“रागकाव्य’ यह संज्ञा आचार्य-परम्परा में अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है। उसी प्रकार रागकाव्यों की परम्परा भी प्राचीन है। परन्तु गीतगोविन्द के पूर्व लिखा हुआ ऐसा कोई प्रबन्ध हमें उपलब्ध नहीं है, जिसे ऊपर दिये गये समन्वित लक्षण के आधार पर पूर्णतः रागकाव्य कहा जा सके। डा. प्रभातशास्त्री ने गीतगोविन्द से पूर्व रचित कृष्णलीलातरङ्गिणी को रागकाव्य का उदाहरण माना है।’ यह विचारणीय है। लीलाशक (बिल्वमंगल) के कृष्णकर्णामृत का उल्लेख भी गीतगोविन्द की परम्परा के काव्यों में किया जाता रहा है। इस काव्य पर नृत्य और अभिनय की परम्परा रही है। पर इसमें गीत या ध्रुवक का प्रयोग नहीं है। कम) गिरोहोर १. रागकाव्यविमर्शः डा. प्रभात शास्त्री, पृ. ४२ रागकाव्यपरम्परा ४EE
गीतगोविन्द
रागकाव्य के युगप्रवर्तक कवि जयदेव का गीतगोविन्द रागकाव्यों में मूर्धन्य स्थान रखता है। गीतगोविन्द प्रणेता जयदेव प्रसत्रराघवनाटक के प्रणेता से भिन्न हैं। गीतगोविन्दकार जयदेव वंगदेश के राजा लक्ष्मणसैन की राजसभा के सम्मान्य कवि थे। इनके पिता का नाम भोजदेव तथा माता का नाम राधादेवी था।’ जयदेव का समय ग्यारहवीं शती ईसवी है। कॉपिगीतगोविन्द में लघु-आकार के बारह सर्ग हैं। ग्रन्थारम्भ में मंगलाचरण, प्रस्तावना ग्रन्थ का प्रयोजन और कविपरिचय दिया गया है। प्रथम चार पद्य क्रमशः शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, द्रुतविलम्बित तथा पुनः शार्दूलविक्रीडित जैसे प्रसिद्ध वर्णित वृत्तों में से हैं। इसके अनन्तर रागकाव्यविधा में दशावतारों का वर्णन है। यह अंश मालवराग और रूपकताल में उपनिबद्ध है। गीतगोविन्द के प्रत्येक गीत को प्रबन्ध कहा गया है। प्रत्येक प्रबन्ध के प्रारंभ में प्रसिद्ध वर्णिक वृत्तों में वर्ण्य विषय का निर्देश किया गया है। समन रचना में चौबीस प्रबन्ध तथा बारह सर्ग हैं। कवि ने इसे महाकाव्य कहा है, किन्तु भामहादि की महाकाव्य की परिभाषा के अनुसार यह लघुकाय रचना कथमपि महाकाव्य नहीं कही जा सकती। इस रचना में राधाकृष्णविषयक सरस प्रसंग इस रूप में उद्भावित हैं - एक सखी विरहोत्कण्ठिता राधा के समक्ष वसन्त का वर्णन करती है और गोपांगनाओं की रासलीला में संलग्न श्रीकृष्ण को उसे दूर से दिखाती है। इसे देखकर ईर्ष्या के कारण राधा मान धारण कर लेती है। जब कृष्ण को राधा के मान धारण की जानकारी मिलती है, तब वे अन्य गोपिकाओं का साथ छोड़कर यमुना के एक निकुंज में जाते हैं और राधा के विरह का गहरा के अनुभव करने लगते हैं। वे राधा के समीप एक दूती प्रेषित करते हैं जो राधा को कृष्ण की विरह दशा की सूचना देती है तथा राधा से कृष्ण के पास जाने का आग्रह करती है। इसी समय चन्द्रोदय होता है और कृष्ण के आने में विलम्ब देखकर राधा पुनः मानिनी बन जाती है। कृष्ण आते हैं, वे राधा के मानमोचन का प्रयास करते हैं, किन्तु राधा नहीं मानती। कृष्ण वहाँ से चले जाते हैं। राधा का प्रसाधन किया जाता है। राधा कृष्ण से मिलने की तीव्र अभिलाषा करती है। कृष्ण की भी राधा के प्रति उत्कण्ठा का वर्णन कर एकसखी उसे अभिसार करने की प्रेरणा देती है। अभिसार की गतिविधि सम्पन्न होती है। कृष्ण की रतिभान्ति तथा राधा की कृष्ण से पुनः प्रसाधन की प्रार्थना का वर्णन किया गया है। गीतिगोविन्द की प्रशंसा के साथ कवि अपनी कृति समाप्त करता है। इस प्रकार गीतिगोविन्द का मुख्य प्रतिपाद्य राधा-कृष्ण की रासलीला है। श्रीकृष्ण की लीलाओं का पुराणों तथा अन्य रचनाओं में बहुधा वर्णन प्राप्त होता है, किन्तु श्रीमद्भागवत का दशम स्कन्ध जन-जन का कण्ठहार रहा है। जयदेव भी उससे १. श्री भोजदेवप्रभवस्य राधादेवीसुतश्रीजयदेव (क)स्य। पाराशरादि प्रियवर्गकण्ठे श्रीगीतगोविन्दकवित्वमस्तु ।। मालिक म मोफत पर । कास काव्य-खण्ड प्रभावित हुए होंगे। जयदेव तथा श्रीमद्भागवतकार के वर्णन में एक विशिष्ट अन्तर यह है कि जयदेव के हरि सरस वसन्त में विहार करते हैं (हरिरिह विहरति सरसवसन्ते) किन्तु श्रीमद्भागवत के भगवान् श्रीकृष्ण शरद् की उत्फुल्लमल्लिका रात्रियों में रासक्रीडा करते हैं। श्रीमद्भागवत में एक गोपी के प्रति विशिष्टानुराग की चर्चा है, किन्तु श्रीकृष्ण की परम प्रिया राधा का कण्ठतः उल्लेख नहीं है, जबकि जयदेव के गीतगोविन्द में वर्णन का केन्द्र राधा है। श्रीमद्भागवत में रास का स्थान यमुनापुलिन है किन्तु गीतगोविन्द में ललित लवंगलता से सुवासित कोकिलकूजितकुंज कुटीरकानन है। श्रीमद्भागवत और गीतगोविन्द के वर्णन में यत्र-तत्र विशेष साम्य दिखाई देता है। इससे प्रतीत होता है कि जयदेव श्रीमद्भागवत से प्रभावित हैं, किन्तु डा. हजारी प्रसाद प्रभृति विद्वान् गीतगोविन्द पर श्रीमद्भागवत का प्रभाव न स्वीकार कर उसे लीलागान की किसी अन्य शास्त्रीय परम्परा का ग्रन्थ मानते हैं - ‘संभवतः दशवीं तथा ग्यारहवीं शताब्दी में भागवत परम्परा से भिन्न भी कोई लीला-गान की परम्परा थी। जयदेव का गीतगोविन्द पूर्ण रूप से भागवत परम्परा का ग्रन्थ नहीं है। डा. एस.के.डे. ने भी ऐसी ही अवधारणा व्यक्त की है। डॉ. परमानन्द शास्त्री श्रीमद्भागवत और गीतगोविन्द के लीलागान का तुलनात्मक निष्कर्ष इस प्रकार निकालते हैं - ‘भागवत में आध्यात्मिकता का स्वर प्रबल है और गीतगोविन्द में लौकिकता का। जयदेव की कृति का आधार भागवत से भिन्न लीलागान की परम्परा है। जिससे जयदेव ने अपना विषय ग्रहण किया, उसे अपनी प्रतिभा के बल पर अधिकाधिक काव्योपयोगी बना दिया। संभवतः भागवत से भी वे प्रभावित हुए हों। राधापात्र की सृष्टि में पौराणिकों का चाहे जो उद्देश्य रहा हो, किन्तु जयदेव ने प्रथम बार उसे प्रेम की प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित किया। भारतीय गीतिकाव्य की सबसे बड़ी देन है ‘राधा’ और उसे साहित्यिक रंगमंच पर सर्वप्रथम उतारने वाले कवि हैं-जयदेव”। 150 PER The यदि यह स्वीकार किया जाय कि किसी लीलागान की परम्परा से जयदेव प्रभावित हैं, तब उन्हें राधा की अवतारणा का प्रथम कवि नहीं स्वीकार किया जा सकता। लीलाशुक की ‘कृष्णलीलातरंगिणी’ तथा अन्य पुराणों और गर्गसंहिता मथुराखण्ड आदि में राधा का स्पष्ट उल्लेख श्रीकृष्ण की परमप्रिया के रूप में प्राप्त होता है । इतना अवश्य है कि PATR THE PERHITF पभगवानापि ता राजी: शरदोत्फलमल्लिका FIRE PEPTER TETER - वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।। श्रीमद्भा. पू. २८19 PPFIRE Rup २. तुलनीय - भागवत १०।३३।१० गीतगो. १४७ भा. १०॥३३॥१२ गी.गो. १४ काम संजय भा. १०३३ ॥१४ गी.गो. १४३ इत्यादि। गराएको ३. एस.एन. दासगुप्त एण्ड एस. के. डे. हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर पृ. ३१० ४. संस्कृतगीतिकाव्य का विकास पृ. २८८ ५. ये राधिकायां मयि केशवे हरौ कुर्वन्ति भेदं कुधियो नरा मुवि। ते कालसूत्र प्रपतन्ति दुःखिता रम्भोरु, बावकिल चन्द्रभास्करौ।। -गर्गसंहिता मधुराखण्ड रागकाव्यपरम्परा ४६१ जयदेव ने राधाकृष्ण के प्रणय-प्रसङ्ग को भक्तिभावना से आप्यायित कर अपनी काव्यप्रतिभा से उसे चमका दिया। फलतः जयदेव रागकाव्य की परम्परा में प्रथम श्रेणी के कवि के रूप में अपना स्थान बना लिए, उनके पूर्व की रचनाएँ उतनी लोकप्रिय न हो सकीं। Vजयदेव श्रृंगार के रसराजत्व और अपने समय तक प्रवाहित हो चुकी भक्तिरस की प्रबल धारा से सम्यक् परिचित थे। काव्य के क्षेत्र में ये दो धाराएँ जयदेव के समय में प्रवहमान थी। इन दोनों धाराओं का मधुरिम संगम जयदेव ने गीतगोविन्द में करा दिया। परिणामतः सहृदय का मन चाहे हरि के स्मरण में सरस हो चाहे विलासकलाओं के कुतूहल में, जयदेव की काव्यसरस्वती दोनों प्रकार की मानसिकता वाले भावक के लिए कण्ठहार बिन गई। इतना ही नहीं इस नवीन धारा में उन्होंने काव्यशास्त्रीय नायिका-भेद का सिंमिश्रण भी कर दिया, जिसका स्रोत ऐसी रचनाओं में कही-कहीं हल्की झलक दिखाता पहुआ बह रहा था। इस प्रकार जयदेव ने प्रथम बार उन सब तत्त्वों को भक्ति के क्षेत्र में के एकत्र सन्निविष्ट किया, जो विशेषतया गौडीय वैष्णवों की परम्परा में पृथक् नायिकाभेद की सृष्टि के कारण बने और सामान्यतया उत्तरकालीन भक्तिसाहित्य को प्रभावित करते हुए अन्त में क्रमशः क्षीणशक्ति होकर रीतिकालीन कवियों की राधाकृष्णविषयक उक्तियों में विलीन हो गए। विविध प्रसंगों और परिस्थितियों की कल्पना कर उन्होंने राधा को विभिन्न प्रकार की नायिकाओं की भूमिका में प्रस्तुत किया है ।। गीतगोविन्द में राधा उत्कण्ठिता, प्रोषितपतिका, वासकसज्जा, विप्रलब्धा, खण्डिता, कलहान्तरिता, अभिसारिका, स्वाधीनपतिका के रूप में दिखाई देती है। कुछ अंश द्रष्टव्य bap कीमतीश उत्कण्ठिता - ‘स्वखि है! केशीमथनमुदारम्। रमय मया सह मदनमनोरथभावितया सविकारम् ।। गीतगो. (५) खण्डिता- ‘रजनिजनितगुरुजागररागकषायितमलसनिवेषम् । वहति नयनमनुरागमिव स्फुटमुदितरसाभिनिवेशम् ।। हरि हरि याहि माधव! याहि केशव! मा वद कैतववादम्। तामनुसरसरसीरुहलोचन! या तव हरति विषादम्।। गीतगो.१७ स्वाधीनपतिका-‘कुरु यदुनन्दन चन्दन शिशिरतरेण करेण पयोधरे। मृगपदपत्रकमत्र मनोभव-मङ्गलकलश-सहोदरे।। कनिकी वाणी निजगाद सा यदुनन्दने क्रीडति हृदयानन्दने’ ।। (१४१) कीर - जयदेव का श्रृंगारवर्णन भक्तिरस से अनुप्राणित है। गीतगोविन्द में श्रृङ्गार के संयोग म और वियोग दोनों पक्षों का शोभन परिपाक हुआ है। अन्य भारतीय कवियों की भाँति जयदेव १. ‘संस्कृतगीतिकाव्य का विकास’ - डॉ. परमानन्दशास्त्री पृ. २८६ किमीत सिकारी । ४२ काव्य-खण्ड के वर्णन में प्रकृति का परिवेश दिखाई देता है। वसन्त के साथ श्रृंडगारवर्णन का एक स्थल ।। देखें - सध माननार निवासी ति। ‘विहरति हरिरिह सरसवसन्ते। नृत्यति युवतिजनेन समं सखि विरहिजनस्य दुरन्ते। गवसन्त के प्रति कवि का विशेष आग्रह है। गीतगोविन्द का समूचा प्रकृतिवर्णन उद्दीपनरूप में चित्रित हुआ है। संयोग और वियोग की विविध दशाओं के साथ अनेक संचारी भावों, कामशास्त्र में प्रतिपादित-रति केलियों, कचग्रहण, चुम्बन, नखच्छद, रदच्छद आदि का सुमधुर सरसचित्रण हुआ है। अभिलाष, चिन्ता, स्मरण, मरण, व्याधि, वितर्क, आवेश, असूया, दैन्य आदि संचारी भावों के साथ पुलक, वेपथु, स्वेद प्रभृति सात्त्विक भावों का मिश्रण श्रृंगार को आस्वाद्य बनाने में सहायक है। शब्दालङ्कारों में अनुप्रास,, उसमें भी विशेषरूप से अन्त्यानुप्रास के प्रयोग में जयदेव सिद्धहस्त हैं। ध्रुवक की योजना के कारण स्वभावतः अनुप्रास की योजना कवि को करनी पड़ी है। बीच-बीच में वस्तुसंकेत आदि के लिए प्रयुक्त वर्णिक वृत्तों में भी अनुप्रास की योजना सुन्दर है। प्रसाद और माधुर्य गुण तथा आनुप्रासिक शब्दयोजना पदे-पदे दृष्टव्य है। उदाहरणार्थ- तनीडापनि पिस्तव न मुखरमधीरं त्यज मंजीरं रिपुमिव कैलिषु लीलम्। चल सखि! कुजं सतिमिरपुजं शिथिलय नीलनिचोलम् ।। ५।४ एक उदाहरण और देखें - किती सांगत माह कामासा हरिरभिसरति वहति मधुपवने। किमपरमधिकसुखं सखि भुवने।। १।। सणेकर माधव मा कुरु मानमये। तालकलादपि गुरुमति सरसम्। किं विफलीकुरुषे कुचकलशम् ॥२॥ हरिरुपयातु वदतु बहु मधुरम्। मीर 1 किमिति करोषि हृदयमतिमधुरम् ।।७।। Tsuf - श्रीजयदेवभणितमतिललितम्। वाकाणगान सुखयतु रसिकजनं हरिचरितम् ।।८।। प्रबन्धों की भूमिका तथा उपसंहार के वर्णित वृत्तों में भी तीव्र रसपरिपाक दिखाई देता है। यद्यपि जयदेव ने ‘यदि हरिस्मरणे सरसं मनो.’ लिखकर अपनी रचना में हरि के प्रति भक्तिभाव के समावेश का उल्लेख किया है किन्तु कुछ पद्यों में उद्दाम श्रृंगार दिखाई देता है, जिसका हरिभक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता। उदाहरणार्थ - रामकाव्यपरम्परा ए म नियमका “ईषन्मीलितदृष्टि’ मुग्ध हसितं सीत्कारधारावशात काकी RTE F अव्यक्ताकुलकेलिकाकुविकसइंतांशुधौताधरम्। फोनमा क शान्तस्तब्धपयोधरं भूशपरिष्वङ्गात्कुरडीदृशो 15 ती की सार हर्षोत्कर्षवियक्तनिःसहतनोर्धन्यो धयत्याननम।। नाम न माणसाग (गीतिगो. १२७) ਜੈ ਸਾ ਤਿ ਨਹੀ (वह पुरुष धन्य है जो गाढालिङ्गन के कारण शान्त एवं स्तब्ध उरोजों वाली तथा हर्ष के आधिक्य से शिथिल शरीरवाली मृगनयनी की कुछ-कुछ मुंदी आखों और सीत्कार की परम्परा एवं आकुल केलियों के कारण फैली हुई दन्तकान्ति से अलङ्कृत अधर वाले मुख का पान करता है।) स, गीतगोविन्द का वसन्तवर्णन संयोग श्रृंगार का आधार है। केवल वसन्तवर्णन ही नहीं, समग्र प्रकृतिचित्रण श्रृंगार के उद्दीपन विभाव के रूप में पल्लवित हुआ है। इस दृष्टि से इक्कीसवाँ प्रबन्ध अवलोकनीय है जहाँ राधा की सखी उसे संकेतकुञ्ज में प्रवेश करने की प्रेरणा देती है मानसिक शिका कनिक काम न कि रिती समिर कि ‘म तरकुंजतलकेलिसदने। विलसरतिरभस हसितवदने। मृदुचलमलयपवनसुरभिशीते। विलसभवनशरनिकरभीते। एगमा विशाल जी मालिक विततबहबल्लिनवपल्लवधने। PEED RESE F ME विलसचिरमलसपीनजघने। मायाको शीनगछीमार मधुमुदित मधुपकुलकलितरावे। पिता की उम्मीद विलसकुसुमशरसरसभावे। मधुरतर पिकनिकरनिनन्दमुखरे। 20 विलसदशनरुचिरुचिरशिखरे।ROPRBT Vयद्यपि गीतगोविन्द का धार्मिक महत्त्व नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता, किन्तु भगवल्लीलागान के व्याज से श्रृंगारवर्णन करने में कवि की विशेष अभिरुचि दिखाई देती है। डॉ. एस.एन. दास गुप्त का मत है - ‘यद्यपि यह काव्य श्रृंगारिक स्वरूप लिये हुए है - विशेष रूप से साधारण पाठक के लिए, किन्तु हरिभक्तों के लिए इसके गीत किसी प्रकार यौनभावना का संचार नहीं करते, अपितु उनके हृदय में राधा और कृष्ण की अलौकिक लीलाओं का प्रकाश आलोकित करते हैं। डॉ. परमानन्द शास्त्री कहते हैं - ‘हमारी दृष्टि में जयदेव परवर्ती साम्प्रदायिक आचार्यों की भाँति किसी प्रकार के साम्प्रदायिक सिद्धान्तों १. डॉ. एस.के. डे. हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर पृ. ३६२ मा मागकोकाव्य-खण्ड गा से प्रेरित होकर कविकर्म में प्रवृत्त नहीं हुए। हरिस्मरण की बात उन्होंने सवासोलह आने साम्प्रदायिकता के साथ कही है। वे जन्मजात कवि थे, सरस्वती के कृपापात्र और प्रतिभा के चहेते थे। उनका कवि होने का दावा प्रत्येक गीत में मुखरित हुआ है और वे सबसे पहले कवि हैं बाद में कुछ और। हरि का भजन भी वे करते होंगे , किन्तु उनका भक्तरूप कविरूप की अपेक्षा निश्चयपूर्वक कम झलक पाया है और उनके भावुक हृदय ने राधाकृष्ण के प्रेमकथानक का जो भावमय कवित्वपूर्ण चित्रण किया है, उसमें मानवीय प्रेम का पूरा चित्र उभर आया है र जयदेव ने भगवल्लीलागान तथा स्तोत्र की श्रृंखला में श्रृंगार का समन्वय कर दिया है। पहले श्रृंगारवर्णन में कवि ‘स’‘सा’, आदि सर्वनामों के माध्यम से अपनी बात कहते थे, किन्तु जयदेव ने उद्दाम श्रृंगारवर्णन में राधा-कृष्ण को नायिका-नायक के रूप में प्रस्तुत किया। पुराने छन्दों का छिट-पुट प्रयोग करते हुए श्री जयदेव ने संस्कृत में रागकाव्य की अभिनव परम्परा को गति दी। भावानुकूल भाषा में जयदेव सिद्धहस्त हैं। जयदेव का जन्म बंगाल में हुआ था, इसमें सन्देह नहीं कि वहाँ की लोकभाषा में प्रचलित गान की परम्परा ने उन्हें प्रभावित किया होगा। जयदेव के बाद अनेक कवियों ने उनके शिल्प का अनुसरण कर रागकाव्य लिखे। शिवकाशा
गीतगिरीशम्
‘गीतगिरीशम्’ के रचयिता रामभट्ट हैं, इनके पिता का नाम श्रीनाथभट्ट था। पुस्तक के अन्त में कवि ने इस तथ्य का संकेत किया है - किराती आसीदसीममहिमा स हिमावदातमूर्तेर्भवस्य चरणार्चनयाप्तकीर्तिः। श्रीनाथभट्ट इति तत्तनयेन रामनाम्नाद्भुतं व्यरचि गीतगिरीशकाव्यम् ।। (गीतगिरीश - १२४) इस कृति में एक स्थल पर कवि ने अपना नाम रामजित् भी लिखा है - रामजित्कविवर्णितं कलिकल्मषं विनिहन्ति। त लिई गीत गीतमेतदधीतमाशु लसघशोऽपि तनोति।। सामान ती एका गीतगिरीश ३८ गिल का काम , , 2018 व रामभट्ट ने ‘धनविभागविवेक’ नामक ग्रन्थ भी लिखा है। यह ग्रन्थ धर्मशास्त्रविषयक है। रामभट्ट नाम के सोलह ग्रन्थकारों का नाम प्राप्त होता है । रामभट्ट के समय के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है, किन्तु । एसियाटिक सोसाइटी कलकत्ता में १. डॉ. परमानन्दशास्त्री संस्कृतगीतिकाव्य का विकास पृ. ३०० २. द्रष्टव्य - रागकाव्यविमर्श : डॉ. प्रभातशास्त्री प. RRP मार दिनी ४६५ रागकाव्यपरम्परा विद्यमान गीतगिरीश की दो हस्तलिखित पुस्तकों का प्रतिलिपिकाल सन् १७०२ ई. उल्लिखित है। अतः इसके पूर्व की रचना होगी। डॉ. प्रभात शास्त्री के अनुमान के आधार पर इनका समय सोलहवीं शती ई. का पूर्वार्द्ध माना है। ‘भट्ट’ इस उपनाम से प्रतीत होता है कि रामभट्ट गुजरात अथवा महाराष्ट्र के निवासी रहे होंगे। इस ग्रन्थ की आत्मारामकृत टीका का भी उल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु यह टीका उपलब्ध नहीं है। इस रागकाव्य में बारह सर्ग हैं। कवि ने मंगलाचरण के बाद अत्यन्त श्रद्धापूर्वक श्रीहर्ष, भारवि, और कालिदास का स्मरण किया है। उसने यह भी स्वीकार किया है कि यह काव्य जयदेव के गीतगोविन्द के अनुकरण पर लिखा गया है। सर्वप्रथम कवि ने गणपति- वन्दना का एक गीत लिखा है, इसी से कथा का सूत्रपात होता है। अन्य रागकाव्यों की भाँति इसमें भी कुछ विशिष्ट प्रसगों को ही रूपायित किया गया है। इसमें प्रमुख पात्र के रूप में शिव तथा पार्वती हैं। सहयोगी पात्र के रूप में गंगा. जया और विजया इन तीन पात्रों को रखा गया है। इस प्रकार कुल पात्रों की संख्या पांच है। इसमें प्रणयबद्ध शिव तथा पार्वती के संयोग तथा वियोग के रसनीय प्रसङ्ग उद्भावित हैं। इसमें कुल बारह सर्ग हैं। बारह सर्ग होने के कारण इसे महाकाव्य नहीं कहा जा सकता। एक प्रतिलिपि में सर्गान्त में महाकाव्य शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है तथापि भामहादि की महाकाव्य की अवधारणा पर यह काव्य खरा नहीं उतरता अतः इसे प्रबन्धात्मक रागकाव्य ही कहना उचित है। यह रागकाव्य जयदेव के गीतगोविन्द की परम्परा में लिखा गया है इस तथ्य को लेखक ने स्वयं स्वीकार किया है-‘औसुक्यादहमधुना तथाऽनुकुर्वे लालित्यं जयदेवभारतीनाम्’ । (919) जयदेव का अनुकरण मात्र शिल्प की दृष्टि से है कथोकथन में कवि सर्वथा मौलिक है। कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार है। कोमलकान्त पदावली, सानुप्रासिक शब्दयोजना, वैदर्भी रीति, माधुर्य और प्रसाद गुण का पदे-पदे दर्शन होता है। कवि काव्यारम्भ में ललित गीत में विघ्नहर गणेश की वन्दना करने के बाद भगवान शिव के विराट रूप विशेष रूप से अष्टमूर्तियों का वर्णन करता है। यह गीत जयदेव के दशावतार वर्णन के समान हृदयावर्जक है। इसके बाद चेतनाचेतन को आप्यायित करने में समर्थ ऋतुराज का वर्णन करते हुए मूल कथावस्तु का श्रीगणेश करता है - में ही जिला नाही निस्किी सरस रसाल कुसुममंजरिका मधुपिंजरितदिगन्ते। काम गरी सामासान स्मरसृणिकिंशुकलग्नविरहि जन कालखण्डनिभ वृन्ते।। सिर विहरति पुररिपुरिह मधुमासे। रमयति सुररमणीरधिकं प्रतितरुकुसुमविकासे।। (धुवपद) सरसिजपत्रनिहितमदनाऽक्षरनिकरोपमितमिलिन्दे। कुण्ठितयुवतीहठकलकण्ठरवाऽहितयुववृन्दे।। फुल्लतमालनिवहतिमिरापहकृतकुरवकुसुमनीपे। र ४६६५ काव्य-खण्डमा नोति - 500 केसर बकुलगन्ध बन्धुरे झीनतविकुसुमनीपे।। मिनार मामला लापत्र (प्रथम सर्ग पृ.५) पनि म कि सपाली कवि ने काव्य के सभी गीतों में प्रायः समासयुक्त शब्दावली का प्रयोग किया है। बीच-बीच में पारम्परिक वर्णिक वृत्तों का प्रयोग किया है। गीतों की तुलना में वर्णिक वृत्तों में समासों का प्रयोग अल्पमात्रा में दिखाई देता है। अलकत शैली में रचित इस काव्य की भाषा प्रवाहपूर्ण है। लम्बे समासों का प्रयोग होने पर भी भाषा में काठिन्य नहीं आने पाया है। यही कारण है कि अन्य कलावादी कवियों की तुलना में इस काव्य की भाषा दुरूह नहीं हो पाई है। इसके गीत माधुर्यगुण से समन्वित हैं। नर-नारी के विभिन्न मनोगत भावों के चित्रण से यह रचना ओत-प्रोत है। भावनाओं को कवि ने शिव-पार्वती के माध्यम से व्यक्त किया है। एक स्थल द्रष्टव्य है जहाँ शिव के गले में समावेष्टित गंगा को देखकर जगन्माता पार्वती नारीसुलभ ईर्ष्या करती है। भगवान् शिव उनका अनुनय करते हैं - PA रम्यसेऽप्यनुतप्यसेऽपि च नम्यसेऽपि भाविनि! किती मोर ने लिया । एहि देहि च दर्शनं कुरु चाटुकानि नवानि।। ती निवि फि काम नाममा क्यासि साहसिके! विहासकशीलतामपहाय। गिए विकार विकास कम 18 माजीवयोरसि हेमकुम्भनिभौ कुचौ विनिधाय || जिकों p FE मन्तमर्हसि मन्तुमेतममे! न मे कदापि । कारिका का गलतमामा ARRHEATRE एवमाचरितास्मि मानिनि! दास एव सदाऽपि नाशि- की काश " (सर्ग-३ - पृ. १४) LETF काम __कवि कहीं-कहीं शिव-पार्वती का वर्णन सामान्य नर-नारी की तरह करता है। उदाहरणार्थ एक अष्टपदी का अंश देखें जो की काली कि मि कति (PR’सति रतिकाले लास्यसि बाले! स्फटिकगिरामिव शम्पा। एक शाकात की पुरहरहृदये रतिरणविदये पुरुषायित धृतकम्पा।। पंचमसर्ग पृ. २२ जना शिव पार्वती के विरह में सामान्य मानव की भाँति रोते हुए चित्रित किए गये हैं। रूपसाम्य के कारण चन्द्रमा की किरणों में पार्वती की प्रान्ति होती है तब शिव उन्मत्त वियोगी पुरुष की तरह रो पड़ते हैं कि शिशिरगावकीपिका “क्षिपति सशयनं दिशि नमत्रयति भवान्यविरामम् । श्वस्वितं तनुतेनर्मनमनुते ननु ते स्मरति निरामम् ।। बहु हा रावं ज्ञपयति भावं जड़ इव भवति कदाचित्।। सुरनरदानवनवललना न शिवं सखि! सुखयति काचित्।। (पंचम सर्ग पृ. २५) रागकाव्यपरम्परा YEU रामभट्ट इस कृति में अपना वैयाकरणत्व को प्रदर्शित करते हैं - सौरी, हैमवती, नैल्य, जैम्य, शारद, सौहृद प्रभृति तद्धित शब्दों का प्रयोग करते हैं। ‘तद्धितप्रिया दाक्षिणात्याः’ के आभाणक के आधार पर इनका दाक्षिणात्य होना सिद्ध होता है। कवि को साङ्गरूपक अलंकार बहुत प्रिय है। वर्णिकवृत्तों में शार्दूलविक्रीडित का प्रयोग विशेष करना चाहते हैं। शिखरिणी छन्द के मोहक पद्य भी इसमें प्राप्त होते हैं। रामभट्ट स्वरतालबद्ध ललित गीतों के गुम्फन में जितने दक्ष हैं, उतने ही सुन्दर शब्दों के चयन और वर्णिकवृत्तों . के लेखन में सिद्धहस्त दिखाई देते हैं।
रामगीतगोविन्दम्
‘रामगीतगोविन्द’ जयदेव की सुप्रसिद्ध कृति ‘गीतगोविन्द’ की परम्परा में प्रणीत सरस रागकाव्य है। इसके प्रणेता का नाम भी जयदेव ही है। संस्कृत के अनेक कवियों का नाम जयदेव है । रामगीतगोविन्द के रचयिता ने स्वयं अपने निवास स्थान की चर्चा की है, इससे ज्ञात होता है कि ये मिथिला के निवासी थे तथा अत्यन्त समादृत थे - श्रीमद्विदेहनृपदेशविशेषवासो निःशेषभूमिपतिमण्डलमाननीयः। प्रणात । एतच्चकार वरगानरसप्रधानं काव्यं कविप्रकरमौलिविभूषणं सत्। (रामगीतगोविन्द - ६४) कृतिकार ने प्रथम सर्ग में अध्यात्मरामायण, काकभुसुण्डिरामायण तथा हनुमन्नाटक की चर्चा की है। इससे यह सिद्ध होता है कि इसकी रचना चौदहवीं शताब्दी के बाद हुई। विद्वानों ने अध्यात्मरामायण का रचनाकाल १४०० से १६०० ई. के मध्य स्वीकार किया है। इससे यह तथ्य भी उजागर होता है कि द्वादश शताब्दी ई. में उत्पन्न बंगाल के नृपति लक्ष्मणसेन की सभा के कवि जयदेव से इसका रचनाकार कोई दूसरा जयदेव है। डा. प्रभात शास्त्री के अनुसार इसका काल १६२५ से १६५० ई. के बीच है। 19 गीतगोविन्द के अनुकरण पर यह काव्य प्रणीत है। लेखक जयदेव (गीतगोविन्दकार) की तरह प्रारंभ में अपनी रचना का प्रयोजन बताते हुए लिखता है – का यदि रामपदाम्बुजे रतिर्यदि वा काव्यकलासु कौतुकम्। किया। पठनीयमिदं तदौजसा रुचिरं श्रीजयदेवनिर्मितम्। मलान किनकि १, द्रष्टव्य - रागकाव्यविमर्शः डा. प्रभात शास्त्री पृ. ५१-५२ २. वाल्मीकिमाघकविना शतकोटि संख्यं रामायण विरचितं शशिमोलिना च। काकेन वायुत्तानयेन तथा परेण किञ्चित् करोति जयदेवकविश्चरित्रम् ।। (रामगीतगोविन्द ।।) ३. द्रष्टव्य - रागकाव्यविमर्शः डा. प्रभातशास्त्री पृ. ५२ YES काव्य-खण्ड
- इस पद्य में ‘तदौजसा रुचिरम्’ लिखकर कवि ने यह संकेत किया है कि यह रचना ओजोगुणमण्डित है। इसका वैशिष्ट्य यह है कि प्रायः सभी रागकाव्यों में श्रृंगाररस प्रधान है, किन्तु यह वीररस से समन्वित है। इस कृति में कुल छः सर्ग हैं। समनकाव्य में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का ओजस्वी चरित्र रूपायित हुआ है। काव्य का प्रारम्भ मंगलाचरण से हुआ है, कवि ने काव्यारम्भ में आदिकवि वाल्मीकि का स्मरण कर राम के दशावतार का वर्णन ‘जय जय राम हरे’ इस सुमधुर ध्रुवकसमन्वित गीत से किया है। विविध दृश्यों के वर्णन में कवि पटु है उदाहरणार्थ - ‘जयति विदेहनगरमनुरूपम्, दिशि-दिशि राजमान चामीकररचितविविधमणियूपम्। (सर्ग २ श्रृं. ३३) ‘पश्य-पश्य रघुवीर! प्रयागम्, मज्जदखिलमुनिगणमतिरागम् । नील-पीत-सितचित्रपताकम्, सुखसमूहशिथिलीकृतनाकम् । (सर्ग ३ पृ. ६६) इसी प्रकार चित्रकूट का मनोहारी वर्णन है-‘चित्रकूटमवलोकय सीते! उन्नतशिखिरलिखितघनमण्डलमङ्गलकरण विनीते’ ।। सानुप्रासिक शब्दयोजना तथा ध्रुवकविधान के लिए ‘नवीणा’ जैसे शब्द का निःसंकोच प्रयोग करता है-‘गायति सामखिलामृषि राजिरखण्डितवीणा। नृत्यति देववधू रुचिरायुतभावभरेण नवीणा। (पृ. १०३) पाण्डित्य प्रदर्शन के लिए कवि अप्रचलित शब्दों का प्रयोग करता है जैसे-‘अतसीपुष्पं’ के स्थान पर ‘रुमापुष्पं’ ‘दशरथः’ के लिए ‘पङ्क्तिरथः’ ‘कुम्भकर्ण’ के बदले ‘घटश्रुतिः’ इत्यादि। हस्तलिखित प्रतियों की पुष्पिकाओं में इसे महाकाव्य कहा गया है, किन्तु इसे प्रबन्धात्मक रागकाव्य कहना ही उपयुक्त प्रतीत होता है। प्रस्तुत काव्य भक्तों एवं गायकों के लिए अत्यन्त हृदयावर्जक है, इसमें सन्देह नहीं है।
गीतगौरीपति
गीतगोविन्द की परम्परा में प्रणीत ‘गीतगौरीपति’ (रागकाव्य) के प्रणेता भानुदत्त मिश्र हैं। डा. प्रभात शास्त्री ने भानुदत्तप्रणीत तिलकमंजरी में मैथिल नृपति के वर्णन को देखकर अनुमान किया है कि ये मिथिला के निवासी रहे होंगे’ गीतगौरीपति के षष्ठ सर्ग में अपने पिता के नाम का उल्लेख किया है - ‘कविगणनाथसुतस्य कवेरिति वचनं त्रिजगति धन्यम् । इससे इनके पिता का नाम गणनाथ सिद्ध होता है। इनके पिता का नाम गणपति भी मिलता है। गणपति भी संस्कृत के कवि थे। भानुदत्त ने धर्मशास्त्रविषयक ग्रन्ध पारिजात में इस प्रकार उल्लेख किया है - ‘यथा गणपतेः काव्यं काव्यं भानुकवेस्तथा। अनयोः संगमः श्लाघ्यः शर्कराक्षीरयोरिख।। भानुदत्त का भानुकर नाम भी मिलता है। भानुदत्तमिश्र न केवल कवि थे, अपितु काव्यशास्त्री भी थे। डॉ. पी.वी. काणे के अनुसार इनका जन्मकाल पन्द्रहवीं शती ई. का मध्यभाग है। । भानुदत्त के ग्रन्थ के नाम इस प्रकार हैं १- रसमंजरी, २- रसतरंगिणी, ३- अलकारतिलक, ४- रसपारिजात, ५- चित्रचन्द्रिका ६-गीतगौरीपतिः। १. रागकाव्यविमर्श पृ. ७५ २. संस्कृतकाव्यशास्त्र का इतिहास पृ. ३८१ रागकाव्यपरम्परा गीतगौरीपति भी जयदेव के गीतगोविन्द की परम्परा का ग्रन्थ है। काव्यारम्भ में उन्होंने अष्टमूर्ति शिव की वन्दना की है। इसकी कथा अत्यन्त संक्षिप्त है। रससिक्त यह रागकाव्य दश सर्गों में विभक्त है। इसमें भानुदत्त मिश्र ने शंकर-पार्वती की पवित्र प्रणय गाथा को भक्तिभावभरित सुललित गीतों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। प्रत्येक गीत के प्रारम्भ में उसके राग का भी उल्लेख किया है। कथासूत्र के संयोजन के लिए जयदेव की भाँति गीतों के बीच में वर्णिक वृत्तों की योजना की गई है। यह रचना श्रृंगाररसप्रधान है। श्रृंगार के संयोग तथा वियोग दोनों पक्ष उद्भावित हुए हैं। काव्य में सुन्दर गीतों की रचना की गई है, किन्तु रसतरंगिणी और रसमंजरी की रचना में कवि की भाषा इसकी तुलना में अधिक प्रौढ़ और ललित है। इससे प्रतीत होता है कि ‘गीतगौरीपति’ कवि की प्रारंभिक रचना है। कवि वसन्तराग में गाए गए गीत को अमृत द्रव के समान मधुर मानता है। इसी राग का एक गीत उदाहरणार्थ प्रस्तुत है - ‘चम्पकचर्चितचापमुदञ्चितकेसरकृततुणीरम् । मधुकरनिकरकठोरकवचचयपरिचितचारुशरीरम् ।। अनुरञ्जय पश्य वसन्तम्। विकचबकुलकुलसङ्कुलकाननकुसुममिषेण हसन्तम् ।। (गीतगौरीपति पृ. ७) रागकाव्यों में कवियों ने यथासंभव सरल भाषा और कोमलकान्त पदावली का प्रयोग किया है किन्तु भानुदत्त मिश्र इसके विपरीत कहीं-कहीं पाडित्य प्रदर्शन भी करना चाहते हैं, फलतः कुछ अप्रचलित शब्दों का प्रयोग कर देते हैं। यथा - महिष के लिए कासर, यमराज के लिए शमन, जल के लिए पाथस् शब्द का प्रयोग। ‘किमु यम कासर खुरपुटधूली’ (पृ. २६) ‘शममहिष चिररोमन्थ’ - (पृ. ६०) भानुदत्त मिश्र की रचना जयदेव की भांति सरस नहीं है, फिर भी उसे असुन्दर नहीं कहा जा सकता। शिवभक्तों और गायकों के लिए अवश्य ही यह रचना स्वागतार्ह है।
पार्वतीगीतम्
रागकाव्य ‘पार्वतीगीत’ के प्रणेता जयनारायण घोषाल का जन्म कलकत्ता के निकट गोविन्दपुर नामक ग्राम में हुआ था। इनका जन्म १७५१ ई. के सितम्बर महीने में हुआ था। सोलह वर्ष की अवस्था में इन्हें संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी, फारसी और बंगला भाषा का ज्ञान हो गया था। सन् १८१४ ई. में ये कुछ दिन के लिए वाराणसी आ गए थे। इनकी वंशावली वाराणसी से प्रकाशित पत्रिका हंस में छपी थी, जिसका उद्धरण डॉ. प्रभात शास्त्री ने अपने ग्रन्थ में दिया है। १. रागकाव्यविमर्श : पृ. ३ ५०० काव्य-खण्ड - यह रागकाव्य भी गीतगोविन्द की परम्परा में प्रणीत है। इसकी कथा का विभाजन बारह पटलों में हुआ है। इसमें शिव और पार्वती का पावन चरित्र सरल और सरस भाषा में अभिवर्णित है। इस काव्य के सुमधुर गीतों में शब्दप्रयोग का चातुर्य और भाषा का माधुर्य पदे-पदे दिखाई देता है। कवि ने अध्याय अथवा सर्ग के नाम से कथा का विभाजन न कर पटल नाम से किया है। पटल शब्द का प्रयोग प्रायः तन्त्रग्रन्थों में किया जाता रहा है। वस्तुतः यह गीतकाव्य भी तन्त्र से प्रभावित है। इसीलिए कवि ने प्रारंभिक गीत - जय जगदम्ब शिव! - में ‘बगलामुखि!’ ‘छिन्नमस्ते!’ ‘भैरवि’, ‘भुवनेश्वरि’ ‘तारे’ प्रभृति शब्दों का सम्बोधन किया है। इस रागकाव्य में अनेक गीत अनवद्य और रसरंजक हैं। उदाहरणार्थ - - निकिका सानानन्दनरूपिका शिवमनस्सन्तोषिका शोषिका, या पापानामघपोषिका त्रिजगतामुत्पादिका हारिका। भक्ते मुक्तिविधायिका रिपुकुलप्रोन्माथिका दीपिका, या मोहप्रबलान्धकारहरणे सा पातु वश्चण्डिका ।। (पटल १०५२) ‘पार्वतीगीतम्’ के कुछ गीत अवश्य ही जयदेव के गीतगोविन्द के समान हृदयावर्जक हैं। वसन्तवर्णन का एक स्थल देखें ‘परमुन्मदमिथुनकपालम्। विलसति विरहतजनकृततापं । मधुसमये हर नगरवनम्।। ध्रुवपद अमरकदम्बविचुम्बितमल्लीवल्लीरचितनिकुञ्जम्। रमणीमण्डलमानविखण्डन पण्डित परभृतगुञ्जम् ।।१।। (षष्ठपटल पृ. १८) इस प्रकार अनेक सुललित सरस सहृदयहृदयाह्लादक गीत इस कृति में उपलब्ध हैं। इस कृति की विशेषता यह है कि परम्परागत रागों में आंशिक परिवर्तन के साथ कुछ नवीन रागों का प्रयोग कवि ने किया है। मुगलकालीन अनेक रागों का प्रयोग कवि ने किया है। कृतिकार पर अयोध्या में प्रचलित रामविषयक रसिक सम्प्रदाय का प्रभाव भी दिखाई देता है। परिणामतः इसके रचनाकार जयनारायण घोषाल शिव-पार्वती में अत्यन्त आस्थावान् होने पर भी पार्वती-परमेश्वर के ताण्डवनृत्य का वर्णन न करके उनके रास का वर्णन किया the रागकाव्यपरम्परा
गीतगङ्गाधरम्
प्रस्तुत रागकाव्य (गीतगंगाधर) के प्रणेता स्व. डा. राघवन् के अनुसार कल्याण कवि हैं। जयदेव के अनुकरण पर प्रणीत यह रागकाव्य द्वादश सगा में विभक्त है। मद्रास से डा. राघवन् के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘न्यू कैटलागस कैटलागोरम्’ नामक ग्रन्थ के तृतीय भाग के २४८ पृष्ठ पर कल्याण नामक तेईस कवियों का उल्लेख है, प्रस्तुत रागकाव्य का प्रणेता कल्याण को ही माना गया है। कल्याण के जीवनपरिचय के सम्बन्ध में प्रामाणिक जानकारी नहीं प्राप्त होती। प्रथम सर्ग के दो गीतों में ऐसा वर्णन मिलता है, जिससे प्रतीत होता है कि इनके पिता का नाम विष्णु था - ‘इति गिरिजायाः जयति जायायाः निकटगताया वाणी, विष्णुजभणिता शिवसखिगणिता मानिनिशातकृपाणी’ ।। तथा-‘एवमेतदुमानुकूलनवर्णनं सुखदायि विष्णुसम्भवकेन यन्निरयापहं निरमायि’ ।। (सर्ग प्रथम पृ. १०) कवि का समय भी बिवादग्रस्त है। इस रागकाव्य में नवीन रागों की योजना की गई है। इससे प्रतीत होता है कि इसका रचनाकाल चौदहवीं या पन्द्रहवीं शताब्दी ई. होगा। इसकी एक प्रतिलिपि का काल संवत् १७२७ है - ‘संवत् १७२७ वर्षे मार्गशीर्ष सुदि १४ सोमे लिखितम्।’ इससे सिद्ध होता है कि इसके पूर्व इसका प्रचार हो चुका रहा होगा। इसमें कुल बारह सर्ग है। प्रत्येक सर्ग की समाप्ति में वर्णनीय विषय के अनुसार उसका नामकरण किया गया है। यथा - १- शिवानुनयः, २- शिवानुकूलनवसन्तवर्णनम्, ३ विभीषिकाप्रदर्शन, ४- सोत्कण्ठितशिव, ५- पार्वतीप्रसादन, ६- पार्वतीपश्चात्ताप, ७ कलहान्तरितावर्णन, ८- पार्वतीदशा, ६- उत्कण्ठिता, १०- मुदितमन्मथान्तक, ११- शिवप्रसादन, १२- स्वाधीनपतिकाशिवसौभाग्यवर्णन । इसी से इसके वर्णनीय विषय का अनुमान लगाया जा सकता है। इसमें २५ प्रबन्ध हैं। जयदेव के अनुसार इसके रचयिता ने भी प्रत्येक गीत को प्रबन्ध कहा है। यद्यपि इस काव्य पर जयदेव का भरपूर प्रभाव दिखाई देता है फिर भी पदप्रयोगनैपुण्य, कोमलपदशय्या, माधुर्यादि का विधान करने में कवि मौलिक है। उदाहरणार्थ एक गीतांश देखें - की रक्षा धवलगविस्थधवलशशिभूषणधवलधुनीधरदेवम्। मा धवलवृषध्वजधवलवपुर्धरधवलविभूतिदसेवम् ।। सा ददर्श गिरिजा गिरिशं गुरुशङ्कितसस्मितचित्ता ।। ध्रुवपद इसी प्रकार यथास्थल प्रयुक्त वर्णिक वृत्तों की भाषा भी माधुर्यगुणयुक्त तथा मनोहारिणी है। अन्य रागकाव्यों की भांति वसन्तवर्णन में कल्याणकवि की भी अभिरुचि है - मानिनि दिशि दिशि पश्य वसन्तम्। ती त्वामिव कुसुममिषेण हसन्तम्।। पृ. १५ गया इस प्रकार रसमय वर्णन से समस्त काव्य ओत-प्रोत हैं। ५०२ काव्य-खण्ड
गीतपीतवसनम्
जयदेव के गीतगोविन्द की परम्परा में प्रणीत रागकाव्य ‘गीतपीतवसन’ के प्रणेता श्याम रामकवि हैं। इनके स्थानादि के सन्दर्भ में जानकारी नहीं मिलती। डॉ. उमेश मिश्र के प्रयागस्थ निजी संग्रहालय से इसकी पाण्डुलिपि प्राप्त कर डॉ. प्रभातशास्त्री ने इसका सम्पादन किया है। काव्य के अन्तिम सर्ग के एक पद्य से पता चलता है कि इनके पिता का नाम दशरथ तथा माता का नाम अन्नपूर्णा था। राधा तथा माधव की केलि पर प्रस्तुत काव्य आधारित है। कवि का कथन है - माता यस्य धराधरेन्द्रतनयातुल्याऽनपूर्णा कृती, तातो यस्य महाशयो दशरथो निष्ठावशिष्ठाऽधिकः। राधामाधवकेलिकौशलकथां कान्तां कवीनां मुदे, काव्यं भव्यमिदं चकार स नवं श्रीश्यामरामः कविः।। 215 (सर्ग-१० पृ. ३६) स्वर, ताल तथा लय से समन्वित यह काव्य दश सर्गों में उपनिबद्ध है। सभी सर्ग अत्यन्त अल्पकाय हैं, गीतों के मध्य अन्य रागकाव्यों की तरह इसमें भी वर्णिक पद्यों की योजना की गई है। काव्य में श्रृंगार रस का विशेष रूप से परिपाक हुआ है। इसमें श्रीकृष्ण तथा राधा की प्रेमपूर्ण सरस कथा उपनिबद्ध है। काव्य का उद्देश्य बताते हुए कवि कहता हरिस्मरणसादरं यदि मनोमनोजन्मनः, कलासु विमलासु चेत् किल कुतूहलं वर्तते। तदानुपदमुल्लसन्मधुरिमैका बुधाः, “सुधारससमा रसैः श्रृणुत मामकी भारतीम् ।। (सर्ग-१ पृ. १) कवि का कहना है कि यदि विद्वानों ने अमृत के समान महाकवि कालिदास और जयदेव के रस का पान किया है तब मेरे काव्य ताम्बूल के रूप में ग्रहण करें - गीतं बुधैर्यदि सुधासममेव पीतं श्रीकालिदासजयदेवकविप्रणीतम्। ताम्बूलतुल्यमपि ते मम मानयन्तु श्रीगीतपीतवसनं मदनुग्रहेण ।। (प्रथमसर्ग - पृ. २) कवि अपनी विनयशीलता का प्रदर्शन भी करता है। इसे अपने कवित्व का अभिमान नहीं है। इस कवि की भी वसन्तवर्णन में अभिरुचि है - ‘मधुरिपुरिह विहरति मधुमासे, माधविकासुमधुरमधुमादितमधुकरनिकरविलासे । - (सर्ग १ पृ. ४१)। रागकाव्यपरम्परा राधामाधव के वियोग का एक गीतांश देखें-राधा कहती हैं - ‘स्मरति न मामपि बत वनमाली’ तथा कृष्ण के पास प्रस्तुत सन्देश देखें - ‘माधव! बहु विलपति तव राधा। मदनविशिखचयविरचितबाधा।। समस्यामा चटुलपटीरसुरभिमतिधीरं कलयति विषमिव मलयसमीरम्।। निगदति विरचितकरुणविरचनम्। हरि हरि हरि रिति हरिरिति वचनम्।। PERFEE (सर्ग ४ -पृ. १७) कवि के शब्दों में ही काव्य की स्थिति अवलोकनीय है - ‘श्रृङ्गारसारतरभारकथासमेतं श्रीमन्मुकुन्दचरणस्मरणानुबन्धि । श्रीश्यामरामरचितं मुखभूषणाय श्रीगीतपीतवसनं सुधियां सदास्तु।। (सर्ग - १० पृ. ३३)
कृष्णगीतम्
यह एक लघुकाय रागकाव्य है। इसके लेखक कविचक्रचूडामणि की उपाधि से विभूषित श्री सोमनाथ मिश्र हैं। इनका स्थान और समय के बारे में निश्चित सामग्री नहीं प्राप्त होती। इनके नाम और कुल का ज्ञान काव्य के पद्य से प्राप्त होता है - ‘श्रीराधिकानवलकेलिवशीकृतस्य कृष्णस्य गीतमिदमद्भुतभावपूर्णम् । कृष्णाङ्घ्रिपद्ममकरन्दलिहां नराणामानन्दनाय कुरुते द्विजसोमनाथः ।। काव्यान्त की पुष्पिका में ‘श्रीसोमनाथमिश्रविरचितं कृष्णगीतं समाप्तम्’ ऐसा लिखा है ‘मिश्र’ यह उपनाम उत्तरभारत के ब्राह्मणों का है अतः ये उत्तर भारत के रहे होंगे, डा. प्रभातशास्त्री ने अनुमान किया है। कवि द्वारा जयदेव के उल्लेख तथा सूरदास के शब्दानुहरण के आधार पर डा. शास्त्री ने इनका समय विक्रमसंवत् १६२५ (१५६८ ई.) के आस-पास स्वीकार किया है।’ कविवर सोमनाथ की कृष्णभक्ति और विनम्रता उनके कथन से ही स्पष्ट है रागकाव्यविमर्शः पृ. १२५। डा. मियबालाशाह ने इस काव्य का नाम अपने संस्करण में कृष्णगीतिः तथा कवि सोमनाथ का समय चौदहवीं शती के आसपास माना है, क्योंकि सोमनाथ ने कोकशास्त्रकार कोक (१२५७ वि.सं. या १२०० ई. के लगभग) का उल्लेख किया है तथा म सोमनाथ का उल्लेख नाभाजी के भक्तिमाल (१६वीं शती) में प्राप्त होता है।१०४ काव्य-खण्ड न स्पर्धा जयदेव पण्डितकृतौ ना रजनीया बुधाः, गामा राजभ्यो धनलाभलोभकलया न व्याकुला मन्मतिः। भक्ताः किं नु हरेर्गुणानुकथने रक्ता भवन्त्येव नो तन्मे स्वस्य मनोविनोदनकृते कृष्णस्य गीतङ्कृतम्।। यह रागकाव्य गीतगोविन्द की तरह सर्गों में विभक्त नहीं है। कवि ने केवल कथासंयोजन के लिए गीतों के बीच में वर्णिक वृत्तों की रचना की है। डॉ. प्रभातशास्त्री ने इस काव्य पर सूरसागर के शिल्प का प्रभाव स्वीकार किया है। माधुर्ययुक्त शब्दयोजना तथा रससिक्तवर्णनों से काव्य परिपूर्ण है। प्रातःकाल के समय की राधा की कान्ति का एक दृश्य देखें - ‘अद्भुतशोभारजनि विरामे सखि सम्प्रति राधिकाशरीरे निजपतिपूरतिकामे। गलिताधरशोणिमशिथिलालकशोभितवदनसरोजे। मुकुलितलोचनचुम्बनलम्बितकज्जलमुदितमनोजे।। कृष्णगीति : इस काव्य में गीतगोविन्द के समान अष्टपदियों का प्रयोग है, जो विभिन्न रागों में गेय हैं। कुल पन्द्रह राग इस काव्य में निर्दिष्ट हैं। सोमनाथ की पदावली में गीतगोविन्द का लालित्य, लय और सुगानत्व परिस्फुट है। वस्तुतः भाषा ही नहीं भावाभिव्यक्ति तथा विषय की दृष्टि से भी जयदेव की पुनरावृत्ति ही सोमनाथ ने अधिक की है। आकार में यह रचना गीतगोविन्द से छोटी है। कुल बीस अष्टपदियां इसमें है, तथा कुछ अंश पारम्परिक छन्दों में भी निबद्ध हैं। अन्त्यानुप्रास का निर्वाह अष्टपदियों में सर्वत्र सफलता के साथ किया गया है। यथा – गच्छति घनवनयमुनातीरम् । की रहसि विमुञ्चति लोचननीरम् । । प्रत्येक अष्टपदी के अन्त में जयदेव की भांति कवि सोमनाथ ने भक्त के रूप में अपना नाम दिया है। पल का जीवन का अष्टपदियों के ही साथ-साथ पारम्परिक संस्कृत छन्दों में कवि ने समान लालित्य और मसृण पदावली के विन्यास के साथ रचना की है। वस्तुतः प्रत्येक अष्टपदी के पूर्व इस प्रकार के छन्दों के युग्मक या कुलक आदि विन्यस्त हैं, जिनका रचनाबन्ध रमणीय है। पृथ्वी छन्द का यह उदाहरण देखिये - ५०५ रागकाव्यपरम्परा वनावलि विलासिनं सरसराधिकालासिनंगी रिका निकुञ्जगृहवासिनं व्रजकुलाम्बुजोभासिनम्। शशाङ्कसितहासिनं तरुणयोषिदुद्भासिनं पुमांसमनुदासिनं स्मरत मेघसंकाशिनम् ।। (द्वितीय अष्टपदी के पूर्व) अन्त्यानुप्रास के व्यामोह में कवि इसी गीत में ‘गमन’ के स्थान पर ‘गमण’ का प्रयोग करता है ‘अतिरुचिरुचिकरलम्भितनीवीदर्शनघर्षित रमणे, मन्थरचरण विहारविनिर्जितमदवारणवरगमणे।। (कृष्णगीतम् - पृ. २२) भक्ति और श्रृंगाररस से पूर्ण यह रचना भले ही गीतगोविन्द के स्तर की नहीं है, किन्तु इसे असुन्दर भी नहीं कहा जा सकता।
संगीतगङ्गाधरम्
‘संगीतगंगाधर’ रागकाव्य के लेखक नंजराज हैं। इनके पिता का नाम वीरराज था। ये मैसूर के निवासी थे। सत्रहवीं शदी के मध्य इनका कार्यकाल विद्वानों ने स्वीकार किया है। नजराज ने हालस्य माहात्म्यम्, भक्ति विलास-दर्पण, काशीमहिमादर्पण, ककुगिरिमाहात्म्य, मार्कण्डेयपुराण, शिवधर्मोत्तर, शिव भक्तिमाहात्म्य, हरदत्ताचार्यमाहात्म्य, आदि अन्य ग्रन्थों की भी रचना की है। संगीतगंगाधर छ: सर्गों में विभक्त रागकाव्य है। प्रारंभिक मंगलाचरण में कवि ने गुरुरूपी शिव शक्तिरूपिणी गौरी की वन्दना की है। तदनन्तर वह अपने वंश का तथा अपना वर्णन करता है और अष्टमूर्ति शिव की स्तुति करता है। यह वर्णन जयदेवकृत गीतगोविन्द के दशावतारवर्णन का स्मरण दिलाता है। काव्य श्रृंगाररसोज्ज्वल, शिवभक्तिपरक सुधास्यन्दी गीतों के कारण मनोहर है जैसा कि कवि ने स्वयं भी कहा है “श्रृंगारैकरसोज्ज्वलैश्शिवपरैःसूक्तैस्सुवास्यन्दिभि गीतवातमनोहरं विरचये संगीतगंगाधरम् ।। (११) १. श्रीशैलजाचरणसारमसक्तचित्तः श्रीकण्ठपादसरसीसहचंचरीकः । श्रीवीरराजवसुधाधिपतेः कुमारः श्रीनंजराजसुकविः कुरुते प्रबन्धम् ।। (11 तथा - इत्यं विश्रुतवंशमौक्तिकमणिः श्रीबीरराजात्मजः, सौदर्योऽपि च देव भूपतिमणेस्तत्त्वं कवीनां मुदे। काव्यं कोमलमेकमुत्तमगुणैराकल्पितं कल्पय त्येवं संप्रति बोधिनो बुधगणैः कुर्वे प्रबन्ध नवम् ।। ११८ काव्य-खण्ड काव्य में शिव और पार्वती की प्रणय-गाथा का सरस चित्रण हुआ है। काव्य का कथासार कवि ने इस रूप में निर्दिष्ट किया है - ‘क्रीडाकौतुकतत्परे परशिवे साकं मुनिप्रेयसी जातेकातरतामुपेत्य विपिने मोहाकुलाभूदुमा। पश्चात्संगतयोस्सखीवचनतः सप्रेम संजल्पतो गौरीशङ्करयोर्जयन्ति कपिलातीरे मिथः केलयः।। । सुललित मालवराग से काव्य का प्रथमगीत प्रारंभ होता है - ‘कलयति कमलभवे, निखिलं भुवनतलं, सकलचराचरजनननिमित्तम्। धूर्जटे! धृतसलिलशरीरे! जय गरनगरविभो! 119 जाना सभी रागकाव्यकारों की भाँति वसन्तराग नजराज को भी प्रिय है - विविधविहंगनिनादवलीकृतबल्लवयुवतिकदम्बे। अविरलकुसुमसमूहसमाश्रितभृङ्गवधूनिकुरम्बे।। विहरति पुररिपुरिह हि वनान्ते।।। सन्नतभक्तगणेन समं चिरकुसुमितभूजवसन्ते। ही मामला अनुपममदकलहंसगलोदितमधुररवामृतपूरे।। घनततिविहरनिमीलितलोचनकारिततोषमयूरे। विहरति पुररिपुरिह हि वनान्ते (पृ.७) इस रागकाव्य का वैशिष्ट्य है कि प्रत्येक सर्ग में एकाधिक रागमयगीतों की योजना की गई है। भाषा विषयानुकूल है, समासों का अत्यन्त अल्प प्रयोग है। प्रसाद तथा माधुर्य गुण और वैदर्भीरीति आद्यन्त विद्यमान है। और इस रचना के सन्दर्भ में कवि की काव्यान्त में अभिव्यक्त अवधारणा सार्थक दिखाई देती है - ‘या सङ्गीतकलारहस्य कलना या साहिती माधुरी या च श्रीरखिलावनीविलसिता भक्तिश्च या शाङ्करी। तत्सर्वं वरवीरनंजनृपतेः साहित्यचूडामणेः सारज्ञा परिशोधयन्तु कृतिनः सङ्गीतगंगाधरे।। रागकाव्यपरम्परा ५०७
गीतराघवम्
गीतराघव की एक हस्तलिखित प्रति श्री अरुणकुमार (शुक्ल) (२३३ गान्धीमार्ग धार (म.प्र.)) के पास सुरक्षित है। इसके रचनाकार पण्डित प्रभाकर शुक्ल हैं, इसकी प्रतिलिपि सं. १८५१ में श्री परशुराम शुक्ल द्वारा की गई है। मूलग्रन्थ में केवल ‘प्रभाकर’ मिलता है। इसलिए वे शुक्ल थे या नहीं यह अनुसंधान का विषय है। इसका रचनाकाल वि. संवत् १६७४ (१६ १७ ईस्वी) है। काव्यान्त की पुष्पिका में कृतिकार का नाम एवं रचनाकाल उल्लिखित है - निगमवाजिरसक्षितिभिर्गते गणनमत्र समानिचये शुभे। तपसि मासि सितेतर सप्तमी सुरगुरौ क्षितिपालक विक्रमात् ।। निखिल कविवर प्रभाकराख्यो रघुपतिपादसरोरुहात्तचित्तः। रचयति रुचिरैः पदैर्मनोज रघुपतिवर्णनमात्मशक्तितुल्यम्।। । इस रागकाव्य का प्रारंभ गणपति-वन्दना से हुआ है। तदनन्तर ललित राग में निबद्ध दशावतार की स्तुति है - “जगदवनाय लये धृतवानसि श्रृङ्ग कमलमिवाविकचं धनमृगं मी II राधव धृतमीनशरीरे! भव भवतापभिदे। गीतों में प्रायः जयदेव के गीतगोविन्द के रागों को रखा गया है। यहाँ सीता तथा राम के प्रणयप्रसङ्गों को रूपायित किया गया है। रागों के बीच में पारम्परिक वर्णिक वृत्तों, कथासूत्रों को संकेतित किया गया है। इसमें उद्दाम श्रृंगार का वर्णन नहीं है, भक्ति और श्रृंगार का समन्वित प्रवाह दिखाई देता है। अत्यन्त मर्यादित वर्णन है। भाषा परिनिष्ठित तथा प्रसाद और माधुर्य गुण से मण्डित है। इस काव्य में श्रृङ्गारेतर अन्यान्य प्रसग भी उद्भावित हैं। उदाहरणार्थ - वानरनायक-सोदरलक्ष्मण शोभितकपिपरिवारम् । बद्धनिषंगधनुर्धरकोपित शोणितनयनमुदारम्। त्यज सति! जानकि! शोकभयम् । विलोकय रघुपतिमेवमये! 2 horor.क वट काव्य-खण्ड इसमें १२ पद हैं। इस प्रकार प्रायः १२ पदों वाले गीत हैं। इस गीत का राग भी। रामगिरि है। इसी प्रकार हनुमान् का सन्देश भी देशारव राग में उपनिबद्ध है - दिशि दिशि दिशति विलोलमुदारं नेत्रयुगं विगलितजलधारं जानकी रघुनन्दन! सीदति।। । इस प्रकार कथा के अन्यान्य मार्मिक प्रसङ्ग चित्रित हैं। रामकथा पर महाकाव्यादि लिखने वाले कवियों की भाँति प्रभाकर कवि भी राधाकृष्ण के प्रणय-प्रसङ्गों से भिन्न आदर्श चरित्र की ही उद्भावना करने में अभिरुचि रखते हैं।
जानकीगीतम्
रागकाव्य ‘जानकीगीतम्’ के कर्ता स्वामी हर्याचार्य हैं, जो मधुराचार्य तथा रामप्प्रपन्नाचार्य के पट्टशिष्य थे। ये जयपुर के गलतागद्दी के बत्तीसवें आचार्य थे। जानकीगीतम् गीतगोविन्द की शैली पर लिखा गया है तथा श्रीराम की मधुरोपासना का काव्य है। यद्यपि इस काव्य की योजना गीतगोविन्द के ही समान है, पर गीतगोविन्द की द्वादशसर्गात्मक परिकल्पना के स्थान पर यहां छ: सर्ग हैं। राम को कवि ने सच्चिदानन्द परात्पर ब्रह्म तथा रसिक शिरोमणि के रूप में देखा है तथा सीता को उनकी चिरन्तन प्रिया के रूप में। राम के सौन्दर्य का वर्णन लोकोत्तर कमनीयता और नयनाभिरामता की छवि को प्रस्तुत करता है - निर्मलमलयजचर्चितमम्बुजकान्तवपुषमनुदारम्। जितचपलावलि-गौर-वसनमति-कुञ्चितकुन्तलभारम्। गीतगोविन्दवत् काव्य के प्रथम सर्ग में वसन्त का वर्णन है। वहां ‘विहरति हरिरिह सरसवसन्ते’ की टेक है, तो यहां ‘विलसति रघुपतिरतिसुखपुजे’ की। गीतगोविन्द में कृष्ण की रासलीला है, तो यहां भी रामलीला के स्थान पर रासलीला है। वस्तुतः पदावली, भाव, वस्तुनिरूपण - सभी स्तरों पर जानकीगीतम् के कवि ने जयदेव का सफल अनुकरण किया है। रामभक्ति की धारा बहाते हुए उसने गाया है –f रघुकुलकमलविभाकर सुखसागर हे HRDER निजजनमानसवास का भी नामा जय जय दाशरथे! मागणीजना १. हनुमव्येस अयोच्या से रसबोधिनी टीका सहित प्रकाशित, वि. कं. २००६ चारुशीला मन्दिर, अयोध्या से वि.सं. २०३७ में पुनः प्रकाशित। मांग की २. सम्पादक - जी. मकलासिदैया, एच, गणपति। प्र. प्राच्यविद्यासंस्थान, मैसूर विश्वविद्यालय १EO रागकाव्यपरम्परा नीलनलिनरुचिसुन्दर गुणमन्दिर हे पीतवसन मृदुहास जय जय दाशरथे! -
सङ्गीतराघव
‘सङ्गीतराघव का रचनाकाल अठारहवीं शती का मध्यभाग है। इसके रचयिता दक्षिण के पेरिपुरग्रामवासी श्रीराम कवि हैं। इस काव्य में भी गीतगोविन्द का अनुकरण करते हुए श्रीराम का शृंगारमय स्वरूप चित्रित है। TELE