‘राजेन्द्रकर्णपूर’ महाकवि शम्भु की ही दूसरी रचना है, जिसमें उन्होंने राजा हर्ष की प्रशस्ति में कविता के कर्णपूर प्रस्तुत किये हैं। इस प्रशस्तिकाव्य में कुल ७५ पद्य हैं। राजा हर्ष (१०८६ ई. -११०१ ई.)। के चरित्र का वर्णन कल्हण की राजतरङ्गिणी में भी विस्तार से प्राप्त होता है, जिसके अनुसार वह प्रतापी और शूरवीर राजा था, पर अपने अपकर्षकाल में वह इतना पतित हो गया था कि कश्मीर में उसने त्राहि-त्राहि मचा दी थी। इस दृष्टि से यह प्रशस्तिकाव्य ऐतिहासिक बोध तथा तथ्यात्मकता से दूर है। इसमें कवि ने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में धरती-आकाश एक कर दिया है, यहां तक कि । कश्मीर के इस राजा की केरल पर विजय भी उसने दिखा दी है। संभव है कि महाकवि शम्भु ने इस काव्य की रचना उस समय की हो, जब राजा हर्ष का चारित्रिक पतन नहीं हुआ था, और वह अपने उन सद्गुणों के कारण चर्चित था, जिनके लिये कल्हण ने भी उसकी भूरि-भूरि सराहना की है।काव्य-खण्ड शम्भु की भाषा में अनुप्रासों की झंकार है, शैली में सरसता, सहजता और प्रासादिकता है, तथा अर्थालंकारों की भी छटा उन्होंने प्रचुर रूप से प्रकट की है। हर्ष के आगे नल, दिलीप, रघु तथा राम तक को विस्मृतप्राय दिखाते हुए वे कहते हैं - यो वैरिष्वनलो नलो वसुमतीदीपो दिलीपोऽथ सो यो मानेन पृथुः पृथुर्जगति यो निर्लाघवो राघवः। यः कीर्ती भरतो रतो नृपगुणैर्यः शन्तनुः शन्ततुः सजाते त्वयि कस्य न क्षितिपते सर्वेऽपि ते विस्मृताः।। ५१