माधवकवि का ‘दानलीला’ काव्य कृष्ण के बालचरित का अत्यन्त सरस वर्णन प्रस्तुत करता है। इस काव्य की पुष्पिका से विदित होता है कि इसकी रचना वि.सं. १६२८ (१५७० ई.) में की गयी थी। माधव कवि ने प्रान्तप्रशस्ति में अपना परिचय दिया है। तदनुसार ये कर्णाटक के महान विद्वान् तथा संन्यास से मुक्ति प्राप्त करने वाले विष्णु शर्मा के वंश में हुए थे। इनके पितामह का नाम भी माधव था तथा पिता विष्णुदेव थे। इनके पिता कृष्णभक्ति के कारण वृन्दावन में आकर रहने लग गये थे। इन्होंने वारी नामक ग्राम में रह कर यह काव्य लिखा। दानलीला काव्य में गोपियों से हास-परिहास, माखनचोरी, माधुर्यभक्ति तथा शृङ्गार परवर्ती गीतिकाव्य ४६६ का कवि ने तन्मय होकर चित्रण किया है। राधा के साथ कृष्ण की झड़प और गोपियों का कभी राधा को, कभी कृष्ण को चिढ़ाना-कृष्ण का सौन्दर्य-इन सब में कवि का मन रमा है। यह काव्य हिन्दी के भक्तिकालीन कवियों-सूर आदि के काव्य से तुलनीय है। ना विषय के अनुरूप ललित भाषा तथा रसमय पदावली का माधवकवि ने प्रयोग किया है। आरम्भ से ४२ पद्य शार्दूलविक्रीडत छन्द में हैं, अवशिष्ट पद्यों में विविध छन्दों का प्रयोग किया गया है। कृष्ण को देख कर गोपी के सुधबुध खो देने की दशा का चित्रण है - रसावेशादेषा धृतसुभगवेषा वरतनु मानविकी वरंबार बार विततनयना वल्लववधूः। मामान लिया निरीक्ष्य प्रक्षुभ्यन्मदनकदनक्लान्तवदनामिकामा या में न रन्तुं गन्तुं वा गृहमलमभूदू विस्मृतगतिः।। (४३) की गोपी कृष्ण को ताकती हुई रसावेश में निमग्न खड़ी रह गयी, न उनके साथ रमण कर सकी, न घर लौट सकी। कवि का उस धरती के प्रति अगाढ अनुराग है, जहां कृष्ण और राधा के चरण पड़े हैं - धन्येयं धरणी ततोऽपि मथुरा तत्रापि वृन्दावन तत्रापि व्रजवासिनो, युवतयस्तत्रापि गोपाङ्गनाः। तत्राचिन्त्यगुणैकधामपरमानन्दात्मिका राधिका लावण्याम्बुनिधिस्त्रिलोकरमणी चूडामणिः काचन।। (४५) गाणी