२४ उपसंहार

काव्यात्मक समृद्धि, विविधता तथा विपुलता की दृष्टि से संस्कृत का गीतिकाव्य अन्य किसी भी विधा से न्यून नहीं है। प्रवृत्तियों तथा विषयवस्तु की दृष्टि से तो सर्वाधिक विविधता गीतिकाव्यों में ही मिलती है। इस आधार पर संस्कृत गीतिकाव्य तथा लघुकाव्यों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - (१) उपदेशपरायण काव्य - जैसे क्षेमेन्द्र के दर्पदलन, सेव्यसेवकोपदेश या जल्हण का मुग्धोपदेश आदि। (२) चिन्तनप्रधान या विचारप्रधान-जैसे क्षेमेन्द्र का ही चतुर्वर्गसङ्ग्रह। (३) यथार्थवादी - जैसे क्षेमेन्द्र की समयमातृका या कलाविलास गार की (४) कथात्मक या खण्डकाव्य - ताराशशांक, भिक्षाटनकाव्य आदि। (५) अन्योक्तिपरक - अन्योक्तिमुक्तावली, अन्योक्तिमाला आदि। (६) मनोव्यक्तिमूलक या व्यक्तिवादी - उदाहरण के लिए आत्मनिन्दाष्टक . (७) शृङ्गारप्रधान (८) वर्णनप्रधान - जैसे ऋतुवर्णन आदि। आधुनिक दृष्टि से व्यक्तिवाद के लिये संस्कृत काव्य-परम्परा में अवकाश नहीं है। पर गीतिकाव्य के अनेक श्रेष्ठ सर्जकों ने मन की अनुभूतियों को अन्तरंग रूप से अपनी रचनाओं में प्रकट किया है। उनकी दृष्टि अपनी कुण्ठाओं, वासनाओं और विकारों से मुक्त होकर उदात्त और सार्वभौम धरातल पर आरोहण करने के लिये समर्पित है। इसी प्रकार क्षेमेन्द्र तथा नीलकण्ठ दीक्षित के लघुकाव्यों में अपने समय के समाज का कच्चा चिट्ठा बेबाक ढंग से खोल दिया गया है, वहां भी कवि की दृष्टि समाज को उन विकारों और पतनशील प्रवृत्तियों से उबारने का संकल्प लेकर ही चलती है। कुल मिलाकर संस्कृत गीतिकाव्य-परम्परा की श्रेष्ठ रचनाओं में मनुष्य के संकल्प, आस्था, संघर्ष और जिजीविषा तथा उसके प्रेम, शृंगार और सौन्दर्य का श्रेष्ठतम अंश प्रकट हुआ है। कोश की FE TIPार का की