१५ लीलाशुक के स्तोत्र

लीलाशुक या बिल्वमंगल के ‘कृष्णकर्णामृत’ के दो संस्करणों की पाण्डुलिपियाँ प्राप्त होती हैं। दक्षिण और पश्चिमी भारत के हस्तलेखों में यह काव्य तीन सर्गों में मिलता है, प्रत्येक सर्ग में १०० से अधिक पद्य हैं। बंगाल के संस्करण में केवल एक ही आश्वास है, जिसमें ११२ पद्य हैं। डा. एस.के.डे के मत से गौडीय संस्करण में मिलने वाला यह पहला तथा एकमात्र आश्वास ही मूल कृष्णकर्णामृत काव्य है। इस आश्वास की पुष्पिका में कवि बिल्वमंगल या लीलाशुक का परिचय दिया गया है। लीलाशुक के पिता दामोदर तथा माता नीवी थी। उनके गुरु का नाम ईशानदेव था। काव्य के आरम्भ में कवि ने अपने गुरु का नाम सोमगिरि जी बताया है, जो शंकराचार्य परम्परा के कोई यति थे। लीलाशुक का पूरा नाम कृष्णलीलाशुक है। दक्षिण में कृष्णलीलाशुक कवि के विषय में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। केरल, बंगाल, उत्कल आदि प्रान्तों की परम्पराएँ उन्हें अपना अभिजन बताती आयी लीलाशक का समय-निर्धारण एक समस्या है। डा. डे उन्हें जयदेव के पहले का मानते हैं। कीथ और विण्टरनित्स ने उन्हें ग्यारहवीं शताब्दी में स्थापित किया है, जबकि डा. कंजुत्रि राजा ने उन्हें तेरहवीं शताब्दी का बताया है। पं. बलदेव उपाध्याय ‘पुरुषकार’ नामक टीका के कर्ता से उन्हें अभिन्न तथा तेरहवीं शती का मानते हैं। लीलाशुक की ही एक अन्य रचना गोविन्ददामोदर का भी उल्लेख मिलता है तथा ‘प्राकृत श्रयंककाव्य’ सिरिचिन्धकव्व’ के भी रचयिता ये ही कहे गये हैं (इस काव्य की चर्चा प्राकृत महाकाव्यविषयक अध्याय में की जा चुकी है।) कृष्णकर्णामृत में विभिन्न छन्दों का प्रयोग हुआ है। इसके पद्य दक्षिण में बहुत लोकप्रिय रहे हैं तथा इनका गायन भी प्रचलित रहा है। दाया- कृष्णकर्णामृत दो संस्करणों में प्राप्त होता है। दाक्षिणात्य पाण्डुलिपियों पर आधारित संस्करण में तीन आश्वास हैं, जिनमें क्रमशः १०७, ११० तथा १०२ पद्य हैं। तीन आश्वास वाले पाठ पर सुवर्गचषक नामक संस्कृत टीका मिलती है। बंगाली संस्करण में आश्वासों में विभाजन नहीं है तथा कुल ११२ ही पद्य हैं, जो दाक्षिणात्य संस्करण के प्रथम आश्वास के पद्यों से अधिकांशतः मिलते-जुलते हैं। इस संस्करण पर कृष्णदास कविराज की १. ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर : एस.एन.दास गुप्त तथा डे, पृ. ३८६-६२ २. जयदेव की भांति इस कवि की भी जन्मभूमि अलग-अलग प्रान्तों के लोग अपने-अपने प्रान्त में । मानते आये हैं। प्रो. रामजी उपाध्याय ने उन केरल का नम्बूरिति ब्राह्मण बताया है। बिल्वमंगल के का लिये चापमंगल या कोदण्डमंगल-इन नामों का भी प्रयोग होता है। मलयालम भाषा में बिल्लू का अर्थ धनुष है। संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : डा. रामजी उपाध्याय, पृ. ५३२, भाग-१ व. संस्कृत शास्त्रों का इतिहास स्तोत्रकाव्य ४११ सारभरङ्गदा नामक संस्कृत टीका मिलती है। डा. सुशील कुमार दे इसी संस्करण को प्राचीन और प्रामाणिक मानते हैं।’ कृष्णकर्णामृत को लोकप्रिय बनाने के पीछे महाप्रभु चैतन्य का विशेष योगदान माना गया है। चैतन्यचरितविषयक काव्यों में उनके द्वारा इसकी पाण्डुलिपियाँ दक्षिण से लाने और इसके पद्यों का भाव-विभोर होकर गायन करने के उल्लेख मिलते हैं। टीकाएँ - कृष्णकर्णामृत पर लिखी टीकाओं में गोपाल भट्ट की कृष्णवल्लभा सर्वप्राचीन कही जा सकती है। गोपाल भट्ट चैतन्य महाप्रभु के साक्षात् शिष्य थे। लगभग इसी समय वृन्दावन के गोविन्द मन्दिर से सम्बद्ध श्री चैतन्यदास वैष्णव ने सुबोधिनी नामक व्याख्या इस काव्य पर लिखी थी। कृष्णदास कविराज की सारङ्गरगदा टीका कृष्णकर्णामृत की टीकाओं पर सर्वाधिक विस्तृत तथा उपादेय है। बंगाली में चैतन्यचरित के लेखक श्री कृष्णदास कविराज चैतन्य के कुछ समय पश्चात् हुए। दाक्षिणात्य टीकाकार पापयल्लय सूरि का समय अज्ञात है। डा. दे के अनुसार वे सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दियों में हुए उक्त तीनों बंगाली टीकाकारों के बहुत बाद के हैं।’ नवीन छन्दों का प्रयोग, भक्तिभाव की तन्मयता और अपूर्व आवेग के साथ परिस्फुरित पदावली. लावण्य और माधुर्य का अनठापन कृष्णकर्णामृत की ऐसी विशेषताएं हैं, जिनके कारण जयदेव के गीत-गोविन्द के साथ इस काव्य का नाम लिया जाता रहा है। कवि को संगीत और नृत्य का ज्ञान था तथा तदनुसार उसने छन्दों का प्रयोग किया है। भाव की दृष्टि से श्रीकृष्णकर्णामृत’ का निम्न पद्य अत्यन्त मनोरम है - अग्ने दीर्घतरोऽन्यमर्जुनतरुस्तस्याग्रतो वर्तनी के साघोष समुपैति तत्परिसरे देशे कलिन्दात्मजा। तस्यास्तीरतमालकाननतले चक्र गवां चारयन् गोपः क्रीडति दर्शयिष्यति सखे पन्थानमव्याहतम् ।। (२।४३) देखो, दूर एक विशाल अर्जुन वृक्ष है। उसके नीचे से एक पगडंडी जाती है। (अर्जुनके समीप से ही कृष्ण से बनाया हुआ गीतामार्ग जाता है।) तह किसी गोप के घर जा मिलती है। उसके निकट ही यमुना का प्रवाह बहता है। उसके तट पर तमालों का वन है और उसमें एक चरवाहा (श्रीकृष्ण) गार्यों को चराता है। वहाँ खेलने वाला कृष्ण, हे सखे! शाश्वत गति का रास्ता अवश्य बताएगा। १. कृष्णकर्णामृत : सं. सुशीलकुमार दे, भूमिका, पृ. ६ तथा १८- १ २. वही, पृ. ३. वही, पृ. १०-११ ४. टीकाकार कृष्णदास कविराज ने अपने चैतन्यचरित में इस काव्य के विषय में लिखा है - त्यात कृष्णकर्णामृत समवस्तु नाहि त्रिभुवने। याहा हइते हय कृष्ण प्रेमरसज्ञाने। सौन्दर्यमापुर्य कृष्णलीलार अवधि । ले जाने से कृष्माकर्णामृतपदे निरवधि ।। जिला ४१२ काव्य-खण्ड श्रीकृष्ण के प्रति भक्तिभावना का एक दूसरा पद्य निम्न है - या गोधूलिधूसरितकोमलगोपवेषं गोपालबालकशतैरनुगम्यमानम्। सायन्तने प्रतिगृहं पशुबन्धनार्थ गच्छन्तमच्युतशिशुं प्रणतोऽस्मि नित्यम्।। (२१४४) मैं उस बालवेशधारी अच्युत (श्रीकृष्ण) के सामने अपना शीश नवाता हूँ, जिनका मनोहर गोपवेष, गायों से उड़ायी गयी धूलि से मैला हो गया है, जो सैकड़ों गोपकिशोरियों से घिरा हुआ है और जो प्रतिदिन शाम को पशुओं को ठीक तरह बँधवाने के लिए हर एक घर को जाता है। लीलांशुक के अन्य स्तोत्रों में गोविन्ददामोदरस्तोत्र गेयता और भक्तिभाव की तन्मयता के कारण सरस और सुपाठ्य बन पड़ा है। इसमें उपजाति छन्द का प्रयोग है और प्रत्येक पद्य के चतुर्थ पाद में ‘गोविन्द दामोदर माघवेति’ की आवृत्ति को ऊपर के तीन पदों के साथ सटीक रूप में अन्वित किया गया है। उदाहरणार्थ - सिम प्रभातसञ्चारगतानुगावस्तद्रक्षणार्थ तनयं यशोदा। प्राबोधयत् पाणितलेन मन्दं गोविन्द दामोदर माधवेति।। मन्दारमूले वदनाभिरामं बिम्बाधरे पूरितवेणुनादम्। गो-गोप-गोपीजन मध्यसंस्थं गोविन्द दामोदर माधवैति ।। अग्रे कुरूणामथ पाण्डवानां दुःशासनेनाहृतवस्त्रकेशा। कृष्णा यदाक्रोशदनन्यनाथा गोविन्द दामोदर माधवेति।। इस प्रकार कृष्ण की बाललीलाओं, यशोदा का उन्हें जगाना, गोचारण, वेणुवादन, रास, द्रौपदी की मानरक्षा आदि का वर्णन करते हुए कवि ने कृष्ण का तन्मय भाव से नाम जप भी इस स्तोत्र में किया है। इस स्तोत्र में ७१ पद्य हैं।

  • वृन्दावनस्तुति लीलाशुक का अन्य सुप्रसिद्ध स्तोत्र है। इसमें स्तुति के साथ-साथ रासलीला का वर्णन अत्यन्त आकर्षक है। जयदेव के गीतगोविन्द के ही समान लीलाशुक का कृष्णकर्णामृत एक उपजीव्य काव्य है। इसके अनुकरण पर प्रतापसिंह तथा रामभद्र दीक्षित द्वारा रामकर्णामृत नामक दो अलग-अलग काव्य रचे गये, सुब्रह्मण्य कवि के द्वारा श्रीनिवासकर्णामृत की रचना की गयी। कृष्णकर्णामृत पर टीकाओं की भी लम्बी परम्परा है। कृष्णमाचारियर ने इस पर सात प्राचीन टीकाओं का उल्लेख किया है। १. हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ. ३३७ र स्तोत्रकाव्य