“शृङ्गारहारावली’ शृंगारपरक ऋतुवर्णनकाव्य है। इसके कवयिता श्रीहर्ष का देशकाल संदिग्ध है। अंतःसाक्ष्य के आधार पर इस काव्य की संपादिका डा. प्रियबाला शाह ने इस कवि का संबंध राजस्थान और गुजरात से होने तथा नैषधकार श्रीहर्ष से उसके अभिन्न होने की संभावना व्यक्त की है। नैषधकार से इस श्रीहर्ष की अभित्रता के लिए संपादिका ने कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया है, और इस काव्य की शैली के आधार पर शृङ्गारहारावलीकार और नैषधकार की एकता स्थापित करना उचित प्रतीत नहीं होता। कवि ने इस काव्य की पुष्पिका (१०१वां पद्य) में अपने को द्विजरोचिः कहा है, जिससे उसका ब्राह्मण होना अवश्य प्रमाणित होता है। शृङ्गारहारावली की पांडुलिपि की तिथि १६७७ ई. है, अतः यह काव्य निश्चित रूप से सत्रहवीं शताब्दी से पहले का है। कि इस काव्य में कुल १०१ पद्य हैं। शार्दूलविक्रीडित छन्द का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है (४७ पद्यों में), उसके बाद वसन्ततिलका और अनुष्टुप् का भी प्रचुर प्रयोग है। अन्य वृत्तों में पृथ्वी, मालिनी, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, वंशस्थ, स्रग्धरा, स्वागता और हरिणी का उपयोग कर के छन्दों की दृष्टि से काव्य में विविधता का निर्वाह किया गया है। या विषयवस्तु तथा कल्पनाओं की दृष्टि से इस काव्य में नवीनता का अभाव है। कहीं-कहीं भाषाशैली का चमत्कार प्रभावित करता है। जैसे- लाभ की कोदण्डीयति मार्गणीयति लसल्लोलं कृपाणीयति ।। प्रत्यञ्चीयति चेषधीयति तथा सोल्लासपाशीयति। TASTE भ्रूवल्ली नयनं च वेणिचटुला हारावली नासिका कामिन्याः पुरुषेषु सुन्दरतरं तत्कर्णपालीयुगम्। कामिनी के भू, नयन, वेणी, हारावली, नासिका तथा कर्णपाली के धनुष, बाण, कृपाण, प्रत्यंचा (धनुष की डोरी), इषुध तथा पाश का कार्य करने की बात को यहां यथासंख्य के निर्वाह के साथ व्याकरणिक प्रयोगों के द्वारा आकर्षक रूप में प्रस्तुत किया गया है। अधिकांश पद्यों में संभोग शृंगार का उथला वर्णन है, या उद्दीपन विभावों का विवरण परवर्ती गीतिकाव्य