आर्याशप्तशती के कर्ता गोवर्धन बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के आश्रय में रहे थे। राजा लक्ष्मणसेन के सभागृहद्वार की शिला पर निम्नलिखित पद्य उत्कीर्ण होने की सूचना मिलती है - गोवर्धनश्च शरणो जयदेव उमापतिः।। कविराजश्च रत्नानि समिती लक्ष्मणस्य च।। गोवर्धन ने स्वयं भी अपना परिचय प्रकट करते हुए अपने पिता का नाम नीलाम्बर बताया है, जो उनके अनुसार उशना (शुक्राचार्य) के समान कवि थे (आर्या-३८)। इसके साथ ही उन्होंने अपने आश्रयदाता लक्ष्मणसेन की प्रशंसा करते हुए भी कहा है - सकलकलाः कल्पयितुं प्रभुः प्रबन्धस्य कुमुदबन्योश्च । सेनकुलतिलकभूपतिरेको राकाप्रदोषश्च ।। ३६ टीकाकार अनन्तपण्डित ने यहां सेनकुलतिलकभूपति से आशय कवि प्रवरसेन से लिया है, जो उचित नहीं लगता। सेनकुल कायस्थकुल है, जबकि प्रवरसेन क्षत्रिय थे। राजा लक्ष्मणसेन ने ग्यारहवीं शताब्दी के अंत तक बंगाल में शासन किया अतः आर्यासप्तशती की रचना का यही काल माना जा सकता है। गीतगोविन्दकाव्य के यशस्वी प्रणेता महाकवि जयदेव, जो गोवर्धन के साथ इसी राजा की सभा में रहे, इस कवि की काव्यात्मक उपलब्धि से अभिभूत थे। उनके अनुसार शृंगाररस से परिपूर्ण वचनों के निबंधन में गोवर्धन की स्पर्धा अन्य कोई कवि नहीं कर सकता शृङ्गारोत्तरसत्प्रमेयरचनैराचार्यगोवर्धन स्पर्धी कोपि न विश्रुतः….। (गीतगोविन्द) आर्यासप्तशती का आदर्श हाल की प्राकृत भाषा में संकलित की गयी कृति गाहासतसई है। स्वयं गोवर्धन का विचार है कि जिस प्रकार का काव्यबंध उन्हें इष्ट है, उसका समुचित रसपरिपाक प्राकृत की कविता में ही संभव है, संस्कृत काव्य में उसके रस को उन्होंने बलात् लाने का प्रयास किया है - वाणी प्राकृतसमुचितरसा बलेनैव संस्कृतं नीता। निम्नानुरूपनीरा कलिन्दकन्यैव गगनतलम् ।। ५२ परवर्ती गीतिकाव्य वस्तुतः गोवर्धन प्राकृत की गाथा-काव्यपरंपरा की विषयवस्तु और उसमें निहित शृंगार के प्राकृतोचित केन्द्रीय भाव से परिचालित हैं। यह वह परंपरा है, जिसमें देवी-देवता की वंदना भी उनके संभोग के वर्णन के द्वारा ही की जाती है। ग्रन्थारम्भव्रज्या के ५४ पद्यों में से २६ में गोवर्धन ने मंगल-स्वरूप देववन्दना की है, और देवियों के उल्लेख में उनके पुरुषावित का विवरण देने में वे विशेष रुचि प्रकट करते हैं। वस्तुतः गोवर्धन उन संस्कृत कवियों के प्रतिनिधि हैं, जो वात्स्यायन मनि के ‘कामसत्र’ में कविता की मक्ता पिरो कर प्रस्तत करते रहे हैं। अन्योक्ति, श्लेष या व्यर्थक संवादों में स्थान-स्थान पर रतिपरक अर्थ इस कविता में निगूढ रहते हैं।। वन्दना के पद्यों के पश्चात् ग्रंथारम्भव्रज्या के अवशिष्ट पद्यों में कवि-प्रशस्ति तथा काव्यचर्चा के कुछ पद्य हैं, जो महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। इनमें विशेषतः कालिदास और भवभूति पर गोवर्धन के कथन उद्धृत होते रहे हैं। (आर्या ३५ तथा ३६)। काव्यविषयक पद्यों में गोवर्धन कविता को लेकर अपनी स्वयं की अवधारणा भी प्रस्तुत करते हैं और अपनी कविता के वैशिष्ट्य का स्वयं भी संकेत करते हैं। उनके अनुसार सत्कविरसनाशूी से निष्तुषतर (फटके गये) शब्दरूपी शालि के पाक से तृप्त व्यक्ति दयिता के अधर का भी आदर नहीं करता, सुधा रूपिणी दासी की तो बात ही दूर रही (आर्या - ४६)। गोवर्धन ने अपनी कविता में इसे प्रमाणित भी किया है, वे शब्दपाक के समर्थ कवि हैं। पर विषयवस्तु की दृष्टि से वे कविता की कोई उदात्त अवधारणा सामने नहीं रखते, न उनकी कविता में ही वह है। कहीं वे कविता को अभिसारिका बताते हैं (आर्या-४७), तो कहीं पुंश्चली और सत्कविसूक्ति में उपमान-उपमेय-भाव तक स्थापित कर डालते हैं (आर्या-७४)। गोवर्धन के अनुसार उनकी स्वयं की कविता सज्जनहृदयाभिसारिका तथा मदनाद्वैतोपनिषद् है (आर्या-५१) । गोवर्धन की अधिकांश आर्याएं परकीया रति के पंकिल वातावरण में सनी हुई हैं। उनका विरही नायक ‘असती कुलजा प्रौढ़ा धीरा प्रतिवेशिनी’ की आसक्ति के आगे ब्रह्मानंद को भी तुच्छ मानता है (आर्या-७०) और इस छिछली आसक्ति में स्वयं कवि का भी अभिनिवेश है, केवल कविनिबद्ध पान का नहीं। उत्कट संभोग शृंगार के अतिरिक्त गोवर्धन के कतिपय पद्यों में अन्योक्तियां मनोहर बन पड़ी हैं, कहीं-कहीं सूक्ति भी बड़ी भावसांद्र है। विशेष रूप से उनकी पारिवारिक जीवन की पकड़ और ग्रामजीवन की छवियां कहीं-कहीं अपनी सहजता के कारण चित्त में घर बना लेने वाली हैं। एक अन्योक्ति में उन्होंने कोषकार रिशम के कीड़े) को बनेचरों के आगे अपना गुणोद्गार (गुण-धागा, अच्छाई ) करने से रोका है (आर्या-६) इन्द्रध्वज को लेकर एक अन्योक्ति भी अच्छी बन पड़ी है - का ते श्रेष्ठिनः क्व सम्प्रति शक्रध्वज यैः कृतस्तवोच्छ्रायः। तर FPा ईषां वा मेढिं वाधुनातनास्त्वां विधित्सन्ति ।। २६६ माफ काव्य-खण्ड (हे इन्द्रध्वज, वे श्रेष्टी अब कहां, जिन्होंने तुम्हें इतने ऊपर स्थापित किया था। आजकल के लोग तो तुम्हें हल की ईषा (लांगलपद्धति, हल की नोक) बना देना चाहते हैं या अपने उपयोग के लिए कोई खंभा)। व आर्या या गाथा की इस काव्यपरंपरा की विशेषता यही रही है कि वह मानवीय संबंधों की रागात्मकता तथा भावाकुलता के क्षणों का गहरा अनुभव दो पंक्तियों में हमें करा देती है। जीवन का एक क्षण ही यहां आता है, पर वही कभी-कभी विराट् अनुभूतिपुंज को अपने में समो कर ले आता है। गोवर्धन कहीं-कहीं इस प्रकार का क्षण पकड़ सके हैं, विशेषतः वहां, जहां वे भारतीय पारिवारिक जीवन की कोई कथा सूचित करते हैं। उदाहरण के लिये अस्याः पतिगृहगमने करोति माताश्रुपिच्छिला पदवीम् । गुणगर्विता पुनरसी हसति शनैः शुष्करुचितमुखी।। -३८ गब्याह के बाद बिटिया पहली बार ससुराल जा रही है। मां ने तो बेटी के चले जाने के दुख में रो-रो कर रास्ता ही आंसुओं से भिगो डाला है। पर इसको अपने गुण का गर्व है, ससुराल के सुख का भरोसा है, तो सूखा रोना रोते हुए यह धीमे से हंसती भी जा रही है। इसी प्रकार प्रवासी पथिक की व्यथाकथा में सना मनोरथ का एक क्षण है - अङ्के निवेश्य कूणितदृशः शनैरकरुणेति शंसन्त्याः। मोक्ष्यामि वेणिबन्धं कदा नखैर्गन्धतैलाक्तैः।। -३६ तो आंखे सिकोड़े हुए जब वह मुझे कहेगी-निष्ठुर- मैं कब अंक में उसे भर कर गंधतैल से सने इन नखों से उसका (विरहकाल में बांधा) वेणिबंध खोल पाऊंगा? जाए कि
- इसके साथ ही गोवर्धन ने इस काव्य में अपने को एक विचारशील सूक्तिकार के रूप में भी प्रस्तुत किया है। सूक्ति या सुभाषित को दृष्टांत के द्वारा परिपुष्ट बना कर वे प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के लिये - व अन्यमुखे दुर्वादो यः प्रियवदने स एव परिहासः। कीय इतरेन्धनजन्मा यो धूमः सोऽगरुभवो थूपः ।। -१३ BE जो बात किसी और के मुंह से गाली लगती है, अपने प्रिय के मुख से वही ठिठोली लगने लगती है। अन्य किसी ईधन से निकले तो धुंआ है, वही अगरु, से निकले तो धूप यदि भावपक्ष की दृष्टि से गोवर्धन प्रणय और परकीयारति के कुशल चितेरे हैं, और मनुष्य के हृदय में भी कभी-कभी वे गहराई से पैठते हैं, तो कलापक्ष के स्तर पर उनके ताजे उपमान और कहीं-कहीं सर्वथा अछूता अप्रस्तुतविधान उनके निपुण कवित्व का परवर्ती गीतिकाव्य परिचायक है। शोक शुक है, जो दयिता के दारुशलाकापंजर को अपनी कठिन चोंच से बार-बार काट रहा है (आर्या-५७२), जिस तरह धूमलता भीत पर बने पुराने चित्र को मिटा देती है, उसी तरह नयी नवेली श्यामा नायिका ने पहले की ब्याहताओं का मानो अस्तित्व ही मिटा सा दिया (आर्या-५७५), मुग्धानायिका के वक्ष पर हार और उसमें छिपा कुचमुकुल ऐसा लगता है जैसे कामदेव ने उसके देह में गुलेल तानी हो (आर्या-१०८)। उल्लासितलांछन वाला ज्योत्स्नावर्षी सुधाकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कृष्ण के चरणप्रहार के समय क्षीर बहाता शकट (शकटासुर) (आर्या- ११६) - इस प्रकार के अभिनव बिंबों में गोवर्धन कथ्य को वैचित्र्य और विच्छित्ति देते हैं। अपनी इन काव्यात्मक उपलब्धियों के कारण गोवर्धन को संस्कृत काव्यपरंपरा में असाधारण लोकप्रियता भी मिली है। उनके काव्य की छ: टीकाएं अभी तक मिली है। उनकी इस ‘आर्यासप्तशती’ के अनुकरण में संस्कृत तथा हिंदी में सप्तशतीकाव्यों की परंपरा चल पड़ी। जो कवि सप्तशती तक न पहुंच सके, उन्होंने गोवर्धन की आर्याओं से अनुप्राणित होकर द्विशतियां या त्रिशतियां रची। संस्कृत में गोवर्धन के पश्चात् आर्यासप्तशतियों की रचना विश्वेश्वर, रामवारियर तथा अनन्त शर्मा के द्वारा की गयी। ! धावण अपने इस युगप्रवर्तक गीतिकाव्य के बृहत् संकलन पर गोवर्धन की निम्नलिखित गर्वोक्तियां अनुचित नहीं कही जा सकतीं - एका ध्वनिद्वितीया त्रिभुवनसारा सफुटोक्तिचातुर्या। पञ्चेषुषट्पदहिता भूषा श्रवणस्य सप्तशती। कविसमरसिंहनादः स्वरानुवादः सुधैकसंवादः। विद्वविनोदकन्दः सन्दर्भोऽयं मया सृष्टः।। -६६६,७००