसका तिब्बती भाषा में अनुवाद मिलता है। नवम शताब्दीके महाकवि अभिनन्द ने योगेश्वर की प्रशंसा की है तथा भोज और राजशेखर ने अपने ग्रन्थों में योगेश्वर के मुक्तक काव्य से अनेक अंश उद्धृत किये हैं। _ विद्याकर ने अपने ‘सुभाषितरत्नकोष’ में योगेश्वर के नाम से चौबीस पद्य उद्धृत किये हैं तथा इनके अतिरिक्त बारह पद्य ऐसे उद्धृत किये हैं, जिनके साथ योगेश्वर का नाम नहीं है, पर अन्य सुभाषित संग्रहों में ये ही पद्य योगेश्वरकृत बताये गये हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’ में श्रीधर ने योगेश्वर के पचास पद्य प्रस्तुत किये हैं, जिनमें से लगभग बाईस पद्य सुभाषितरलकोष में भी हैं। जल्हण, वल्लभदेव तथा शाङ्गधर ने भी अपने सुभाषितसंग्रहों में तीन-तीन या चार-चार पद्य योगेश्वर के उद्धृत किये हैं। इसके साथ ही योगेश्वर के अनेक पद्य उस समय लिखे गये लक्षणग्रन्थों में लक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। विद्याकर द्वारा उद्धृत एक पद्य में योगेश्वर ने अपने को बाण, भवभूति, कमलायुध, केशट तथा वाक्पतिराज के पद्य का अनुगामी बताया है (सु.र.को.- १७३३, सदुक्तिकर्णामृत ५।२६।४ में यह पद्य अभिनन्द के नाम से उद्धृत है।) स्वयं अभिनन्द योगेश्वर की कविता से अभिभूत हैं, और योगेश्वर के कृतित्व का निजी वैशिष्ट्य रेखांकित करते हुए वे कहते तातः सृष्टिमपूर्ववस्तुविषयामेको नियूंढवान् ।। त्या निष्णातः कविकुजरेन्द्रचरिते मागें गिरां वागुरः। १. इंडियन काव्य लिटरेचर : ए.के. वार्डर, भाग-५, पृ. ५३-५४ कि काव्य-खण्ड शानियत जाए कि निजि रेवाविन्ध्यपुलिन्दपामरवधूभूगोलझञ्झानिल- नामा FARE गण प्रायेऽर्थे वचनानि पल्लवयितुं जानाति योगेश्वरः।।। का निहा

  • (तात (बाण ?) नाम के कवि ने अकेले ही अपूर्व काव्यसृष्टि की, वागुर कवि भी वाणी के मार्ग पर कविकुंजर की भाँति विचरण करने में निष्णात हुए। पर नर्मदा के तट पर विन्ध्य के अंचल में रहने वाले पुलिंदों और पामरों की वधुओं के विषय में धरती पर बहते झंझानिल के समान वचनवितान प्रस्तुत करना तो केवल योगेश्वर ही जानते हैं।)
  • योगेश्वर के कुल मिला कर सत्तर पद्य उक्त सुभाषितसंग्रहों में से एकत्र हो पाये हैं। किन्तु इतने से पद्यों से ही योगेश्वर का अत्यन्त विस्तीर्ण काव्यफलक हमारे सामने खुलता है। उन्हें भारतीय जनजीवन का बड़ा विशद और गहन अनुभव था, जिसकी अनेक छवियाँ उन्होंने सूक्ष्म पर्यवेक्षण के साथ अपने पद्यों में उकेरी है, विशेषतः जैसा अभिनन्द या भवानन्द की प्रशस्ति में कहा गया है, वे लोकजीवन के कुशल चितेरे हैं; भीलों, शबरों और पुलिंदों के बीच रह कर जैसे उन्होंने देखे परखे यथार्थ को ही चित्रित किया है। इसके साथ ही विभिन्न ऋतुओं और ऋतुचक्र के विपरिवर्तन से भारतीय जनजीवन में होती उथल-पुथल और भारतीय वसुन्धरा का बदलता चोला भी योगेश्वर ने बड़ी पैनी दृष्टि से उजागर किया है। योगेश्वर के उपलब्ध ७० पद्यों में चार राजवर्णन के हैं, बारह शिवपार्वतीविषयक, एक कविप्रशस्ति का, एक शिव और विष्णु के देहार्थ का तथा एक अभिसारिका के वर्णन का है। शेष पद्यों में महाकवि योगेश्वर ने ग्रामांचल के जनजीवन को प्रस्तुत करते हुए एक लोककवि के रूप में अपनी पहचान बनायी है। योगेश्वर ने संस्कृत कविता पर अपनी विशिष्ट शैली की छाप छोड़ी है। इस शैली में स्पष्ट रूप से कथ्य को प्रकट करने की सहज क्षमता है, कथ्य के अनुरूप भाषा की संरचना है, अपना स्वयं का मुहावरा गढ़ने की सामर्थ्य है और इन सबके साथ अन्तर्दृष्टि तथा प्रतिभा का परिस्पन्द तो है ही। उनकी स्फीत वाग्धारा ने भारतीय मध्यमवर्ग या निम्नवर्ग के पारिवारिक जीवन की विडम्बना और त्रास को जितनी मार्मिक अभिव्यक्ति दी है, उतनी सहजता से उन्होंने शबरों और पुलिंदों के जीवन के उत्सव और आनन्द का रोमांचनिर्भर वर्णन भी किया है।
  • योगेश्वर शिव के उपासक थे। जिन पद्यों में उन्होंने शिव, पार्वती और शिवगणों को विषय बनाया है, उनमें भी अपने आराध्य को उन्होंने पारिवारिक भावों में रंग डाला है। इन पद्यों में कहीं तो पार्वती माता ने पुत्र को जन्म दिया- इस समाचार से प्रफुल्लित भृगरिटि और चामुंडा का उन्मत्त नर्तन और ‘अन्योन्यप्रचलास्थिपञ्जररणत्ककालजन्मा रवः’ का सुभाषितरत्नकोष- १६६EI श्रीधर ने सदुक्तिकर्णामृत में इसी पद्य को कुछ पाठान्तर के साथ भवानन्द के नाम से उद्धृत किया है। प्रथम पाद में तातः के स्थान पर ‘चाणः’, द्वितीय में ‘बागुरः के स्थान पर ‘वा गुरुः’ और तृतीय पाद में विधा विन्ध्यपुलिन्दपामर - पाठ है।। सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि ५३७ अनुरणन है (सु.र.को.-७१, सदुक्ति.-१५८, सरस्वतीकण्ठाभरण-पृ. ५१०), तो कहीं शंकर मगन होकर पार्वती को वक्त्रमुरज और ताली के साथ नृत्य सिखा रहे हैं (सु.र. को.- ५६, सदुक्ति.- २६), कहीं शंकर के ताण्डव के समय ब्रह्माण्ड में स्थान कम पड़ने पर नन्दी दिक्पतियों, पृथिवी, पर्वतों, ब्रह्मा आदि के लिये उत्सारणा का घोष कर रहे हैं, कहीं पर भंगी अपने स्वामी का परस्पर विरुद्ध विचित्र चरित्र देखकर दुबला रहे हैं (सु. र को-७४, सदुक्ति.- ६३, तथा सु.र.को.- १०३, सदुक्ति. १५१, सरस्वतीकण्ठा. पृ. ३४०)। योगेश्वर ने कहीं पर विंध्य के काननों के अगम विस्तार को समेटा है, तो कहीं उनमें जलती भयानक दावाग्नि को (सु.र.को.-२२१, सदुक्ति. १२६१ तथा सु.र.को. २०७). तो कहीं पर ताप E FITE शाम सामील शिव जी अग्रे तप्तजला नितान्तशिशिरा मूले मुहुर्बाहुभि- पाच कि सकता कला शिका जिक्मथ्योपरतप्रपेषु पथिकैमर्गिषु मध्यन्दिने। यानि भारती तितक जज शिक आिधाराः प्लुतबालशैवलदलच्छेदावकीर्णोर्मयः कि सिटी शिनवर मिति न पीयन्ते हलमुक्तमग्नमहिषप्रक्षोभपर्याविलाः।। (सु.र.को. -२०६) __ दोपहर के समय प्यासे पथिक मार्ग में प्याऊ खोज रहे हैं, प्याऊ बन्द पड़ी है। तब वे हाथों से काई हटा-हटा कर तालाब का पानी पी रहे हैं जो ऊपर-ऊपर से गर्म और नीचे शीतल है, जिसकी लहरें सेवार से ढंकी हैं, और जो हल से छोड़ दिये गये भैंसों के धंसने से मटमैला है। योगेश्वर ने अनेक पद्य गाँव के जीवन और खेत-खलिहानों में चलने वाली गतिविधियों पर लिखे हैं। कहीं वे बिजूके से डर-डर कर आगे बढ़ती कोदों के दाने चुगती कबूतरों का सहज चित्र अंकित करते हैं (सु.र.को.- २६४, सदुक्ति. १२८१), तो कहीं पकते हुए घान की सुगन्ध से काव्य को सुरभित करते हैं (सु.र.को. २६१)। घान कटने के बाद किसानों के जीवन में आये हर्षोल्लास का तो उन्होंने बड़ा रमणीय चित्रण किया है। इस समय खेत के मजदूरों से आते-जाते पथिक तनिक सा पुआल माँगते हैं, तो मजदूर भी देने के गर्व से फूल कर कुप्पा हो उठते हैं (सु.र.को.-२६७, सदुक्ति. १३२७)। दूसरी ओर एक मुट्टी पुआल की आस में कोई पथिक हलवाहे की ऐसी स्तुति करता है, जैसी किसी राजा-महाराज से की जा रही हो -" भद्रं ते सदृशं यदध्वगशतैः कीर्तिस्तवोद्गीयते स्थाने रूपमनुत्तमं सुकृतिनो दानेन कर्णो जितः। श्रीन इत्यालोच्य चिरं दृशा कृपणया दूरागतेन स्तुतः कि जीए पान्थेनैकपलालमुष्टिरुचिना गर्वायते हालिकः ।।होणार नौ -शिक पिए मणमा कोक्ति की सु.र.को.-३०५, सदुक्ति, १३३८, सरस्वतीकण्ठाभरण ३ शाधर, ५८१, सूक्तिमुक्तावली ६६२ आदि अनेक स्थलों पर उद्धृत होने से इस पद्य की लोकप्रियता प्रमाणित होती है। ५३८ वस्तुतः योगेश्वर संस्कृत के उन बिरले रचनाकारों में से हैं, जिनकी भाषा और अभिव्यक्ति तो बड़ी परिष्कृत और मौलिक है, पर जिन्होंने चित्रण अभिजात वर्ग का न करके ग्रामीण जीवन का किया और उस जीवन के रस, राग, रंग और करुणा को काव्य का विषय बनाकर संस्कृत कविता में नये क्षितिज खोले। खेत में पकते तिल, सरसों के दानों से झुकते पौधे, अलाव के आसपास निरर्थक विवाद करते जाड़े में ठिठुरते पथिक (सु.र. को. ३१५, सदुक्ति. १३५०), तुषार से भरी हवा में बार-बार बुझती आग को लकड़ी से कुरेदते खेत के मजदूर, उस आग में आ गिरी सरसों के फलियों का चटकना- इस प्रकार के चित्रों में वे गाँव के वातावरण को साकार कर देते हैं (सु.र.को. ३१८)। योगेश्वर ने गाँव के यथार्थ के वास्तविक चित्र ही नहीं खींचे हैं। उन्होंने कल्पनाशीलता और सौन्दर्यबोध से नैसर्गिक सौन्दर्य को और भी निखार दिया है। विशेष रूप से विन्ध्याचल को उन्होंने कल्पना के अनूठे रंगों से रंगा है। कहीं धार्मिक पर्जन्य पवित्र होकर विन्ध्याद्रि रूपी महालिंग का मेघ के पात्र में जल भरकर अभिषेक कर रहा है(स.र.को. २५६), तो कहीं मेघ रूपी महामार्जार बिजली की जिस्वा से चाट-चाट कर व्योम के कटाह से चाँदनी रूपी क्षीर पी रहा है (वही-२५७)। रूपक, उपमा आदि की संसृष्ट छटा तथा प्रसादगुण के लिये योगेश्वर का यह पद्य भी भोज ने सरस्वती कंठाभरण में तथा पांचाली रीति के प्रयोग के लिये साहित्यदर्पण में विश्वनाथ ने उद्धृत किया है, विद्याकर तथा श्रीधर ने तो इसे अपने संग्रहों में रखा ही है कि जाट कि FIRES किशान की अथमुदयतिमुदभजनः पद्मिनीना शव को किसी सचिन- मुदयगिरिवनालीबालमन्दारपुष्पम् । गा नियामिति निष्ट निजि विरहविधुरकोकद्वन्द्वबन्धुर्विभिन्दन् पिल। जित र गितकार जियो किन कुपितकपिकपोलकोडताम्रस्तमांसि ।। जय स क किन __ इस कल्पनाशीलता तथा सौन्दर्यबोध और अर्थ की वक्रता के स्थान पर आधुनिक समीक्षकों ने योगेश्वर को उनका भारतीय जनजीवन के व्यापक अनुभव और भारतीय समाज के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के कारण प्रशंसनीय माना है। निश्चय ही योगेश्वर अपने इस गुण के लिये स्मरणार्ह हैं। अनेक पद्यों में वे आम लोगों के व्यवहार और जीवनसंघर्ष का आँखों देखा सा सजीव विवरण देते हैं। घर वर्षा के समय सब ओर से चू रहा हो, तो दरिद्र गृहिणी घर को बचाने के लिये क्या-क्या करती है- इसका चित्रण योगेश्वर ने किया है सक्तून शोचति सम्प्लुतान् प्रतिकरोत्याक्रन्दतो बालकान्त free प्रत्युत्सिञ्चति कपरेण सलिलं शय्यातॄणं रक्षति। गरी निना दत्वा मूर्धनि शीर्णशूर्पशकलं जीर्णे गृहे व्याकुला नाकाचार किं तद्यन्न करोति दुःस्थगृहिणी देवे भृशं वर्षति।। (सु.र.को. १३१२, सदुक्ति. २२४५, छंगदत्त के नाम से उद्धृत) 5 सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि ५३६ इसी प्रकार योगेश्वर ने पर्वतगुफा में चट्टान की बनी देवी को बलि चढ़ाकर, खेत के देवता को पेड़ के निकट खून के छींटे देकर बेल के कुप्पों में पुरानी मदिरा पीते और तुंबी की वीणा बजा-बजा कर गाते बर्बर शबरों का भी सूक्ष्म और यथार्थ चित्र अंकित किया है (सु.र.को. ११२१) _ वस्तुतः योगेश्वर संस्कृत कविता की एक विशिष्ट प्रवृत्ति के प्रतिनिधि कवि हैं। वे जनजीवन को अपने काव्य का विषय बनाने वाले परवर्ती संस्कृत कवियों के लिये प्रेरणा के स्रोत भी रहे हैं।

लक्ष्मीधर

लक्ष्मीधर भोज के समकालीन थे और उन्होंने ‘चक्रपाणिविजय’ महाकाव्य की रचना की थी। सुभाषितरतनकोष में उनके सोलह तथा सदुक्तिकर्णामृत में सत्रह स्फुट पद्य उद्धृत हैं, जिनसे स्पष्ट है कि उन्होंने महाकाव्य के अतिरिक्त अनेक मुक्तकों की भी रचना की थी। उदाहृत पद्यों में कुछ पद्य स्तुति के हैं, जिनसे कवि की शिव और गंगा पर प्रगाढ भक्ति प्रकट है तथा कृष्ण और बलराम की भी वन्दना उसने की है। पण्डितराज जगन्नाथ के पूर्व गंगा पर इतना भावपूर्ण और श्रद्धातिरेकमय काव्य संभवतः अन्य किसी कवि ने नहीं लिखा। इन पद्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि लक्ष्मीधर ने भी गंगालहरी की भाँति कोई स्तोत्र गंगा पर लिखा होगा। एक पद्य उदाहर्तव्य है -अत्तनिक ग म्भिक धर्मस्योत्सव वैजयन्ति मुकुटनग्वेणिगौरीपते स्त्वां रत्नाकरपनि जस्तुतनये भागीरधि प्रार्थये। त्वत्तोयान्तशिलानिषण्णवपुषस्त्वद्वीचिभिः प्रेङ्खत पनि विधि स्त्वत्राम स्मरतस्त्वदर्पितदृशः प्राणाः प्रयास्यन्ति मे। (सदुक्ति.- १७६, सु.र.को.- १६१३) कवि यहाँ भागीरथी से प्रार्थना करता है कि वह यी के जल में किसी चट्टान पर बैठा, उसकी लहरों के बीच, उसी का नाम जपता और उसी के प्रवाह को देखता हुआ प्राण त्याग दे। काली माता कालातीतज साताका लन जिला विकास का लक्ष्मीधर के बहुसंख्य पद्य शृंगारपरक हैं, जिनमें वाणी की वक्रता मन हरती है। श्रीधर ने तो उन्हें इसी आधार पर ‘वाणीकुटिल’ की उपाधि दी है। लक्ष्मीधर ने प्रणय के भाव को रसविभोर होकर चित्रित करते हुए इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है १. विवरण के लिये प्रस्तुत ग्रन्थ में महाकाव्य विषयक अध्याय द्र। PRE काव्य-खण्ड जाई हामीम वलितमनसोरप्यन्योन्यं समावतभावयोः सामान किन ना ती दिने पुनरुपचितप्रायप्रेम्णोः पुनस्त्रपमाणयोः पाताया इह हि निबिडब्रीडानगज्वरातुरचेतसा- नाली ही नवतरुणयोः को जानीते किमद्य फलिष्यति।। माया प्रेम की लुकाछिपी, लाज, मिलन की आतुरता और उसकी समग्र अनिर्वचनीयता को यहाँ लक्ष्मीधर ने अच्छी तरह व्यक्त किया है। लक्ष्मीधर का शिशिर के वर्णन का एक पद्य अपने सूक्ष्म पर्यवेक्षण, दीन जनों के प्रति सहानुभूति और विशाल दृश्यफलक को चित्रोपम शैली में समेट लेने के कारण बहुशः उद्धृत होता है - का साना कम्पन्ते कपयो भृशं जडकृशं गोजाविकं ग्लायति । श्वा चुल्लीकुहरोदरं क्षणमपि क्षिप्तोऽपि नैवोज्झति। शीतार्तिव्यसनातुरः पुनरयं दीनो जनः कूर्मवत् के स्वान्यङ्गानि शरीर एव हि निजे निस्नोतुमाकाङ्क्षति।। F_ इस पा को सुभाषितरत्नाकर, सदुक्तिकर्णामृत तथा भोज के सरस्वतीकण्ठाभरण में भी उद्धृत किया गया है। भोज ने इसे कालहेतुक जाति अलंकार का उदाहरण माना है। लक्ष्मीधर ने अनेक अन्योक्तियाँ भी लिखीं थीं। इनमें चातक तथा वडवानल पर उनकी दो सुन्दर अन्योक्तियाँ सुभाषितरत्नकोष में उद्धृत हैं। माग

भट्टेन्दुराज

भट्टेन्दुराज काव्यशास्त्र के अपने समय के सुप्रथित आचार्य भी थे और सुकवि भी। ये आचार्य अभिनवगुप्त के गुरु थे। ध्वन्यालोकलोचन की पुष्पिका में अभिनव ने अपने आपको ‘भद्देन्दुराजमतिसंस्कृतबुद्धिलेशः’ कहा है। इस दृष्टि से भट्टेन्दुराज का समय आनन्दवर्धन और अभिनवगुप्त के बीच दसवीं शताब्दी के लगभग माना जाता चाहिये। लोचन तथा अभिनवभारती में अभिनव ने भट्टेन्दुराज के अनेक हृद्य निरवद्य पद्य उद्धृत किये हैं, जिनसे इन्दुराज का अनुत्तम कवित्वप्रकर्ष प्रमाणित होता है। इनका निम्नलिखित पद्य तो अभिनव ने बड़े सराहना के भाव से दो बार उद्धृत किया है यद्विश्रम्य विलोकितेषु बहुशो निःस्थेमनी लोचने कहि सका कि विकाशा यद् गात्राणि दरगति प्रतिदिनं लूनाब्जिनीनालवत् । दूर्वाकाण्डविडम्बकश्च निविडो यत् पाण्डिमा गण्डयोः कृष्णे यूनि सयौवनासु वनितास्वेषैव वेषस्थितिः।। सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि कृष्ण युवा क्या हुए वृन्दावन की युवतियों का रंगढंग ही बदल गया है। रुक-रुक कर चितवनों में आँखें चंचल हो-हो पड़ती हैं, अंग कटे हुए कमलनाल से दिन पर दिन सूखते जा रहे हैं, और कपोलों पर दूर्वाकाण्ड का अनुकरण करने वाला गहरा पीलापन छाया हुआ है। उदाहृत पद्यों के अवलोकन से स्पष्ट है कि रमावेशविशद अभिव्यक्ति तथा तदनुकूल परिपाकवान पदावली और अलंकारों के यथोचित सनिवेश के कारण अपने कवित्व को भट्टेन्दुराज ने आचार्य-परम्परा में समादृत बनाया है। अभिनव ने तो उन्हें ‘विद्वत्कविसहृदयचक्रवर्ती बताते हुए उनके एक-एक पद्य में व्यंजना और शब्दचयन की साधुता पर विशद चर्चा की है। क्षेमेन्द्र ने औचित्यविचारचर्चा में भट्टेन्दुराज के दो अन्योक्तिपरक पद्य उद्धृत किये हैं, इनमें से एक मम्मट ने भी प्रस्तुत किया है। अभिनव ने नाट्यशास्त्र के सोलहवें अध्याय (काव्यलक्षण) के निरूपण में भट्टनायक के चार पद्य उदाहृत करते हुए लक्षणनिरूपण में अपने गुरु का दाय स्वीकार किया है। इन पद्यों से अनुभव होता है कि लालित्य, सौकुमार्य, मसृणता और आभिजात्य भट्टेन्दुराज के काव्य की संपदा है। ये विशेषतः प्रेम और शृंगार के भावों को बड़ी सटीक अभिव्यक्ति देते हैं। अतिशय नामक काव्यलक्षण के उदाहरण में अभिनव द्वारा प्रस्तुत उनका यह पद्य देखिये - 1 मा किया है कि ताका शिव का मान फी यावन्त्येव पदान्यलीकपिशुनैरालीजनैः पाठिता नधि कामापक जोग जाति प्रगति कत्तिावन्त्येव कृतागो द्रुततर व्याहृत्य पत्युः पुरः। काल प्रारब्धं परतो यथा मनसिजस्येच्छा तथा वर्तितुं प्रेम्णो मौग्ध्यविभूषणस्य सहजः कोप्येष कान्तः क्रमः।। झूठी चुगली लगाने वाली सखियों ने पति को उलाहना देने के लिये जो वाक्य सिखाये पढ़ाये थे, उनको मुग्धा नायिका ने पति के आगे झटपट कह डाला, और फिर मनसिज की इच्छा के अनुसार (प्रेम-भरा) व्यवहार करने लग गयी। सच है, भोलेपन से विभूषित प्रेम का ऐसा ही रमणीय क्रम होता है। अभिनव के अनुसार उत्तम पात्र की ईर्ष्या का वैशिष्ट्य यहाँ जिस प्रकार निरूपित किया गया है, उससे प्रत्येक पद में अलग ही कुछ अभिप्राय आ गया है। भावप्रवण अन्तर्दृष्टि, कल्पनाशीलता, भाषा की पकड़ और परिष्कृत अभिव्यक्ति के कारण भट्टेन्दुराज के ये गिने चुने पद्य भी संस्कृत-साहित्य के इतिहास में अनुपेक्षणीय हो गये हैं। इसके साथ ही व्यंग्य, विरूपण और विडंबना के भावों को भी भट्टेन्दुराज ने अच्छी अभिव्यक्ति दी है। शाङ्गधर ने उनके नाम से यह अन्योक्तिपरक पद्य उद्धृत किया है १. ध्वन्यालोक, लोचनसहित, सं.-डॉ. जगन्नाथ पाठक, पृ. ३६३ किमी २. वही, पृ. ८२, ४६८, २६७ तथा ३६३ द्र.। क म जा ली ५४२ काव्य-खण्ड की कही उदस्यांच्यैः पुच्छं शिरसि निहितं जीर्णकटिलं IPL या किमान एक कला शाम पायदृच्छाव्यापनद्विपपिशितलेशाः कवलिताः गुहागर्ने शून्ये सुचिरमुषितं जम्बुक सखे ।

  • किमेतस्मिन् कुर्मो यदसि न गतः सिंहसमताम् ।। (शा. १२१२) शिशः । (अपनी जीर्ण कुटिल पूँछ को तुम ऊपर उठाकर माथे तक पहुँचाते रहे, अपने आप मरे हुए हाथी के माँस के टुकड़े खाते रहे, सूनी गुफा में भी बहुत दिनों तक निवास करते रहे, फिर हे मित्र सियार, अब इसका क्या करें कि तुम सिंह की बराबरी पर न पहुँच पाये।)

धनिक

धनिककृत धनञ्जय के दशरूपक नामक सुप्रसिद्ध नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ की अवलोक-टीका प्रख्यात है। धनिक और धनञ्जय दोनों ही धारा में महाराज भोज की राजसभा के सम्मानित विद्वान थे। धनिक ने उक्त शास्त्रीय टीका के अतिरिक्त अनेक स्फुट पद्यों या स्वतन्त्र काव्यों की रचना की थी। इन्होंने अपने बनाये पद्य अवलोक में स्वयं उद्धृत किये हैं, तथा सुभाषितसंग्रहों में भी इनके बहुसंख्य पद्य मिलते हैं, जिनसे इनका सप्राण कवित्व प्रमाणित होता है। अवलोक में घनिक ने अपने बाईस पद्य उद्धृत किये हैं, जिनसे उनका शृंगारी कवित्व उजागर होता है। उनके पद्यों में भाषा की मसृणता तथा चाकचिक्य है, और नाट्यशास्त्र के आचार्य होने के कारण उन्होंने योषिदलंकारों, नायिकाओं के विभ्रम और विच्छित्ति का रमणीय चित्रण किया है। धनिक का मुग्धा नायिका की कटाक्षच्छटा का यह मुग्धभाव से विहित वर्णन दशरूपकावलोक तथा शार्ङ्गधर पद्धति दोनों में उद्धृत मिलता है जिशिकि RPF PEER कापलाई मार्फत उज्जम्माननमल्लसतकचतट लोलनमदभ्रलतं स्वेदाम्भः स्नपिताङ्गयष्टिविगलबीडं सरोमाञ्चया। धन्यः कोपि युवा स यस्य वदने व्यापारिताः साम्प्रतं मुग्धे मुग्धमहाब्धिफेनपटलप्रख्याः कटाक्षच्छटाः।। लाई सम्मान (शा.प.- ३४१७, दश.अङ्यारसं., पृ. ८) जि. अनुभावों के चित्रण में धनिक विशेष दक्ष हैं। उनका निम्नलिखित पद्य अवलोक में दो स्थलों पर- शृङ्गार के अंगों में भयन तथा प्रसादनोपायों के अन्तर्गत कोपभ्रंश के उदाहरणस्वरूप उद्धृत हैं -मनोलिक मार के पास तीन कि कहा कि कितनागीय अभिव्यक्तालीकः सकलविफलोपायविभव- तिला मामला श्चिरं ध्यात्वा सद्यः कृतकृतकसंरम्भनिपुणम्। कि सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि इतः पृष्ठे पृष्ठे किमिदमिति सन्त्रास्य सहसा कृताश्लेषं धूर्तः स्मितमधुरमालिङ्गति वधूम् ।। (दश. अड्यार सं., पृ. १२५, २३७) नायक का अपराध प्रकट हो गया था। नायिका को यह भी पता चल गया था कि वह झूठ बोलता रहा है। अब नायक नायिका को मनाने के लिये पहले तो बड़ी देर कुछ ध्यान लगाये रहा, फिर उसने नाटक किया- अरे ! तुम्हारे पीछे यह क्या है ? ऐसा अचानक कह कर उसने नायिका को ऐसा डरा दिया कि फिर उसे मधुर मुस्कान के साथ आलिंगन करना सम्भव हो गया।

वसुकल्प

वसुकल्प दसवीं शताब्दी में हुए। अनुमान है कि बौद्ध थे। श्रीधर द्वारा उद्धृत एक पद्य में वे अपने को बाण, केशट, योगेश्वर तथा राजशेखर के काव्यसौरभसंभार को लेकर वाणी की प्रगल्भता का अभ्यास करने वाला कवि बताते हैं - मागका बाणः प्राणिति केशटः स्फुटमसौ जागर्ति योगेश्वरः । गोमा कि प्रत्युज्जीवति राजशेखरगिरां सौरभ्यमुन्मीलति। की हापाक सपनामा येनायं कलिकालपुष्पधनुषो देवस्य शिक्षावशा- समापन कसान दाकल्पं वसुकल्प एव वचसि प्रागल्भ्यमभ्यस्यति।।माजिर 50 की कि - सदुक्ति. २१२८ किया कि कोसांबी का मत है कि वसुकल्प पालवंशीय राजा काम्बोज की राजसभा के कवि थे, क्योंकि उन्होंने इस राजा की प्रशस्ति में पद्य लिखे हैं। अपने एक पद्य में वसुकल्प ने नाग्ज्योतिष (आसाम) के सौन्दर्य की विशेष प्रशंसा की है। दीनाजपुर के एक शिलालेख के उल्लेख से राजा काम्बोज का समय दसवीं शताब्दी सिद्ध होता है। सुभाषितरत्नकोष में वसुकल्प के २५ तथा सदुक्तिकर्णामृत में २६ श्लोक उद्धृत हैं। ये अपने समय के बड़े लोकप्रिय कवि प्रतीत होते हैं। कल्पवसु, वायु तथा कल्पदत्त नाम से भी ये जाने जाते रहे। उदाहृत पद्यों में इन्होंने बुद्ध और शिव की स्तुति में श्रद्धा अर्पित की है तथा अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति में भी कुछ पद्य लिखे हैं। पर वसुकल्प ने उपर्युक्त आत्मपरिचय के अनुरूप शृंगार और सौंदर्य के प्रति सर्वाधिक अभिनिवेश प्रकट किया है। उनके काव्य में अलंकारों का यथास्थान विनिवेश रुचिकर है। चन्द्रमा के वर्णन में परंपरित रूपक का कुशल निर्वाह करते हुए वे कहते हैं - राशि सक्स सामान कि पालविका नीम कि १. द्र. सुभाषितरत्नकोष, भूमिका, पृ. ६ तथा पद सं. १०१६, १४४४ Arr. निमः । .प्रमिया काव्य-खण्डवानी शृङ्गारे सूत्रधारः कुसुमशरमुनेराश्रमे ब्रह्मचारी नारीणामादिदेवस्त्रिभुवनमहितो रागयज्ञे पुरोधाः। ज्योत्स्नासत्रं दधानः पुरमथनजटाजूटकोटीशयालु देवः क्षीरोदजन्मा जयति कुमुदिनीकामुकः श्वेतभानुः।। (सु.र.को. ८६७) ही कल्पनाओं की अनावश्यक बाजीगरी दिखाने से वसुकल्प नहीं चूकते। एक पद्य में चन्द्रमा को मकड़ी, उसकी किरणों को मकड़जाल, अंधकार को मक्खियों का झुण्ड और आकाश को उद्यान तथा संध्या को वे पल्लव बताते हैं (सु.र.को. ६५६)। अपने कतिपय पद्यों में वसुकल्प ने नैसर्गिक छवियों का अंकन किया है।

अभिनन्द

रामचरित महाकाव्य के कर्ता अभिनन्द के सुभाषित पद्य सुभाषितसंग्रहों में उद्धृत हैं। ये अभिनन्द कादम्बरीकथासार नामक काव्य के रचयिता इसी नामके कवि से भिन्न हैं। सुभाषितरत्नकोष में इनके नाम से उद्धृत दो पद्य (१२६५, १५५२) रामचरित महाकाव्य में मिलते हैं। कोसांबी के अनुसार अभिनन्द ने अपना साहित्यिक जीवन ८५० ई. के आसपास आरम्भ किया तथा दसवीं शताब्दी के अंत तक उनकी काव्ययात्रा प्रसक्त रही होगी।’ _उदाहृत पद्यों से अभिनन्द का गौडी तथा वैदर्भी दोनों रीतियों पर समान अधिकार प्रकट है। वसन्तवर्णन के पद्य में (सु.र.को. १७३) सरस प्रासादिक शैली का प्रयोग करते हैं, तो प्रावृड् के घटाटोप को व्यक्त करने के लिये गौडी रीति का - SEPTET विद्युद्दीधितिभेदभीषणतमः स्तोमान्तराः सन्तत-तता PER श्यामाम्भोघररोधसङ्कटवियद्विप्रोषितज्योतिषः। MP विस्छ कति नाकामा खद्योतानमितोपकण्ठतरवः पुष्णन्ति गम्भीरता PRICE खद्योतानमितोपकण्ठतरवः पुष्णन्ति गम्भीरता- मासारोदकमत्तकीटपटलीक्वाणोत्तरा रात्रयः।। ग्रामजीवन तथा वन्यपरिवेश के चित्रण की दृष्टि से अभिनन्द योगेश्वर की परम्परा के समर्थ कवि हैं। उनके ग्रामचित्रण में सहजता और बातावरण की सूक्ष्म पकड़ है। हेमंत में खेतखलिहान का दृश्य और तुषार के साथ-साथ कंडों की आग से उठती धूमावली से गाँव को घेरने वाले वलयों का उन्होंने चित्र अंकित कर दिया है- की तरिकाल कर लिया कि नई जानीक । मिकी MOB]: अफ शिकचार प्रालि १. अपने एक पद्य में अभिनन्द ने राजशेखर से प्रत्यक्ष साक्षात्कार होने का उल्लेख किया है (सु.र.को. १७१४, सदुक्ति-१४२२) सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि आभोगिनः किमपि सम्प्रति वासतन्ते सम्पन्नशालिखलपल्लवितोपशल्याः। ग्रामास्तुषारभरबन्धुरगोमयाग्नि धूमावलीवलयमेखलिनो हरन्ति ।। (सु.र.को. ३०३) * अभिनन्द के नीतिपरक पद्यों तथा अन्योक्तियों में भी उनकी शैली की मसणता तथा सारग्राहिता उतनी ही प्रभावकारी है, जितनी उनके शृंगारपरक पद्यों में रमणीयता। अभिनन्द सर्वाधिक प्रभावित अपने उन पद्यों में करते हैं जहाँ वे गाँव-देहात और खेत-खलिहान के वातावरण को साकार करते हुए जनजीवन की काव्यपरम्परा से जुड़ते हैं। इसके साथ विषयवस्तु कुछ भी हो, अप्रस्तुतविधान के विराट् जगत् से अभिनन्द की कल्पना सदैव उसे जोड़ती चलती है। शिशिरवर्णन का यह पद्य द्रष्टव्य है, जिसे हेमचन्द्र ने भी काव्यानुशासन में उद्धृत किया है - व्यथितवनितावत्रौपम्यं बिभर्ति निशापति गलितविभवस्या वाद्य द्युतिर्मसृणा रवेः। प्रधानाचा अभिनववधूरोषस्वादुः करीषतनूनपा दसरलजनाश्लेषकरस्तुषारसमीरणः।। (सु.र.को.-३१७) (चन्द्रमा अब व्यथित सुन्दरी के मुख के समान लगता है, सूर्य का तेज ऐसे ही फीका पड़ गया है, जैसे वैभव से च्युत हुए स्वामी की आज्ञा । कौड़े के पलके की आग तापते समय नयी बहुरिया के रोष सी मीठी लगती है और तुषारभरी हवा दुष्ट व्यक्ति के समागम सी क्रूर।) किसी निर्धन भिक्षुक का यह निर्वेदमय कथन, जिसे मम्मट ने काव्यप्रकाश में भी उद्धृत किया है, श्लेष के जटिल पर सफल निर्वाह के लिये उदाहरणीय है - या जमीन जनस्थाने भ्रान्तं कनकमृगतृष्णान्वितधिया - वचो वैदेहीति प्रतिपदमुदश्रु प्रलपितम् । कृतालङ्काभर्तुर्वदनपरिपाटीषु घटना भएका मयाप्तं रामत्वं कुशलवसुता न त्वधिगता।। ण दरिद्र व्यक्ति कहता है कि स्वर्गमृग की तृष्णा में जनस्थान (दण्डकारण्य का भाग, लोगों के बीच) भटकता-भटकता मैं राम वन गया। राम की तरह मैं भी ‘वैदेहि, वैदेहि’ यह पुकार करता रहा (वै- निश्चय ही, देहि- दीजिये), अलम्-(पर्याप्त) काभर्ता (बुरे स्वामी) की वदनपरिपाटी ताकता रहा (राम के पक्ष में लंकाभर्ता की वदनपरिपाटी पर बाणों का संधान)। फिर भी कुशलवसुता (सीता तथा कुशल वसुता-संपदा) मुझे न मिली। एक महाकाव्यकार तथा सरस रमणीय सूक्तिकार दोनों के रूप में अभिनन्द अभिनन्दनीय हैं। का काव्य-खण्डमा

विद्यापति

विद्यापति नामक कवि के पाँच पद्य श्रीधर ने सदुक्तिकर्णामृत में उद्धृत किये हैं। निश्चय ही ये विद्यापति सुप्रसिद्ध मैथिल और संस्कृत कवि विद्यापति से भिन्न हैं। डा. एस. के.डे. का अनुमान है कि प्रस्तुत विद्यापति बिल्हण से अभिन्न हैं, क्योंकि बिल्हण को विक्रमादित्य षष्ठ ने विद्यापति की उपाधि दी थी। डा. जगन्नाथ पाठक ने कोई संदर्भ दिये बिना इन्हें राजा कर्ण का सभाकवि बताया है, बिल्हण ने भी गुजरात के राजा कर्ण के आश्रय में रहकर कर्णसुन्दरीनाटिका की रचना की थी, अतः संभवतः डा. पाठक भी प्रकृत विद्यापति और महाकवि बिल्हण को अभिन्न मानते हैं। विद्यापति के कर्ण का सभाश्रित होने के अनुमान की पुष्टि उनके नाम से कर्ण की प्रशस्ति में रचे श्रीधर द्वारा उद्धृत दो पद्यों (सदुक्ति. १४१४, १६३७) से होती है। किन्तु श्रीधर द्वारा उद्धृत विद्यापतिकृत निम्नलिखित अन्योक्ति से इस कवि के अभिज्ञान की समस्या उलझ जाती है- (सदुक्ति. १७७७) । अन्यासु तावदुपमर्दसहासु भृङ्ग लोलं विनोदय मनः सुमनौलतासु। मुग्धामजातरजसं कलिकामकाले बालो कदर्थयसि किं नवमालिकायाः।। ठीक यही पद्य आचार्य अभिनवगुप्त ने अभिनवभारत में मनोरथ नामक लक्षण के उदाहरण में ‘विकटनितम्बा’ नामक प्रहसन में विकटनितम्बा की उक्ति बताकर उद्धृत किया है। यदि यह पद्य विद्यापति का है, तो ये विद्यापति मैथिल विद्यापति और बिल्हण दोनों से ही भिन्न और अभिनवगुप्त के पूर्ववर्ती तथा विकटनितम्बा नामक प्रहसन के लेखक हैं।’ हि विद्यापति की यह अन्योक्ति भी श्रीधर ने उद्धृत की है, जिसे कवि का नाम न देकर सूक्तिमुक्तावली, सुभाषितरत्नकोष, कुवलयानन्द तथा मम्मट के काव्यप्रकाश में भी उद्धृत किया गया है - अयं वारामेको निलय इति रत्नाकर इतिहास श्रितोऽस्माभिस्तृष्णातरलितमनौभिर्जलनिधिः। क एवं जानीते निजकरपुटीकोटरगतं जात क्षणादेनं ताम्यत्तिमिमकरमापास्यति मुनिः।। (सदुक्ति. १६८३)

वल्लभदेव

संस्कृत साहित्य के इतिहास में दो वल्लभदेव सुप्रसिद्ध हैं- एक तो कुमारसम्भव तथा मेघदूत के टीकाकार वल्लभदेव तथा दूसरे सुभाषितावली के कर्ता वल्लभदेव। पीटर्सन के १. सदुक्तिकर्णामृत, सं.-एस के…, परिशियर में कवि-सूची, पृ. २२ मानक २. सुभाषितहारावली, सं.- डा. जगन्नाथपाठक, पृ. ३१४ ३. नाट्यशास्त्र १६ १६५ पर अभिनवभारती। सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि मत में द्वितीय वल्लभदेव जेनुल-आब्दीन (१४१७-६७ई.) के पश्चात् हुए, जबकि टीकाकार वल्लभदेव का समय नवीं शती या और पूर्व हो सकता है। कैयट ने E७७ ई. में लिखित आनन्दवर्धनकृत देवीशतक की टीका में आत्मपरिचय में बताया है कि वे वल्लभदेव के पौत्र हैं। पीटर्सन का अनुमान है कि सुभाषितसंग्रहों में जिस कवि वल्लभदेव के स्फुट पद्य उद्धृत हैं, वह टीकाकार वल्लभदेव ही हैं। उन्होंने उक्त कैयट को भाष्यप्रदीपकार वैयाकरण कैयट से भिन्न भी माना है। न सुभाषितावली में वल्लभदेव के २३ तथा शाङ्गधरपद्धति में आठ पद्य उद्धृत हैं। सदुक्तिकर्णामृत में वल्लभ नाम के कवि के दो पद्य तथा वल्लभदेव नाम के कवि का एक पद्य उद्धृत किया गया है। इससे वल्लभदेव के वास्तविक अभिज्ञान की समस्या जटिल हो गयी है। सुभाषितावलीकार का समय भी सर्वथा निर्धान्तरूप से निर्णीत नहीं है। अस्तु, सुभाषितावली तथा शाङ्गधर में उद्धृत कवि वल्लभदेव एक ही व्यक्ति हैं। क्योंकि दोनों में वल्लभदेवकृत एक पद्य उभयनिष्ठ है। यह वल्लभदेव श्रीकृष्ण का भक्त था। सुभाषितावली में उसके एक पद्य में आर्तभाव से श्रीकृष्ण का आह्वान है - कृष्ण कृष्ण परमेश्वर विष्णो पाहि पाहि भवकर्दममध्ये। कामलोभमदमत्सरकोपै|ध्यमानमनिशं कृपणं माम् ।। - ३५११ कवि वल्लभदेव के अधिकांश पद्यों में नीतिवचनों का सरल भाषा में गुंफन है। कतिपय अन्योक्तियाँ इनमें मार्मिक बन पड़ी हैं। यथा – यदि मत्तोसि मतङ्गज किममीभी रसालसरलतरुदलनैः। हरिमनुसर खरनखरं व्यपनयति स करटककण्डूतिम् ।। पला किया - शाडूग.-६३६ को (हे मतंगज, यदि तुम मतवाले हुए हो, तो आम और सरल के इन वृक्षों को रौंदने से क्या? किसी खरनखर वाले सिंह को खोजो, वही तुम्हारी खाल की खुजली मिटायेगा)। ‘डूबते को तिनके का सहारा’ इस भाव को लेकर लिखी यह अन्योक्ति भी हृदयस्पर्शी है रूढस्य सिन्धुतटमनु तस्य तृणस्यापि जन्म कल्याणम्। यत् सलिलमज्जदाकुलस्य हस्तालम्बनं भवति ।। समय - शाज. - १०६० १. सुभाषितावली, भूमिका, पृ. ११४ काव्य-खण्ड

अभिनवगुप्त

काव्यशास्त्र के तथा शैवदर्शन के महान् आचार्य अभिनवगुप्त ने अपने अनेक पद्य ‘ध्वन्यालोकलोचन’ तथा ‘अभिनवभारती’ में उद्धृत किये हैं। उनसे एक महाकवि का स्वरूप हमारे सामने उभरता है। ध्वन्यालोकलोचन में कुल सात पद्य अभिनव ने अपने रचे उद्धृत किये हैं। इनमें से विरही की उक्ति को उन्होंने एक पद्य में प्रस्तुत किया है दयितया ग्रथिता स्रगियं मया हृदयधामनि नित्यनियोजिता। गलति शुष्कतयापि सुधारसं विरहदारुरुजां परिहारकम् ।। (प्रिया के द्वारा गूंथी गयी यह माला मैंने हृदय पर घर रखी है, यह विरहताप से सूख गयी है, फिर भी दाह को दूर करने वाले सुधारस को यह चुआ रही है। दूसरी ओर बुढ़ापे की विकरालता का वर्णन अभिनव ने किया है -जनकाशा जरा नेयं मूर्ध्नि ध्रुवमयमसौ कालभुजगः क्रुधान्धः फूत्कारैः स्फुटगरलफेनान् प्रकिरति। तदेनं सम्पश्यत्यथ च सुखितम्मन्यहृदयः शिवो पायनेच्छन् बत बत सुधीरः खलु जनः।। (मस्तक पर यह बुढ़ापा नहीं, काल रूपी सर्प बैठा हुआ है, जो क्रोधांध होकर फू-फू करके विष के फेन को उगल रहा है, मनुष्य इसे देखता-समझता हुआ भी कल्याण का उपाय न करके धीर बना बैठा है।) अभिनवभारती में अभिनव ने बहुसंख्य स्वरचित पद्य उद्धृत किये हैं। दृष्टांत के चमत्कार से युक्त खलसंगति के दुष्परिणाम सूचित करने वाला यह पद्य द्रष्टव्य है - हा हालाहल लेहने हतमतिः सोऽयं समुत्कण्ठितो गाढाङ्गारगरिम्णि चैष जडधीहं निविक्षेप्स्यति। ग्राम्योऽप्याजगरी गुरुं गलगुहां मोहादयं धावति गण व्याधूयेतरसङ्गतानि यदयं साधं खलैः खेलति।।

चित्तप

सूक्तिकवि चित्तप का भी परिचय सुभाषित ग्रन्थों से प्राप्त होता है। विभिन्न सुभाषितों में संकलित इनके पद्यों से यह ज्ञात होता है कि चित्तप राजोचित वैभव-विलास के अधिक समीप थे और जीवन की अनुभूतियों से दूर । चित्तप भी बिल्हण आदि की परम्परा के राजप्रशंसक कवि थे। उनके अनुसार राजाओं की ख्याति उनके विजयाभिमानों से नहीं, अपितु कवियों द्वारा की गयी उनकी गुणप्रशंसा से होती है - सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि वल्मीकप्रभवेण रामनृपतिासेन धर्मात्मजोहाका व्याख्यातः किल कालिदासकविना श्रीविक्रमाङ्को नृपः। एक भोजश्चित्तपबिल्हणप्रभृतिभिः कर्णोऽपि विद्यापतेः । ख्याति यान्ति नरेश्वराः कविवरैः स्फारैर्न भेरीरवैः।। स्थितिकाल-डी.डी. कोशाम्बी के अनुसार चित्तप धारानरेश भोज और किसी कालचरि नरेश के सभाकवि थे। यह भोज के समकालिक और उनकी सभा के सम्मानित कवि थे। अतः इनका समय १०वीं शती है । काव्यसौष्ठव-चित्तप कवि बहुमुखी चिन्तन-धारा एवं सरस कल्पना के धनी थे किन्तु उनकी कविता का अधिकांश भाग प्रशंसापरक ही है। किसी नायिका की विषम मनोदशा का चित्रण करता कवि राजा भोज के सौन्दर्यवर्णन का लोभ संवरण नहीं कर सका और नायिका की मनोदशा का कारण भोजराज का रूपदर्शन ही बन गया किं वातेन विलङ्घिता न, न, महाभूतार्दिता किं न, न भ्रान्ता किं न, न, संनिपातलहरीप्रच्छादिता किं न, न। तत्किं रोदिति, मुह्यति, श्वसिति किं स्मरं च धत्ते मुखं दृष्टः किं कथयाम्यकारणमहं श्रीभोजदेवोऽनया ।। काव्य में प्रशस्ति की प्रधानता होने पर भी विषय एवं रस की दृष्टि से शिव आदिदेव, अश्व, मृग, हंस, भ्रमरसहित सरोवर भी उनकी रचना में वर्णित हैं - मृगी के वात्सल्य भाव का एक उदाहरण द्रष्टव्य है - आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जमङ्गं मां मुञ्च वागुरिक! याहि कुरु प्रसादम् । अद्यापि शष्पकवलग्रहणानभिज्ञा मद्वर्त्म चञ्चलदृशः शिशवो मदीयाः।। उफन हे बहेलिए! स्तन के अतिरिक्त मेरे सभी अंगों के मांस को ले लो। कृपा कर मुझे छोड़ दो, क्योंकि अभी मेरे शिशु हरी घास चरने में असमर्थ हैं। वे भोले बच्चे मेरी राह देख रहे हैं। अपने शिशु के प्रति मृगी की ममता कितनी मार्मिक है। चित्तप के ४६ पद्य सुभाषित ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।

त्रिलोचन

त्रिलोचन कवि सूक्तिरचनाकार होने के साथ ही नाटककार भी थे। राजशेखर ने इनका उल्लेख ‘पार्थविजय’ नाटक के लेखक के रूप में किया है। आउफरेस्ट, जेड.एम. जी. भाग-२७, पृ. ३२ एवं कैटलागस् कैटलागोरम्, पृ. २३८, पीटर्सन रिपोर्ट भाग-२ पृ. १. प्रभात शास्त्री, पाणिनि तथा संस्कृत के अन्य अल्पज्ञात कवियों की रचनाएँ पृ. ६४ ५५० सिताराम काव्य-खण्ड सतर्गतका ६३, जनरल आफ एशियाटिक सोसायटी, भाग-१६, पृ. ६६ तथा भाण्डारकर रिपोर्ट सन् १८६७ पृ. १८-२६ (कवीन्द्रवचनसमुच्चय) भूमिका-पृष्ठ-४२, इतना ही नहीं ‘सुभाषितरत्नकोश’ की भूमिका में सूक्तिकवि त्रिलोचन को बौद्ध तथा लोकेश्वर के प्रति निष्ठावान् बताया गया है। (पृष्ठ-८०) स्थितिकाल-शागधर ने अपनी सुभाषितसंग्रह शाधिरपद्धति में त्रिलोचनरचित निम्न श्लोक- ‘हृदि लग्नेन बाणेन यन्मन्दोऽपि पदक्रमः। भवेत्कविकुरङ्गानां चापलं तत्र कारणम्’ का उल्लेख किया है। राजशेखर ने भी- की की जाँच कर्तुं त्रिलोचनादन्यो न ‘पार्थविजय’ क्षमः। लशिलान कामिति तदर्थः शम्यते द्रष्टुं लोचनयिभिः कथम् । इस श्लोक को उद्धृत कर त्रिलोचन के प्रति अपना सख्यभाव व्यक्त किया है अतः बाण और राजशेखर को आधार मानकर त्रिलोचन का कालनिर्धारण सुकर है। शानथर पद्धति का संकलनसमय १४वीं शती है। बाण का समय ७वीं शती और राजशेखर का समय एवीं शती है। इस प्रकार त्रिलोचन का समय ७वीं शती से वीं शती का मध्य माना जा सकता है।’ काव्यसौष्ठव-राजशेखर ने त्रिलोचन के जिस ‘पार्थविजय’ नाटक की प्रशंसा की है वह अद्यावधि अनुपलब्ध है। वे हमारे समक्ष फुटकर भावों के कवि के रूप में ही ज्ञात हैं। अतः उनकी काव्यप्रतिभा का निश्चित रूप निर्धारित करना कठिन है। सुभाषित ग्रन्थों में सङ्कलित पद्य कवि की कल्पनायुक्त काव्यचातुरी को प्रकट करते हैं - हृष्यन्ति चारुचरितैः सुजनस्य सन्तः क्षुद्रत्वमाशु पिशुनादपि संत्यजन्ति। रत्नं न केवलमलकरणाय लोके, क्रूरग्रहादिशमकं च भवेत्प्रभावैः।। अर्थात् सत्पुरुष सज्जनों के पवित्र चरितों से आनन्दित होते हैं, क्षुद्रता की निन्दा करते हैं। लोक में रत्न एक मात्र भूषण का ही साधन नहीं, अपितु प्रभाववशात् क्रूरग्रहों की शान्ति के साधन हो सकते हैं। इस पद्य में सज्जन स्वभाव का सटीक चित्रण है और रल का उदाहरण सर्वथा उपयुक्त है। त्रिलोचन कवि के ११ पद्य सुभाषित ग्रन्थों में उपलब्ध

वल्लण

सूक्तिकवि वल्लण की कविता में क्लिष्ट पदविन्यास और गम्भीर अर्थबोध की झलक मिलती है। इन्होंने अपनी रचनाओं में विविध विषयों को वाणी का रूप दिया है। इनका १. प्रभातशास्त्री, पाणिनि तथा संस्कृत के अन्य अल्पज्ञात कवियों की रचनाएं पृ. ७-५ || तापमानापासुनगाभा 2THE सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि कवि-कर्म सुरभारती के सहज वात्सल्य से अनुप्राणित है। सुभाषितग्रन्थों में इनके ५१ पद्य उपलब्ध होते हैं। स्थितिकाल-विल्हण के सम्बन्ध में प्रामाणिक इतिहास तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु डा. डी.डी. कोशाम्बी के उल्लेख (सुभाषितरत्नकोष भूमिका-पृ. ६६) के साक्ष्य से बल्हण एक पाल दरबार के कवि थे। वे एक अज्ञात राजा (कलिकाल) कर्ण की प्रशंसा में लिखते हैं जीयासुः कलिकाल कर्णनृपते! दारिद्र्यदारुदर - व्याघूर्ण घुणवृन्दलङ्घनमुषस्त्वत्पादयोः पाशवः ।। राजा कर्ण त्रिपुरा के कलचूरि नरेशों की १२वीं पीढ़ी में उत्पन्न सर्वाधिक प्रतापी शासक था। इसका शासनकाल ई. सन् १०४१-१०७३ था। अतः हम वल्हण का स्थिति काल ११वीं शती का उत्तरार्ध मान सकते हैं। काव्यसौष्ठव-वल्लण राज्याश्रित कवि थे अतः उनके काव्य में स्वभावतः वैभव-विलास का चित्रण हुआ है। राजसभा के कवियों में उस समय काव्य प्रतियोगिताओं या समस्यापूर्तियों की परम्परा थी। प्रायः वाणी की विदग्धता द्वारा कवि राजसभाओं में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर आश्रयदाता राजा से सम्मान पाते थे। राज्याश्रित होने के कारण वल्लण का काव्य कहीं-कहीं दुर्बोध सा हो गया है। उनके काव्य के प्रमुख विषय राजप्रशस्ति, अन्यापदेश, अनुराग, वियोगिनी नायिका आदि हैं। कवि किसी उदात्त चरित सज्जन के क्रिया-कलाप का वर्णन जलद के माध्यम से करते हैं - उपैति क्षाराब्धिं वहति बहुवातव्यतिकरं जगह जिनका पुरो नाना भङ्गा ननु भवति पश्यैष जलदः। निशिव विवाहों से कथञ्चिल्लब्धानि प्रवितरति तोयानि जगते, गुणं वा दोषं वा न गणयति दानव्यसनिता।। देखो, मेघ सागर तक वायु के थपेड़ों को सहन करके और खण्ड-खण्ड होकर दुःख का अनुभव करके भी प्राप्त जल को बिना किसी भेदभाव के संसार को वितरित कर देता है, गुण-दोष का विचार नहीं करता। लोकमंगलभावनायुक्त सत्पुरुष का भी यही स्वभाव होता है।

उमापतिधर

उमापतिधर लोक-जीवन के एक श्रेष्ठ कवि के रूप में विख्यात हैं। वे यत्र तत्र वैभव-विलासजनित मधुर भावों का भी चित्रण करते हैं। उन्होंने सरोवर, नदी, सूर्य चन्द्र, कमल, अमर, तरुलता आदि प्राकृतिक तत्त्वों का भी मनोरम चित्रण किया है। नायक-नायिका ५५२ काव्य-खण्ड का प्रणय-विलास भी उनकी कविता का प्रिय विषय रहा है। सुभाषित ग्रन्थों में उनके १०७ पद्य उपलब्ध हैं। स्थितिकाल-अन्य सूक्तिकार कवियों की अपेक्षा उमापतिधर की कालस्थिति स्पष्ट है। डॉ. हरदत्त शर्मा (सदुक्ति. भूमिका पृ. ४१) के अनुसार उमापतिधर सेनशासन के उत्तरकाल में हुए थे। गीतगोविन्द तथा अन्य ग्रन्थों में इनका नाम उद्धृत है। उमापतिधर संभवतः श्रीधरदास के समसामयिक हैं। केटलागस कैटलागोरम् (पृ.७०) में १३ उमापतिधर की चर्चा है। जयदेव ने गीतगोविन्द में उमापतिधर का उल्लेख ‘वाचः पल्लवयत्युमापतिधरः’ कह कर किया है। स्पष्ट है कि जयदेव उमापतिधर से परिचित थे। जयदेव बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के राजकवि थे। जयदेव का समय १२वीं शती पूर्वार्ध है। जयदेव एवं श्रीधर के समकालिक उमापतिधर का भी समय १२वीं शती ही माना जाता है। काव्यसौष्ठव-उमापतिधर की रचनाओं में अन्य विषयों के साथ प्रकृति के मनोरम पक्ष को भी चित्रित किया गया है। कवि प्रकृति-सम्पदा में सौम्य-रौद्र-शिव-अशिव उपादानों को रूपायित करना भी नहीं भूलते हैं। वे कहीं भ्रमर की रसलोलुपता, कहीं निर्मल सरोवर में विचरणरत हंसनीडा और कहीं तरुलताओं का भी हृदयस्पर्शी वर्णन करते हैं अर्काः केचन केचिदक्षतरवः केचिद्दलक्ष्मारुहाः निंबाः केचन केचिददत्र विपिने क्रूराः कटीरद्रुमाः। माकन्दो मकरन्दतुन्दिलमिल ,गोलिअंगारितः । कोऽप्यत्रास्ति न मित्र! यत्र तनुतं कर्णामृतं कोकिलः।। वृक्ष तो अनेक हैं और उन पर मकरन्द लोभी भी सुशोभित हैं, किन्तु कोई ऐसा नहीं है, जिसमें कानों को सुख पहुंचाने वाला कोकिलस्वर सुनायी पड़े।

शरण

सूक्तिकार शरण का उल्लेख बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के सभामण्डप में उत्कीर्ण शिलालेख में किया गया है गोवर्धनश्च शरणो जयदेव उमापतिः। कविराजश्च रत्लानि समिती लक्ष्मणस्य च।। उक्त श्लोक के अनुसार लक्ष्मणसेन की सभा के गोवर्धन, शरण, जयदेव उमापति तथा कविराज (श्रुतधर) रत्न थे। इसके अतिरिक्त जयदेव ने भी गीतगोविन्द में ‘शरणः श्लाघ्यो दुरूहद्रुतेः’ इस कथन के माध्यम से शरण का उल्लेख किया है। कैटलागस् कैटलागोरम् (पृ.६३६) में एक ही कवि के शरण, शरणदेव तथा चिरन्तनशरण ये तीन नाम दिये गये हैं। जनरल आफ एशियाटिक सोसायटी बंगाल (पृ.१६३) के अनुसार भी उपर्युक्त तीनों नाम एक ही कवि के हैं। सुभाषितसंग्रह तथा सुभाषितकवि स्थितिकाल-उमापति-सहित शरण का भी लक्ष्मणसेन की सभा का कवि होने से और जयदेव द्वारा गीतगोविन्द (६१४) में उल्लेख होने से शरण का जयदेव का समकालिक होना निर्विवाद है अतः शरण का भी समय १२वीं शती का पूर्वार्ध है। यह 1 काव्यसौष्ठव-‘जानीते जयदेव एव शरणः श्लाघ्यो दुरूहद्रुतेः’ जयदेव के इस कथन के साक्ष्य से शरण क्लिष्ट काव्य के प्रेणता के रूप में ज्ञात हैं। काव्यरचना में इनकी अद्भुत क्षमता थी। शरण स्निग्ध भावों के अंकन में, प्रकृति की निसर्ग अनुकृति के प्रतिबिम्बन में तथा मानवहृदय के सदय रसवर्षण में चतुर थे। कालिन्दी का, भावों की एक सुधापयस्विनी-रूप में परिष्कृत पदावली द्वारा चित्रण कितना मनोरम है कालिन्दीमनुकूलकोमलरयामिन्दीवरश्यामलाः शैलोपान्तभुवः कदम्बकुसुमैरामोदिनः कन्दरान्। राधां च प्रथमाभिसारमधुरां जातानुतापः स्मर वस्तु द्वारवतीपतिस्त्रिभुवनामोदाय दामोदरः।। त्रिभुवन मात्र के मोद और सुखमूल द्वारवतीपति दामोदर (श्रीकृष्ण) यमुना की अनुकूल जलप्रवाहगति से आलोड़ित नीलकमल से श्यामवर्ण पर्वत-पार्श्ववर्ती भूमि एवं कदम्बपुष्पों से आच्छन्न गुफाओं तथा लीलापूर्ण उन दिनों (राधा का अभिसारकाल) का स्मरण कर अनुताप से आक्रान्त हैं। सुभाषितग्रन्थों में शरण के २५ पद्य उपलब्ध हैं।