१९ नीलकण्ठ शुक्ल के गीतिकाव्य

नीलकण्ठ शुक्ल सत्रहवीं शताब्दी के गीतिकवियों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इनका समय प्रो. पी.के. गोडे के अनुसार १६६७ वि.सं. से १७२७ वि.सं. (१६१० ई. से १६७० ई.) के मध्य तथा इनका साहित्यिक जीवन १६८७ वि.सं. से ११७२७ वि. सं. (ई १६३०-७०) माना जा सकता है। इनके पिता का नाम जनार्दन तथा माता का नाम हीर था। इन्होंने सप्रसिद्ध वैयाकरण भद्रोजि दीक्षित से व्याकरण तथा भद्र श्रीमण्डन से अलंकारशास्त्र का अध्ययन किया था। नीलकण्ठ शुक्ल की निम्नलिखित रचनाओं का पता चलता है - शृङ्गारशतक (११६ पद्य), शब्दशोभा (व्याकरणशास्त्र पर), चिमनीचरित, जारजातशतक (११० पद्य) तथा अधरशतक (११८ पद्य)। एका शब्दशोभा नामक ग्रन्थ को छोड़कर शेष सभी कृतियों में शृङ्गार रस प्रधान है। इनमें चिमनीचरित अपने ढंग की अनोखी रचना है। यह काव्य वि.सं. १७१३ (१६५६ ई.) में लिखा गया था। इसमें अल्लावर्दीखान की पुत्रवधू चिमनी तथा पण्डित दयादेव शर्मा के प्रणय का वृत्तान्त है, जो ऐतिहासिक साक्ष्यों से प्रमाणित होता है। कवि ने अल्लावर्दीखान के अन्तःपुर की रमणियों को पढ़ाने के लिए नियुक्त दयादेव के प्रति उन रमणियों का पण्डित के प्रति कामुक आकर्षण विस्तार से चित्रित किया है और अनीस नामक हिजड़े के सहयोग से चिमनी का अपने जार से गुप्त मिलन और सम्भोग का भी वर्णन किया है। भीमवंश नामक परवर्ती महाकाव्य से विदित होता है कि शाहजहां ने इस अनुचित प्रणय का समाचार पाकर पण्डित दयादेव को जिन्दा दीवार में चिनवा दिया था, पर कवि नीलकण्ठ का प्रेमाख्यानपरक खण्डकाव्य नायक-नायिका के मिलन और रमण के वर्णन में ही पर्यवसित है। कदाचित् यही संस्कृत गीतिकाव्य परम्परा में ऐसा काव्य है, जिसमें शृङ्गाररसाभास को कवि ने इस प्रकार तल्लीन हो कर अभिव्यक्ति दी है। रूप और कामोद्रेक के वर्णन में नीलकण्ठ शुक्ल जितने दक्ष हैं, उतने ही कल्पनाप्रवण भी वे हैं। अल्लावर्दी खां के हरम के वातावरण को उन्होंने अपनी लेखनी से सजीव कर दिया है तथा सम्भोग के साथ-साथ मुगल स्त्रियों के विप्रलम्भ का चित्रण बड़ी मार्मिकता के साथ किया है। उदाहरणार्थ लग्नं चेतो यदवधि दयादेव एवास्मदीयं की लग्नाश्चेतस्यपि मम तदारम्य तस्यैव धर्माः। का हवाला १. अधरशतकमः सं. ए.ए. गोरे की भूमिका तथा चिमनीचरितम् के प्रभात शास्त्री के संस्करण के परिशिष्ट में प्रो. पी.के. गोडे का लेख। २. द्र. चिमनीचरित के प्रभावशास्त्री द्वारा सम्पादित संस्करण में परिशिष्ट में चिमनीचरितस्य ऐतिहासिकता शीर्षक डा. प्रभाकर शास्त्री का लेखकाव्य-खण्ड आविष्कुर्वन् रजनिविरतिं म्लेच्छधर्मेष्वशेषे ष्वेव प्रीतिं मम वितनुते केवलं बाङ्गशब्दः ।। (३६) op नायिका कहती है कि मुर्गे की बांग ही मेरे लिये सबसे प्रिय बन गयी है, क्योंकि उसके द्वारा प्रातः होने और दयादेव के अध्यापन के लिये आने की सूचना मिलती है। इसी प्रकार कौवे की काँव-काँव को लेकर भी कवि ने बड़ी रोचक उत्प्रेक्षाएं की हैं - का का जीवत्यतनुविशिखैर्हन्त का का न विद्धा ate मामा का कोत्तीर्णा विषमसमयं ध्यानयुग्योगिनीव। एतान् प्रश्नान प्रकटितकृपोऽस्मासु नूनं चिकीर्षुः काकेत्येततद् वदति पुरो व्यक्तमास्यैन काकः।। (४५) कोशान में हमारे सम्मुख का-का (कौवे का स्वर, कौन कौन) करता हुआ यह पूछता हुआ लगता है कि कौन कौन स्त्रियाँ हैं जो प्रेम में पड़कर अभी भी जी रही हैं, कौन है, जो काम देव के बाणों से घायल नहीं हुईं, कौन हैं जिन्होंने संकट की घड़ियां पार कर ली। १०६ पद्यों के इस काव्य में अधिकांशतः मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग है। अन्त में शार्दूलविक्रीडित तथा शिखरिणी, वियोगिनी, उपगीति, उद्गीति, हरिणी, मालिनी और वसन्ततिलका भी प्रयुक्त हैं। छन्दों का वैविध्य अधरशतकम् में बहुत अधिक मिलता है। कवि ने इस काव्य में १६ प्रकार के छन्दों का उपयोग किया है। आर्या छन्द सर्वाधिक प्रयुक्त है। नीलकण्ठ शुक्ल की कल्पनाएं कहीं-कहीं बड़ी मोहक होती हैं। सुन्दरी की नासिका में झूलते हुए मुक्ता को लेकर वे कहते हैं कि यह मोती नहीं-नहीं करता हुआ यह बता रहा है कि इस सुन्दरी के अधर की समानता न बन्धूक कर सकता है, न करक कुसुम, न किसलय, न बिम्बफल, न कमल, न विद्रुम या मूंगा न जपापुष्प ही - कि कलित नि बन्यूक नो वा करककुसुमं नो किसलयं विशाला न बिम्ब नाम्भोजं दलमपि न वा विद्रुमजपे। मम नाम की इदं नासामुक्ताफलमधरसाम्याय सुदृशः ETB की शाम के किमित्थं नात्कारं विरचयति दोलायितमिषात् ।। (४०) IP