शृङ्गारतिलक ३१ पद्यों की रम्य रचना है, जिसका कर्तृत्व कालिदास पर आरोपित किया जता है, पर भाषा-शैली और अभिव्यक्ति के भेद को देखते हुए यह विक्रमादित्य के समकालिक महाकवि कालिदास की कृति नहीं कही जा सकती। परवर्ती गीतिकाव्य नाम के अनुरूप शृङ्गारतिलक में कवि की शृंगारित मनोवृत्ति प्रकट हुई है। वर्ण्य विषय के केन्द्र में मुग्धा नायिका और उसका सौन्दर्य और विलास है। आंतरिक सौंदर्य की अपेक्षा कवि की दृष्टि हाव, हेला,, विश्रम आदि पर अधिक लगी हुई है और तदनुरूप उसकी भाषा में भी चुलबुलापन और वक्रोक्ति का पैनापन है। एक उदाहरण देखें - इन्दीवरेण नयनं मुखमम्बुजेन कुन्देन दन्तमधरं नवपल्लवेन। अङगानि चम्पकदलैः प्रविधाय वैधानिक कान्ते कथं घटितवानुपलेन चेतः। (हे कान्ते, तुम्हारा मुख कमल से, नयन नीलकमल से, दांत कन्दकली से, अधर नवपल्लव से तथा शेष अंग चम्पक से बनाकर इतने कोमल पदार्थों का उपयोग करने के पश्चात् - विधाता ने केवल हृदय ही पत्थर का क्यों बना डाला?) कुछ पद्यों में मुग्धा, प्रगल्भा, खण्डिता और कलहान्तरिता नायिकाओं की उक्तियां या स्थितियां हैं, तो कुछ में स्वैरिणी नायिकाओं की निर्मर्याद रति की भी विवृति है। इस काव्य में शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, मालिनी, मन्दाक्रान्ता, वियोगिनी, आदि विविध दन्दों का प्रयोग किया गया है। इस काव्य के कर्ता कोई परवर्ती कालिदास हो सकते हैं, जिनका समय अनिश्चित