इस स्तोत्र में कांची के भगवान् वरदराज की स्तुति १०६ पद्यों में की गई है। यह भक्तिपूर्ण तथा दार्शनिक रचना है। स्तव की भाषा सरस, सरल एवं कमनीय है। दर्शन और शास्त्र के क्षेत्र में अप्पय जितने ही उद्भट पण्डित और विचारक हैं, स्तोत्र में वे उतने ही निश्छल और विनम्र हैं। कालिदास के रघुवंश-रचना के उपक्रम के समान वरदराज स्तुति के उपक्रम में वे अपनी उपहास की आशंका व्यक्त करते हैं - की तिला जातो न वेत्ति भगवन्न जनिष्यमाणः काम करीतही पारस्परं परमपूरुष ते महिम्नः।। अ शिलशिलाई तस्य स्तुतौ तव तरङ्गितसाहसिक्यः नामाह किं मादृशो बुधजनस्य भवेन्न हास्यः।। (२) (हे परमपुरुष, आपकी महिमा को जो मनुष्य हो चुके हैं, वे न जान सके, जो होंगे, वे भी नहीं जान सकेंगे। आपकी स्तुति में दुस्साहस की तरंग से भरा मेरे जैसा व्यक्ति विद्वानों का उपहासपात्र क्यों न होगा?) छ वरदराज के माहात्म्य-वर्णन में अर्थालङ्कारों का सटीक विन्यास अप्पय ने किया है। उत्प्रेक्षा का उदाहरण देखिये मन्ये निजस्खलनदोषमवर्जनीयमन्यस्य मूर्ध्नि विनिवेश्य बहिर्बुभूषुः। आविश्य देव रसनानि महाकवीनां देवी गिरामपि तव स्तवमातनोति।। (३) (हे देव, सरस्वती भी डरती है कि आपकी स्तुति में उससे त्रुटि हो जायेगी, अतः वह स्वयं आपकी स्तुति न करके महाकवियों की रसना में आविष्ट होकर उनके माध्यम से स्तुति करती है।)