स्तोत्र की परम्परा भारतीय साहित्य में उतनी ही प्राचीन कही जा सकती है, जितनी प्राचीन हमारे साहित्य की अपनी परम्परा है। यदि कहा जाय कि हमारे काव्य का उद्भव स्तोत्र-काव्य के साथ ही हुआ, तो अत्युक्ति न होगी। वैदिक ऋषियों ने प्रकृति में चिरन्तन सत्य और परमतत्त्व का साक्षात्कार किया और उन्होंने उसकी स्तुति में सूक्तों तथा मन्त्रों के रूप में गान गाये। स्तुति के लिये संहिताओं में स्तोम शब्द का प्रयोग मिलता है तथा स्तुति शब्द भी वहां अनेकत्र प्रयुक्त है। ऋग्वेद में कवियों ने इस प्रकार का अभिप्राय अनेकत्र प्रकट किया है कि उनके द्वारा साक्षात्कृत या रचित स्तोत्र लोगों को शान्तिप्रदान करें- तारमा सिमा मिमि लाला मार लिया हिरवागीय स्तोमो अग्नियो हृदिस्पृगस्तु शन्तमः। - ऋग्वेद ११६७ की स्तुति अनुभव की गहराई से या हृदय से सीधे निकलती है, तभी वह प्रभावकारी बनती है- इस तथ्य को भी ऋग्वेद के कवियों ने अभिव्यक्त किया है _ इयं वामस्य मन्मना इन्द्राग्नी पूर्व्या स्तुतिरभाद् वृष्टिरिवाजनि। (ऋ. ७।६४१) वैदिक स्तुति काव्य में देवताओं के प्रति सीधे सम्बोधन, दैन्य के स्थान पर उनसे सख्यभाव, मनस्विता, देवताओं के प्रति समर्पण के स्थान पर उनसे साधिकार अपने वांछित की पूर्ति के लिये आग्रह का भाव मिलता है। वैदिक स्तोत्रों से आरम्भ हुई संस्कृत स्तोत्रकाव्य की परम्परा में आगे चल कर दार्शनिक अवधारणाएं, देवता के स्वरूप या विग्रह का सूक्ष्म वर्णन तथा उसके प्रति दास्य और समर्पण की भावना को प्रमुखता मिली। लौकिक संस्कृत काव्य में स्तोत्र सर्वप्रथम रामायण तथा महाभारत में मिलते हैं। रामायण में युद्धकाण्ड में आदित्यहृदय नामक स्तोत्र है, जिसे अगस्त्य ने राम को बताया था।’ इसी काण्ड में ब्रह्मा राम की स्तुति करते हैं। स्तोत्रकाव्य का उत्कृष्ट उदाहरण महाकवि कालिदास के महाकाव्यों में मिलता है। रघुवंश के दसवें सर्ग में देवताओं के मुख से विष्णु की स्तुति महाकवि ने करायी है तथा कुमारसम्भव के दूसरे सर्ग में देवता ब्रह्मा की स्तुति करते हैं। संस्कृत नाटक की नान्दी में भी स्तोत्र का उत्तम रूप मिलता है, कालिदास के तीनों नाटकों के नान्दीपद्य शिवस्तुति के अच्छे उदाहरण हैं। भारवि के किरातार्जुनीय महाकाव्य में अन्तिम सर्ग में अर्जुन शिव १. वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड १०७७-२४ २. वही, १२६ । १३-३२ स्तोत्रकाव्य ३६३ की स्तुति करता है, तो माघ के शिशुपालवध के चौदहवें सर्ग में भीष्म ने कृष्ण की स्तुति की है। रलाकर के हरविजय महाकाव्य में तो देवीस्तुति का अतिशय भव्य और विशद रूप मिलता है, जहाँ देवताओं के मुख से १६७ पद्यों में चण्डी की गम्भीर भाव समन्वित, दार्शनिक अवबोध की गहनता से युक्त विशद स्तुति है। अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित महाकाव्य के २७वें सर्ग में बुद्ध की स्तुति का निवेश किया था, यद्यपि यह अंश मूल रूप में अप्राप्य है। रानात कि हो पुराणों तथा आगम ग्रन्थों में भी स्तोत्र के अनेक महत्त्वपूर्ण अंश मिलते हैं। उपर्युक्त सभी स्तोत्र इतिहास-पुराण या प्रबन्ध के अंश हैं और इस दृष्टि से इन्हें अन्तर्निहित स्तोत्र कहा जा सकता है। पुराणों में समाविष्ट कतिपय स्तोत्रों का स्वतन्त्र रूप में पाठ भी किया जाता रहा है। विष्णुसहस्रनाम, दुर्गासप्तशती आदि इसी प्रकार के काव्य हैं। इससे महाकवियों को स्वतन्त्र रूप से स्तोत्र-काव्य लिखने की प्रेरणा मिली होगी। ना किन को सन्देशकाव्य की ही भाँति स्तोत्रकाव्य का भी अलंकारशास्त्र के आचार्यों ने काव्यभेदों में परिगणन नहीं किया तथा तद्वत् ही इसे भी लघुकाव्य या संघातकाव्य में समाविष्ट किया। जा सकता है। पर संस्कृत वाङ्मय में सन्देशकाव्य-परम्परा कालिदास के पश्चात् कई शताब्दियों तक उत्तमोत्तम काव्यों की रचना-भूमि प्रदान करती हुई विकसित होती रही, स्तोत्रकाव्यों की परम्परा तो उससे भी अधिक पुरातन, दीर्घकालिक और समृद्ध कही जा सकती है और स्तोत्र की महत्ता तथा काव्यप्रकर्ष को देखते हुए संस्कृत साहित्य में उसे एक महत्त्वपूर्ण काव्यविधा के रूप में परिगणित किया जाना चाहिये।