2 भर्तहरि की परंपरा में धनदराज कवि ने शृगार, नीति और वैराग्य के शतकों की रचना की। इन तीनों शतकों का प्रणयन १४३४ ई. में हुआ, ऐसा नीतिशतक की पुष्पिका से विदित होता है। जी हानीकार गायिका धनदराज ने शृङ्गारशतक में आत्मपरिचय देते हुए लिखा है- मिशन पणाला लकि मेरुमानितया धनैर्धनपतिर्वाचा च वाचस्पति- पता भाँगेनापि पुरन्दरः शुचितया दानेन चिन्तामणिः। गाम्भीर्येण महोदधिः करुणया कोपीह तीर्थङ्करः श्रीमालो धनदः कृती वितनुते शृङ्गारपूर्व शतम् ।। (२) कित मनस्विता के द्वारा मेरु, धन से कुबेर, वाणी से वाचस्पति, भोग से इंद्र, पवित्रता तथा दान से चिंतामणि, गंभीरता से महोदधि (सागर) तथा करुणा से जो तीर्थकर ही है, ऐसा श्रीमान् धनपति यह शृंगारशतक रच रहा है। धनद ने शतकत्रय का प्रणयन समाज को सत्पथ दिखाने के उद्देश्य से किया। कटु ओषध खिलाने से पहले जैसे गुड़ दिया जाता है, उसी प्रकार उनका कहना है कि पहले मैंने शृङ्गारशतक रचा है’ (शृङ्गारश.-४)। र, नीतिशतक के अन्त में कवि ने विस्तार से अपना परिचय दिया है, जिसके अनुसार वे झुज्झण के पुत्र देहड की संतान थे। देहड बादशाह आलमशाह के मंत्री रहे। नीतिशतक के प्रथम पद्य से विदित होता है कि धनदराज अपनी शूरता के कारण भी उस समय विख्यात थे। तीनों ही शतकों में विषयवस्तु की परिकल्पना सर्वथा नवीन न होते हुए भी भाषा और कल्पना की समृद्धि तथा प्रौढ़ता आकर्षक है, तथा कथ्य सर्वत्र वैदर्भी के प्रसाद में हृदयगंम होता चला जाता है। उदाहरणार्थ - भित्वा भित्तिं समाधिं विषयसुखकुशी कौशलेनैव सद्यो । माजी शिम यामिन्यां जागरूके मनसि शशिमुखीप्रेममत्तेन मत्ते। कारी १.. काव्यमाला गुच्छक १३ में प्रकाशित काव्य-खण्ड बन्धुत्यागापराधान्महिमनि गलिते पञ्चसु न्यक्कृतेषु मुष्णात्येव प्रमोदोच्छ्वसितधनमिवं प्राणिनां कालचौरः।। यहां समाधिरूपी भित्ति में सेंध लगाकर प्राणियों के प्राण-धन को चुराने वाले कालचोर की परिकल्पना और रूपक अलंकार की छटा प्रभावकारी है। 5) की कि दिन