लक्ष्मीसहस्र वेंकटाध्वरि की एक अलौकिक एवं अनुपम स्तोत्र कृति है जिसमें एक हजार श्लोकों में माँ लक्ष्मी की स्तुति की गई है। HिIRE जांगला कि कवि कल्पना की ऊँची उड़ान भरता है तथा माता की स्तुति में सुन्दर श्लोक रचता है। श्री लक्ष्मी जी के अंगों में दशावतारों का अनुपम वर्णन कवि की एकान्त विशेषता को प्रकट करता है - कृष्णः केशो दृगेषा झषतनुरधरो मन्दरागं हि धत्ते - सौकर्य दोष्णि रेजे किल मुखहरिता मध्यमात्ताबलिश्रीः। रामान्यत्वं वपुः श्रीः प्रथयति यमुनादर्पहरोमवल्ली म धत्ते जङ्घाभिरामश्रियमिव कलिहृत्पादमं तव श्रीः।। (लक्ष्मी के केश कृष्ण (काले-श्रीकृष्ण) हैं; इनके नेत्र झषतनु (मछली) की तरह तथा मत्स्य रूप है; अधर मन्दराग (हल्का रक्तवर्ण, मन्दर पर्वत) को धारण करने वाला; बाहु में सौकर्य (सुन्दर हाथ-सूकरावतार) प्रकाशित हो रहा है; मुख मण्डल हरिता चन्द्ररूपता तथा नृसिंह का स्वरूप चमक रहा है; बलिश्री (त्रिवली शोभा-बलि दैत्य की राज्यलक्ष्मी) मध्यभाग ने प्राप्त कर लिया है। शरीर की कांति रामाग्रज (रमणियों में श्रेष्ठ-परशुराम) हो गई है; रोमावली ने यमुना का घमण्ड चूर्ण कर दिया- (अधिक काली-बलराम) था। लक्ष्मी की जंघा अभिराम शोभा (अत्यन्त मनोहर शोभा तथा रामचन्द्र की श्री) को धारण कर रही है। हे भगवति! आपके चरणों की शोभा कलिहत् है अर्थात् कलह का विनाश कर देती है और स्वयं कल्कि रूप है जिन्होंने कलियुग का नाश कर डाला।) में ४२६ न इस पद्य में चन्द्रमा के द्विजराज होने की कल्पना परम प्रतिभा का प्रमाण है और इस पद्य में शब्द-सौन्दर्य का अर्थ चमत्कार देखिए - sी ही मा नदवनजमहो महातपःश्री कृतरुचि ते मुखजन्म लिप्समानम्। अपि यदि तदधः शिरस्तपस्येज्जनवदनं कमले! भवेत्तथापि।। आता मालक्ष्मीसहस्र को आचार्य बलदेव उपाध्याय ने उत्तम स्तोत्रकाव्य मानते हुए लिखा है ‘इन्होंने जो कुछ लिखा है उससे अलौकिक प्रतिभा, नित्यनूतन उत्प्रेक्षा और कमनीय रचनाचातुरी का परिचय मिलता है। संस्कृत भाषा में यह रसपेशल तथा उत्प्रेक्षामण्डित काव्य लिखकर वेंकटाध्वरि सचमुच अमर हो गए हैं। विभाजित निस्संदेह लक्ष्मीसहस्र कवि की एक स्तुत्य एवं अभिनंदनीय कृति है। कि मि | भिमा पापी RBIPED