यह काव्य भारतीय साहित्य की परंपरा में ‘चौरसुरतपञ्चाशिका’ तथा बिल्हणकाव्य के नाम से भी सुप्रसिद्ध है। इसके रचयिता बिल्हण कवि कहे गये हैं, जिनका विस्तृत परिचय इस खण्ड के ऐतिहासिककाव्यविषयक अध्याय में दिया गया है। तथापि एक परंपरा में इस काव्य के कर्ता वररुचि भी माने गये हैं, तो दूसरी परंपरा में चौर कवि। इस काव्य की रचना के पीछे यह कथा है - बिल्हण की किसी राजकुमारी को शिक्षा देने के लिये नियुक्ति की गयी और दोनों में गुप्त प्रणय-संबंध स्थापित हो गये। जब राजा को इस बात का पता चला, तो उसने बिल्हण को मृत्युदण्ड दे डाला। फांसी पर लटकाने को ले जाये जाने के पूर्व बिल्हण ने इस काव्य की रचना की, जिसे सुनकर राजा ने उन्हें क्षमादान दे दिया। यह कथा चौरपञ्चाशिका की पूर्वपीठिका में विस्तार से निरूपित है और इस पूर्वपीठिका के भी कश्मीरपाठ या औतराह पाठ तथा दाक्षिणात्य पाठों में अलग-अलग रूपांतर है। कश्मीरपाठ के अनुसार कवि की प्रिया अनहिलपत्तन के राजा वीरसिंह की पुत्री चन्द्रलेखा है, तो दाक्षिणात्य पाठ के अनुसार पञ्चाल के राजा मदनाभिराम की पुत्री यामिनीपूर्णतिलका। चौरपञ्चाशिका के एक टीकाकार राम तर्कवागीश (१७६८ ई.) इस कथा का व्यक्तिगत संबंध बिल्हण कवि से न मानकर चौरिपल्ली के राजकुमार सुन्दर को इसका नायक मानते हैं। डा. बूल्हर ने इस कथा का विश्लेषण करते हुए कहा है कि गुजरात में चापोत्कटवंशीय राजा वीरसिंह ६२० ई. में दिवंगत हो चुका था, जबकि बिल्हण का समय इसके भी सौ वर्ष पश्चात है। अतः बिल्हण कवि का सम्बन्ध इस कथा से जोड़ा जाना उचित नहीं है। इसके साथ ही यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि बिल्हण ने अपने महाकाव्य ‘विक्रमाकदेवचरित’ के अंतिम सर्ग में अपनी आत्मकथा दी है, उसमें इस प्रकार की किसी घटना का संकेत तक नहीं है। अतः यही संभावना अधिक लगती है कि कथानायक कोई अन्य है, बिल्हण ने फांसी पर लटकाये जाने के पूर्व की उसकी अनुभूतियों और प्रणयिनी के प्रति मृत्युपर्यन्त दुर्निवार आकर्षण को ले कर यह काव्य रचा। परवर्ती गीतिकाव्य चौरपञ्चाशिका में कुल पचास पद्य हैं और आश्चर्य का विषय है कि इसके अलग-अलग पाठों में कुल मिलाकर चार ही पद्य समान हैं। पिन
- इस काव्य के सभी पद्य उत्तम पुरुष एक वचन में नायक के मुख से कहलाये गये हैं, सर्वत्र प्रेयसी के साथ बिताये अंतरंग क्षणों की स्मृतियां सांद्र भावोच्छ्वास में ढल कर अभिव्यक्त हुई हैं। उत्कट शृङ्गार और मांसलता के उद्दाम आवेग को विरह और स्मृति के सुकमार तंतुजाल में निबद्ध कर प्रस्तुत करने की अनूठी कला का यह काव्य दिग्दर्शन कराता है। यह अनूठापन ही इसकी अत्यधिक लोकप्रियता का कारण रहा है। नायिका के अप्रतिम सौंदर्य, संस्कार और शील तथा राग और अभिनिवेश-सभी की स्मृतियाँ घनीभूत होकर जीवन के अंतिम क्षणों में नायक को सालती हैं। संपूर्ण काव्य में वसन्ततिलका वृत्त का वासंतिक सौरभ समाया हुआ है, तथा शैलीविज्ञान की दृष्टि से प्रत्येक पद्य के आरंभ में अद्यापि’ (आज भी) की आवृत्ति स्मृतियों के सातत्य तथा भावतरंग की एकातानता को बनाये रखती है। नायिका के सौष्ठव और लीला, विलास तथा विच्छित्ति को व्यक्त करने के लिये सटीक विशेषणों और उपमाओं का प्रयोग कवि ने किया है। उदाहरणार्थ - अद्यापि तां कनकचम्पकदामगौरी फुल्लारविन्दनयनां तनुरोमराजिम्।। सुप्तोत्थितां मदनविह्वललालसागीं विद्या प्रमादगुणितामिव चिन्तयामि।। (१) माना __ वासगृह से राजपुरुषों द्वारा पकड़ कर ले जाये जाते समय नायिका की चेष्टाएं नायक के लिये अवर्णनीय बन जाती है - अद्यापि वासगृहतो मयि नीयमाने। दुर्वारभीषणचरैर्यमदूतकल्पैः। ताकि किं किं तया बहुविधं न कृतं मदर्थे नियम वक्तुं न पार्यत इति व्यथते मनो मे।। (३१) नायक को रात्रि में शय्या पर सहसा छींक आती है, नायिका रूठी हुई है, वह संस्कारवश छींक के अशुभ के परिहार के लिये ‘जीव’ यह मांगलिक शब्द कहने को होती है, पर ओष्ठ मुद्रित कर अमंगल के परिहार के लिये कान में कनकपत्र ले कर रह जाती अद्यापि तन्मनसि सम्परिवर्तते मे विजात शिश रात्रौ मयि मृतवति क्षितिपाल पुत्र्या। ४६० काव्य-बाण्ड जीवेति मङ्गलवचः परिहृत्य कोपात्र वाचा कर्णे कृतं कनकपत्रमनालपन्त्या।। (११) मिति