लोष्टककवि कश्मीर में बारहवीं शती में हुए। इनके पिता का नाम रम्यदेव था। महाकवि मङ्ख ने अपने श्रीकण्ठचरितमहाकाव्य के अन्तिम सर्ग में रम्यदेव तथा लोष्टदेव (लोष्टक) दोनों का उल्लेख किया है तथा लोष्टदेव द्वारा विरचित कतिपय सुन्दर पद्य भी इसी प्रसंग में उद्धृत किये हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि लोष्टक ने कतिपय अन्य काव्य भी लिखे होंगे, पर दीनाक्रन्दनस्तोत्र के अतिरिक्त उनका अन्य कोई काव्यग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता। दीनाक्रन्दनस्तोत्र से विदित होता है कि इसके प्रणेता ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वाराणसी में निवास किया तथा वहीं इस स्तोत्र का प्रणयन किया। इस स्तोत्र का एक पद्य वल्लभदेव ने सुभाषितावली में उद्धृत किया है, पर कविनाम का उल्लेख नहीं किया। जल्हण की सूक्तिमुक्तावली में भी लोष्टक का एक पद्य उद्धृत है। मस: मदीनाक्रन्दनस्तोत्र में कवि ने समर्पण तथा दैन्य की पराकाष्ठा व्यक्त की है। भावनाओं का ऐसा दुर्निवार प्रवाह, विषाद, आत्मग्लानि, अनुताप और अहंभाव के विगलन का ऐसा मार्मिक चित्र बहुत कम ही काव्यपरम्परा में प्राप्त होता है। प्रायः सभी पद्यों में कवि ने नवीन उपमानों का उपयोग किया है। कहीं-कहीं अप्रचलित या कश्मीरीभाषा के शब्दों का भी प्रयोग है। पहले ही पद्य में लोष्टक कहते हैं - ४E स्तोत्रकाव्य चुण्ठीजलैरिव सुखैः परिणामदुःखै रास्वादितैरपि मनागविलुप्ततृष्णः। श्रान्तोऽस्मि हा भवमरौ सुचिरं चरित्वान तच्छायया चरणयोः शिव मां भजेथाः।। हे शिव, मैं इस संसाररूपी मरुस्थल में चुंठी के ऊपर से सुखदायक पर परिणाम में दुखदायक भोगरूपी जल का आस्वादन करके भी किंचित् भी तृष्णारहित नहीं हो सका, और अब थक कर आपके चरणों में आया हूँ, मुझे आश्रय दीजिये।) यहाँ चुण्ठी अप्रयुक्त शब्द है, जो प्रस्तरों के बीच लताओं से घिरे हुए जलाशय का वाचक है। _ कवि अपने अन्तर्मन में झाँक कर देखता है और अपने विकारों, वासनाओं को समझ कर उनसे त्राण पाना चाहता है - दुर्वासनाशतवशादशुचित्वमीक्ष्य या मे हठात् कृतवती मनसि प्रवेशम्। साऽनेकजन्ममरणावटपातनेन मां राक्षसीव बहु नाथ तुदत्यविद्या।। गाय (दुर्वासनाओं के वश में होने से उत्पन्न अशुचिता के कारण राक्षसी की भाँति जिस अविद्या ने मेरे मन में घर कर लिया था, अविद्या मुझे बार-बार जन्म और मृत्यु के खड्ड में गिरा-गिरा कर अत्यधिक सता रही है। _दीनाक्रन्दनस्तोत्र मोहभंग और विरक्ति का काव्य भी है। शंकराचार्य की चर्पटपञ्जरिका तथा मोहमुद्गर के समान ही यहाँ परिवार, कुटुम्ब और सांसारिक सम्बन्धों की व्यर्थता का गहरा बोध कवि ने प्रकट किया है। कवि सारे भवबन्धनों से होने वाली दुर्गति का मूल अपने परिणय को मानता है, उसी के पश्चात् परस्नेह के अधीन होकर उत्कट नागपाशों से बंधता चता गया। घर-परिवार चलाने के लिये उचितानुचित का विचार त्याग कर क्या-क्या नहीं किया? निकृष्ट धनपतियों के द्वार पर कुत्ते की भाँति ककुयाना भी पड़ा और सैकड़ों अपमान झेल-झेल कर खिन्न रहना पड़ा-‘द्वारि श्ववल्लडितमेव कदीश्वराणां, सोढावमानशतविक्लवमानसेन ।।’ (१२) दैन्य और ग्लानि के भाव के साथ-साथ कवि ने अपनी निःस्पृहता को भी सुदृढ़ रूप में यहाँ अभिव्यक्त किया है। पूरा स्तोत्र शिव की स्तुति में है तथा कतिपय छन्दों में शिव विषयक दक्षिण की पारम्परिक कथाओं के भी सन्दर्भ हैं। इस स्तोत्र में कुल ५४ पद्य हैं, जिनमें आरम्भ के ४७ पद्य वसन्ततिलका में हैं तथा अवशिष्ट पद्यों में शार्दूलविक्रीडित, शिखरिणी, मन्दाक्रान्ता आदि विविध छन्दों का प्रयोग है। काव्य-खण्ड