कोहल, अभिनवगुप्त, हेमचन्द्र आदि आचार्यों के रागकाव्यविषयक विवेचन से इसके लक्षण को इस प्रकार व्यवस्थापित किया जा सकता है - शु किपिलाकामा (१) रागकाव्य लय तथा ताल से युक्त गेय काव्य है। कि । साम (२) इस पर नृत्य तथा अभिनय किया जा सकता है। नृत्य के साथ गायन के लिये लिखा गया गीत भी रागकाव्य कहा जा सकता है, और कवि ने मूलतः नृत्य की संगत के लिए गीत न भी लिखा हो, पर वह लय और ताल में निबद्ध हो तथा उस पर नृत्य तथा अभिनय हो सके, तो उसे रागकाव्य माना जाना चाहिये। (३) रागकाव्य की प्रमुख विशेषता राग-बद्धता है। कई गीत एक ही राग में गाये जायें या अलग-अलग रागों में, सामान्यतः दोनों स्थितियों में प्रबन्ध को रागकाव्य कहा जाना चाहिये। वा प्रमाणात (४) रागकाव्य में ध्रुवक (स्थायी) का प्रयोग होता है। * म अंतिम लक्षण को ऊपर उद्धृत किसी भी आचार्य ने स्पष्टतः कहा नहीं है। पर नृत्य की संगत में गाये जाने वाले गीत यदि रागकाव्य हैं, तो उनमें ध्रुवक स्थायी का प्रयोग होगा ही। आधुनिक गायन में भी गीत में स्थायी तथा अन्तरा सदैव रहता है। संभवतः रागकाव्य का यह लक्षण इस प्रकार सर्वविदित था कि आचार्यों ने इसे कहने की आवश्कयता नहीं समझी। निमामि या मायामा प्रस्तुत अध्याय में रागकाव्य के नाम से जिन अध्यायों प्रबन्धों का विवेचन है, उन सभी में प्रत्येक गीत में ध्रुवक है। अतः रागकाव्यलक्षण में यहां ध्रुवक की अनिवार्यता हमने मानी है।