कलिकालसर्वज्ञ की उपाधि से विख्यात आचार्य हेमचन्द्र बारहवीं शती के जैन सन्त, आचार्य तथा कवि हैं। इनके रचे हुए श्री महावीरस्वामिस्तोत्र’ नाम से दो काव्य मिलते हैं। प्रथम स्तोत्र को अन्ययोगव्यवच्छेदिकाद्वात्रिंशिका भी कहा गया है तथा दूसरे को अयोगव्यवच्छेदिकाद्वात्रिंशिका। दोनों ही स्तोत्रों में ३२-३२ पद्य हैं। महावीरस्वामी के माहात्म्य, चरित्र तथा स्वरूप का वर्णन करते हुए गम्भीर दार्शनिक अभिप्रायों को दोनों ही स्तोत्रों में हेमचन्द्र ने आसूत्रित कर दिया है। जैन सम्प्रदाय के भिन्न मतावलम्बियों को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित करके उनके योग का व्यवच्छेद (निरास) दिखाना इस स्तोत्र का एक प्रतिपाद्य है, उसके साथ-साथ महावीर स्वामी के बिना अन्यत्र कहीं गति नहीं, यह भाव भी निरन्तर इस काव्य में पिरोया हुआ है- कीजिट लिगाम pिa । कि नही जी तिःहीमाकानी कि जिला माया सती चेद् द्वयतत्त्वसिद्धिरथासती हन्त कुतः प्रपञ्चः। मायैव चेदर्थसहा च तत् किं माता च वन्ध्या च भवत्परेषाम् ।। अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम्। साष्टाई जा अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लृप्तावतावकानां प्रतिभाप्रमादः।।। गाणविक ताणासा, कि HP मबार | नीलाम-(१३, १४) प्रह (यदि वेदान्तियों की माया सत् है, तो अद्वैत के स्थान पर द्वैत की सिद्धि हो जाती है। यदि वह असत् है, तो उससे जगत् प्रपञ्च की सृष्टि कैसे हो सकती है। यदि माया से यह सृष्टि होती है, तो हे महावीरस्वामी आपके मत के विरोधियों की माता ही वन्ध्या है। अनेक को एकात्मक भी उन्हें मानना पड़ता है, और अद्वय को द्वयात्मक भी। इसके अन्यथा वाचकवाच्यभाव की कल्पना में आपके मत के विरोधियों की प्रतिमा का प्रमाद ही कहलायेगा।) द्वितीय महावीरस्वामीस्तोत्र में भी महावीर के प्रति कवि की अकुण्ठित आस्था प्रकट हुई है। दोनों ही स्तोत्रों में परमत के प्रति असहिष्णुता खटकने वाली है। पहले स्तोत्र में १. काव्यमाला सप्तम गुच्छक पृ. १०२-१०७ स्तोत्रकाव्य कहा है - “जिन त्वदाज्ञामवमन्यते यः स पातकी नाथ पिशाचकी वा’, (२१) - हे जिन आपकी आज्ञा की अवज्ञा करने वाला पातकी है या पिशाच है। द्वितीय स्तोत्र में भी कवि इस बात को दोहराता है कि जिन धर्म के मार्ग के अतिरिक्त अन्य मार्ग से साधना करने वालों के लिये मोक्ष नहीं है ‘तथापि ते मार्गमनापतन्तो न मोक्ष्यमाणा अपि यान्ति मोक्षम्’ (१४)। वेदान्त के जिस अद्वैत मत का खण्डन कवि ने किया है, उसी की सिद्धि महावीर स्वामी के स्वरूप में वह स्वयं ही करता है नातागोजनिशील का कारण कारी किन कि सीता गाँव की यत्र यत्र समये यथा तथा योऽसि सोऽस्यभिधया यया तया।” ताजा फालती : वीतदोषकलुषः स चेद् भवानेक एव भगवन्नमोऽस्तु ते।। (३१)
भूपालकावि
भूपालकवि ११-१२ शताब्दी के कवि माने गये हैं। इनका नामोल्लेख मात्र मिलता है। | कवि परिचय नहीं मिलता। ‘जिनचतुर्विशिकास्तोत्र’ उन्होंने कब और कहाँ लिख इसका भी कोई संकेत नहीं मिलता। बाकाय प्रशासक किम USE कालिक का जानकी 16. श्री का नाम गंगा मां की पीय मामला
जिनचतुर्विंशतिका
इस स्तोत्र में २६ पद्य हैं इनमें दर्शन की महत्ता ख्यापित करते हुए जिन प्रतिमा दर्शन | को लौकिक और पारलौकिक अभ्युदयों का कारण बतलाया है की कि टिकी कांचा जिलका श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं कीर्तिप्रमोदास्पदं … नकिक लि कार मिला कर वाग्देवी रतिकेतनं जयरमा क्रीडानिधानं महत्। मानवी TICAIDE TER सिं स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं यः प्रार्थितार्थप्रदं ही पास I foकति प्रातः पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनांधिद्वयम् ।।। कीलोला है REP जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातःकाल के समय जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करता है, वह बहुत ही सम्पत्तिशाली होता है। पृथ्वी उसके वश में रहती है, उसकी कीर्ति सब ओर फैल जाती है, वह सदा प्रसन्न रहता है। उसे अनेक विद्याएं प्राप्त हो जाती हैं, युद्ध में उसकी विजय होती है, अधिक क्या उसे सब उत्सव प्राप्त होते हैं - जिला सीमा स्वामिन्नध विनिर्गतोऽस्मि जननीगर्भान्धकूपोदरा-सा Fि pap दद्योद्घाटितदृष्टिरश्मिफलवज्जन्मास्मि चाद्यस्फुटम्। कि गदि मानाचा त्वमद्राक्षमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयी र B कामी के गानाशा मिनेन्दीवरकाननेन्दुममृतस्यन्दि प्रभाचन्द्रिकम् ।। की हारी माँ १. काव्यमाला सप्तम गुच्छक पृ. २६-३० काव्य-खण्ड लाश भूपालकवि ने वीतराग के मुख को त्रैलोक्यमंगलनिकेतन बतलाया है। इस स्तवन पर सबसे पुरानी टीका पं. आशाधर की है। विकार impeth ne किया का जैन परम्परा के अन्य स्तोत्रों में आचार्य जिनप्रभ का पार्श्वनाथस्तव, श्री गौतमस्वामी स्तोत्र तथा सिद्धान्तागमस्तोत्र, कमलप्रभ का जिनपञ्जरस्तोत्र, उपाध्याय अमरमुनि का महावीरस्तोत्र, जिनप्रभाचार्यविरचित श्रीवीरस्तव, जिनप्रभसूरि के तीन स्तोत्र- चतुर्विंशति जिनस्तव, पार्श्वस्तव तथा श्रीवीरनिर्वाणकल्याणकस्तव आदि उल्लेखनीय हैं। तिलकमञ्जरीकार महाकवि धनपाल के भाई शोभन मुनि ने चतुर्विंशतिजिनस्तुतिः की रचना की है, जिसमें शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा तथा दण्डक छन्दों में ६६ पद्य हैं तथा सभी पचों में द्वितीय और चतुर्थ पंक्तियों में यमक के द्वारा वर्णविन्यास एक सा रखते हुए कवि ने चित्रकाव्य रचना की विचित्र चातुरी प्रकट की है। जिनप्रभ के सिद्धान्तागमस्तव में जैन दर्शन की पारिभाषिक शब्दावली का प्रत्येक पद्य में प्रचुर प्रयोग है, जिसके कारण यह बिना टीका के समझा नहीं जा सकता है। जिनवल्लभसूरि का श्रीमहावीरस्वामीस्तोत्र भाषासम अलंकार का आकर्षक प्रयोग है। इसका प्रत्येक पद्य संस्कत तथा प्राकत दोनों भाषाओं में समानतया व्यवहार्य है। जिनप्रभाचार्य का श्रीवीरस्तव विविध छन्दों के उदाहरण प्रस्तुत करता है, प्रत्येक पद्य में छन्द का नाम भी कवि ने श्लेष के द्वारा सार्थक रूप में समाविष्ट कर दिया है।