अमरुक, भल्लट और भर्तृहरि आदि श्रेष्ठ मुक्तक कवियों की चर्चा अध्याय-४ में की गयी है। इन कवियों ने मुक्तककाव्य को महाकाव्यवत् प्रतिष्ठा दी। इनके पश्चात् संस्कृत में मुक्तककाव्य या गीतिकाव्य का विकास निरन्तर होता रहा तथा मुक्तक के क्षेत्र में नयी विधाएं और प्रवृत्तियां पनपती रहीं। भर्तृहरि के शतकों की परम्परा का अनुवर्तन करते हुए अनेक कवियों ने उपदेशपरक, निर्वेदपरक या शृङ्गारपरक शतक काव्य लिखे। इनमें से एक कवि (घनदराज) जैसे कवियों ने तो भर्तृहरि के शतकों के नाम यथावत् रखते हुए तीन शतक एक साथ ही लिखे। कतिपय अलंकार- जैसे स्वाभावोक्ति तथा अन्योक्ति भी मुक्तक परम्परा को नये आयाम देने में सहायक हुए। एक दृश्य, वस्तु या जीवन के एक क्षण की अनभति को एक पद्य में बांधने की कला को स्वभावोक्ति अलंकार की परिकल्पना ने बल दिया। दूसरी ओर अन्योक्ति अलंकार के माध्यम से संस्कृत कवियों ने अप्रस्तुत के बहाने से प्रस्तुत को कहने, अपने समय के समाज पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने तथा समकालीन जीवन की प्रकारान्तर से छवि अंकित करने का अवसर पाया। अनेक गीतिकाव्य में कवि समाज के सामने उपदेशक, द्रष्टा या सन्त के रूप में भी उपस्थित हुआ। उसने अपने समय के समाज को सीधे सम्बोधित किया। कुछ कवियों ने तो अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, और धार्मिक जीवन का यथार्थ चित्र ही अपने मुक्तकों या लघुकाव्यों के द्वारा प्रस्तुत कर दिया। ऐसे कवियों में क्षेमेन्द्र अग्रणी हैं। संस्कृत के अनेक मुक्तक कवि के अन्तर्मन की अनुभूति की गहरी अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हैं। कवि की अपनी मनोव्यथा, जीवन का उल्लास और उदात्त अनुभव भी एक छोटे से पद्य में इस प्रकार व्यक्त हो जाता है कि वह महाकाव्यात्मक बोध देता है। तक रागकाव्य, स्तोत्र तथा सुभाषित जैसी विधाएं मुक्तक के ही रूप हैं, किन्तु इनकी परम्परा को देखते हुए इस ग्रन्थ में इन तीनों विधाओं पर स्वतंत्र अध्यायों में विवेचन किया गया है। अवशिष्ट परवर्ती गीतिकाव्यों तथा लघुकाव्यों का विवेचन यहां प्रस्तुत है।