२१ आत्मनिन्दाष्टकम्

आत्मनिन्दाष्टकम् संस्कृत गीतिकाव्य-परंपरा में अपने ढंग की अलग ही रचना है। भावसांद्रता, गहन आत्मनिरीक्षण, स्पष्टवादिता, समाजदृष्टि और अभिव्यक्ति की सहजता का ऐसा संगम बहुत कम ही देखने को मिलता है। आठ पद्यों में से प्रत्येक हृदय में सीधे उतरता चला जाता है। लिछार निती यह किसी अज्ञात जैन मुनि की कृति है, जिसका देशकाल भी अविदित है। तीसरे पद्य के उल्लेख से लगता है कि रचयिता श्वेतांबर सम्प्रदाय का है। मुनिसमाज में व्याप्त दिशाहीनता और अंतर्विरोध को इस कवि ने बिना किसी लाग लपेट के सहज हृदय से यथातथ्य चित्रित कर दिया है - कट्यां चोलपटं तनौ सितपटं कृत्वा शिरोलुञ्चनं तो स्कन्धे कम्बलिकां रजोहरणकं निक्षिप्तकक्षान्तरे। हातमा दिली होकि वो वस्त्रमथो विधाय ददतः श्रीधर्मलाभाशिषं । का वामक वेषाडम्बरिणः स्वजीवनकृते विद्मो गतिं नात्मनः।। (३) तक हमने कमर में चोलपट बांध लिया, देह पर श्वेतवस्त्र धार लिया, शिर का लुंचन कराया, कंधे पर कंबल और बगल में धूल हटाने वाला मयूरपिच्छ ले लिया, मुख पर कपड़ा बांधा, दूसरों को हम धर्मलाभ का आशीर्वाद देते हैं, पर वेष का यह आडंबर रचने वाले हम स्वयं अपने जीवन की ही गति नहीं जानते। इस अष्टक के कवि ने मुनिसमाज को भी निस्संग तथा निर्वेद के भाव से देखा है, और उसी भाव से अपने से अलग हो कर अपने आप को वह देखता है। अन्तर्वेदना और आत्मबोध दोनों का जागृत भाव इस अष्टक में व्याप्त है। अपने बाहर और अपने भीतर दोनों के संसार को अपनी पारदर्शी दृष्टि से उन्मीलित करता हुआ यह कवि कहता है - अन्तर्मत्सरिणां बहिः शमवतां प्रच्छन्नपापात्म्नां सिर नद्यम्भः कृतशृद्धिमद्यपवणिग्दुर्वासनाशासिनाम। E FREE पाखण्डव्रतधारिणां वकदृशां मिथ्यादृशामीदृशां बद्धोऽहं धुरि तावदेव चरितैस्तन्मे ह हा का गतिः।। पर काव्य में कुल मिलाकर स्वर निराशावाद का नहीं है। कवि ने अपने अन्तर्द्वन्द्व को अभिव्यक्ति दी है और अपने विवेक से अपने आपको उबारने के संकल्प को भी उसने अंत में सूचित किया है। जातिमाला, अन्योक्तिमाला तथा संगीतशास्त्रविषयक रागविबोध नामक ग्रन्थ के कर्ता सोमनाथ (समय-सत्रहवीं शती) ने सोमनाथशतकम् में स्रग्धरा छन्द में लक्ष्मीनिन्दा, याचकनिन्दा आदि प्रकरणों में आत्मानुभूतिपरक रचना प्रस्तुत की है। देह को सरोवर के रूप में देखते हुए वे कहते हैं काव्य-खण्डका यातायातं विथत्ते सुखमसुशफरी कायकासारदेशे 1 कि यावत् सम्फुल्लचक्षुर्मुखकरचरणाम्भोजराजीविराजि। स्फूर्जद्वानीपूरे बहिरमलतरे तावदत्तुं स्थितस्तां कुर्वन् मन्दं पदं स्वं बत पलितबको वञ्चकः कुञ्चिताङ्गः । (काया रूपी कासार (तालाब) में लगातार प्राणों की मछली आवाजाही कर रही है, आँख, मुख और चरण के कमल खिल रहे हैं, पर कुछ ही हट कर बांस के झुरमुट में श्वेतकेशों वाला बुढ़ापा बगुले की तरह इसे खाने के लिए घात लगाये धीरे धीरे कदम बढ़ा रहा है।) शित मिति झा नी व फोन का शिकार गीत लिया।