मूककवि के द्वारा कामाक्षी देवी की स्तुति में विरचित पाँच शतक भावैकतानता, अप्रस्तुतविधान या कल्पनाओं की नवीनता तथा अभिव्यक्ति की उदात्तता के कारण शङ्कराचार्यकृत सौन्दर्यलहरी या आनन्दलहरी के समतुल्य हैं, भले ही इनका प्रचार अपेक्षाकृत कम रहा हो। 11 मूककवि का समय तथा स्थान अज्ञात है, इनका वास्तविक नाम भी अविदित ही है। अपने पांचों शतकों में इन्होंने बारम्बार काञ्ची तथा नागरी का उल्लेख किया है, जिससे इनका दाक्षिणात्य होना तथा काञ्ची का निवासी होना अनुमित होता है। कुछ विद्वानों ने तो शंकराचार्य की सौन्दर्यलहरी में देवी के प्रसाद से स्वभावतः मूक के मुख में भी ताम्बूलरसवत् वाणी के संचार होने के उल्लेख के आधार पर मूककवि को शंकराचार्य का भी पूर्ववर्ती मान लिया है। मूककवि के विषय में किंवदन्ती भी है कि इन स्तोत्रों की रचना .. के अनन्तर उन्हें वाणी प्राप्त हो गयी थी। देवी कामाक्षी ने रात्रि में कन्या रूप में आकर सोते हुए गूंगे कवि को जगाकर मुख खोलने का आदेश दिया और ताम्बूल की वीटी उनके मुख में डाल दी, जिससे वे बोलने लग गये। काव्यामालासम्पादक मूककवि की प्राचीनता को स्वीकार नहीं करते। सौन्दर्यलहरी तथा आनन्दलहरी के समान ही मूककवि की देवी-स्तुति में तन्त्रविषयक गूढ संकेत है। कुछ पद्यों का तो अर्थबोध भी इस कारण दुष्कर है। १. द्र. कटाक्षशतक-१, आर्याशतक १,२,४,७ आदि। २. प्रकृत्या मूकानामपि च कविताकारणतया कदा पत्ते वाणी मुखकमलताम्बूलरसताम् ।। इ. संस्कृतसाहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : डा. रामजी उपाध्याय, भाग-१, पृ. ५२६ ३. काव्यमाला गुच्छक-५, पृ. १ ४. द. आर्याशतक, पद्य-५८, ५६४०४ काव्य-खण्ड इस कवि के पाँच शतकों के पृथक्-पृथक् नाम इस प्रकार हैं-कटाक्षशतक, मन्दस्मितशतक, पादारविन्दशतक, आयांशतक तथा स्तुतिशतक। इनमें से कटाक्षशतक वसन्ततिलका छन्द में, मन्दस्मितशतक शार्दलविक्रीडित में, पादारविन्दशतक शिखरिणी में, आर्याशतक आर्या में तथा स्तुतिशतक विविध छन्दों में निबद्ध हैं। भाषा पर असाधारण अधिकार, वक्रोक्ति की प्रौढ़ता तथा कवित्व का अप्रतिम प्रकर्ष मूककवि की रचना में मिलता है। भाषा यहाँ भावों की चेरी हो गयी है तथा उत्तमोत्तम पदों की श्रृंखला अभिव्यक्ति के प्रवाह में अहमहमिकया विनिःसृत होती चली गयी है। अलंकारों की अपृथग्यत्ननिर्वर्तनीयता और विच्छित्ति भी मूक कवि की रचना में आस्वादनीय है। शंकराचार्य की सौन्दर्यलहरी के ही समान यहाँ देवी के मातृत्व का बोध उदात्त धरातल पर कवि ने कराया है। मूककवि कहीं तो सहज और सरल रूप में वस्तु को प्रकट करते हैं, वे प्रस्तुत करते हैं, जैसे देवी के कटाक्ष का यह मधुर चित्र - आनङ्गतन्त्रविविदर्शितकौशलाना मानन्दमन्दपरिघूर्णनमन्थराणाम् । तारल्यमम्ब तव ताडितकर्णसीम्नां । कामाक्षि खेलति कटाक्षनिरीक्षणानाम् ।। (कटाक्षशतक-३) किया तो कहीं वे श्लेष, यमक जैसे अलंकारों की छटा उत्पन्न कर के अभिव्यक्ति को आहार्यकविकौशल से और भी रमणीय बना देते हैं। इसी प्रसंग का पद्य है - साहाय्यकं गतवती मुहुरर्जुनस्य । जि पालक मन्दस्मितेन परितोषितभीमचेताः। शिगार की कामाक्षि पाण्डवचमूरिव तावकीना । कर्णान्तिकं चलति हन्त कटाक्षलक्ष्मीः।। (वही-५) हे कामाक्षि, अर्जुन (पाण्डव, शुक्लता) की सहायता करने वाली, मन्द मुस्कान से भीम (पाण्डव, शिव) को तुष्ट करने वाली तुम्हारी कटाक्षलक्ष्मी पाण्डवसेना के समान कर्ण (राधेय, कान) के निकट जा रही है।) मन्दस्मितशतकम् में कवि ने यद्यपि शार्दूलविक्रीडित छन्द का प्रयोग किया है, पर यहाँ भी स्मिति के चापल्य, तरलता और लावण्य के साथ-साथ माधुर्य और ओजस् का सम्मिश्र अनुभव वह दे सका है। कहीं तो मूककवि ने गाढ बन्ध का उपयोग किया है, तो कहीं शिथिल बन्ध का व्यतिरेक अलंकार का प्रयोग बड़ा सटीक कर्पूरद्युतिचातुरी मतितरामल्पीयसी कुर्वती दौर्भाग्योदयमेव संविदधती दोषाकरीणां त्विषाम्। ४०५ स्तोत्रकाव्य क्षुल्लानेव मनोज्ञमल्लिनिकरान् फुल्लानपि व्यञ्जती कामाक्ष्या मृदुलस्मितांशुलहरी कामप्रसूरस्तु मे ।। कालीका (मन्दस्मितश. - ३) (कर्पूर की कान्ति को फीका बनाने वाली, चन्द्रमा की रश्मियों के लिये दुर्भाग्य का उदय करने वाली, सुन्दर मल्लिकुसुमों की मनोज्ञता व्यञ्जना करने वाली कामाख्या देवी की मृदु स्मितांशुलहरी मेरी कामनाओं की प्रसवित्री बने।) समकही मिमिकामा मूककवि का सौन्दर्यबोध कालिदास तथा बाणभट्ट के उत्तम काव्यांशों का स्मरण कराता है। इन दोनों कवियों की भाँति वे सौन्दर्यचित्रण में विविध रंगों के सम्मित्रण से उत्पन्न शबल कान्ति और वर्णविच्छित्ति की रमणीयता का बोध कराते हैं। कामाक्षी के स्मित के वर्णन वे कहते हैं-कस्तूरिका के पत्र की शोभा से युक्त उत्तुंग वक्ष पर देवी के कोमल स्मित के अंश बिखर रहे हैं, जो अघर की ज्योति से मानो संन्ध्या के सूर्य की किरणों में रंग कर शरद् के निर्मल फहराते बादल की शोभा का विस्तार कर रहे हैं - या उत्तुंगस्तनकम्भशैलकटके विस्तारिकस्तरिका पत्र श्रीजुषि चञ्चलाः स्मितरुचः कामाक्षि ते कोमलाः। सन्ध्यादीधितिरञ्जिता इव मुहुः सान्द्राधरज्योतिषा व्यालोलामलशारदाभ्रशकलव्यापारमातन्वते ।। (मन्दस्मितश- २२) मूककवि ने शंकराचार्य की भाँति अपने स्तोत्रों में भक्तिभाव, माधुर्य और सौन्दर्य का अद्भुत संगम उपस्थित कर दिया है। समर्पण और कनिष्ठ भावना के साथ-साथ कविता का यह ऊर्ध्वारोहण बिरले कवियों में ही मिलता है। विशेष रूप से देवी के पादारविन्द के वर्णन में श्रद्धा, भक्ति और समर्पण के भावों में सौन्दर्य की नाना वर्णी छटाएं हमारी काव्यपरम्परा की अनुत्तम उपलब्धि को सामने रखती हैं। देवी की पादारविन्दद्युति के आगे कमल मुरझा गये हैं, उनके नख रूपी चन्द्रमाओं से फूटती किरणों से रक्ताभा शबलित हो रही है, जिससे श्रेष्ठ कवियों के हृदयरूपी कैरव (श्वेत कमल) खिलने लगे हैं। कामाख्या देवी के चरणों की कान्ति की इस अद्भुत सन्ध्या (मिश्रण) का कैसे वर्णन किया जाये - नयन्ती सङ्कोचं सरसिजरुचं दिक्परिसरे सृजन्ती लौहित्यं नखकिरणचन्द्रार्धखचिता। कवीन्द्राणां हृत्कैरवविकसनोद्योगजननी । स्फुरन्ती कामाक्ष्याश्चरणरुचिसन्ध्या विजयते।। (पादार.-७) वस्तुतः मूककवि के ये पांचों शतक कवित्व की समृद्धि तथा भावबोध दोनों की दृष्टि से केवल शंकराचार्य की दोनों लहरियों से ही तुलनीय ठहरते हैं। कही-कहीं पदावली का साम्य भी शंकर तथा मूककवि दोनों में है। यथा- मकर काव्य-खण्ड पुरीणामीष्टे कस्तव भणितुमाहोपुरुषिकाम् ।।
- पादारविन्दश. - ६० पुरस्तादास्तां नः पुरमधितुराहोपुरुषिका ।। पालका लागीमा ताना -सान्दयलहरी मूककवि का बिम्बविधान और कल्पनाओं की ऊंची उड़ान कहीं-कहीं रसिकचित्त को चमत्कृत ही नहीं, विस्मयस्तब्ध कर देती है। वस्तुतः उनका काव्य गहरी अनुभूति और प्रातिभ उन्मेष का निर्मल दर्पण है।