आचार्य शङ्कर की आनन्दलहरी में २० पद्य हैं। यह भी शिखरिणी छन्द में निबद्ध है। इसमें आचार्य ने अत्यन्त भक्ति-भाव से देवी की स्तुति की है। पद्यों की मधुरता, भावप्रवणता और मनोहरता दर्शनीय है - मुखे ते ताम्बूलं नयनयुगले कज्जलकलाकार ललाटे काश्मीरं विलसतिगले मौक्तिकलता। स्फुरत्काञ्ची शाटी पृथुकटितटे हाटकमयी गल्तीला भजामि त्वां गौरी नगपतिकिशोरीमविरतम् ।। एक अन्य पद्य में भवानी को चिदानन्दलतिका कहा गया है - हिमाद्रेः संभूता सुललितकरैः पल्लवयुता कति सुपुष्पा मुक्ताभिर्धमरकलिता चालकभरैः। या कृत स्थाणु स्थाना कुचफलनता सूक्ति सरसा रुजां हन्त्री गन्त्री विलसति चिदानन्दलतिका ।। ‘देव्यपराधक्षमापणस्तोत्र’ में देवी के प्रति शङ्कराचार्य का सम्पूर्ण समर्पणभाव अत्यन्त उदात्त है। इसमें शिखरिणी छन्द में ८ पद्य हैं। भक्तिभाव से ओत-प्रोत आचार्य ने चरमलक्ष्य मोक्ष की अपेक्षा भगवती के नामजप में ही जीवन की सार्थकता स्वीकार की है न मोक्षस्याकांक्षा भवविभववाच्छाऽपि च न मे न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि! सुखेच्छाऽपि न पुनः। अतस्त्वां संयाचे जननि! जननं यातु मम वै ।। मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः।। मनाया ‘चर्पटपञ्जरिका’ स्तोत्र में संसार की असारता का सटीक वर्णन है। इसमें १६ पद्य हैं। आचार्य शङ्कर ने एक वृद्ध ब्राह्मण को उपदेश देते हुए कहा है - काव्य-खण्ड दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्ती पुनरायातः काही भारत तापनि नि कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः। गाय के भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मढमते शिक्षक महास प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुककरणे।। अर्थात् केवल धातुपाठ करने से मुक्ति नहीं मिलेगी अतः गोविन्द का भजन करो। तत्त्वज्ञान हो जाने पर संसार की असारता का वर्णन करते हुए आचार्य ने कहा है वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः। नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ।। मागिर उपर्युक्त प्रसिद्ध स्तोत्रों के अतिरिक्त आचार्य शकर के शिवानन्दलहरी, दक्षिणामूर्तिस्तोत्र, अन्नपूर्णास्तोत्र, मोहमुद्गरस्तोत्र, कौपीनपञ्चकस्तोत्र और कनकधारास्तोत्र भी हैं।
कनकधारास्तोत्र
भगवती लक्ष्मी की स्तुति में विरचित नितान्त मनोरञ्जक तथा कवित्वपूर्ण है। पद्यों की संख्या २२ हैं जिनमें लक्ष्मी के केवल कटाक्ष का ही रुचिर वर्णन उपलब्ध होता है। लक्ष्मी के नेत्र के ऊपर मेघ का रूपक अत्यन्त सुसगत है - दद्याद् दयालुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकिञ्चनविहंगशिशी विषण्णे। दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनी नयनाम्बुवाहः।। अर्थात् पक्षी के बच्चे के समान मुझ अकिंचन पर दयारूपी पवन से प्रेरित लक्ष्मी का नेत्ररूप मेघ दुष्कर्मरूप घाम को दूर कर धनरूप जल की वर्षा करे। इसके अतिरिक्त शङ्कराचार्य के दो ऐसे स्तोत्र भी हैं जिनमें भगवती के मानस पूजन एवं विशिष्ट पूजन के वर्णन मिलते हैं। शङ्कराचार्य विरचित ‘चतुः षष्ठी-उपचार मानस पूजास्तोत्र" अत्यन्त लोकप्रिय है। इसमें ६४ उपचारों से भगवती के मानस पूजन की विधि का वर्णन है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है। प्रातः काल जागरण के लिये भगवती से प्रार्थना की गयी है - कनकमय वितर्दिस्थापिते तूलिकाढ्ये विविध कुसुमकीर्णे कोटिबालार्कवणे। जामि . भगवति! रमणीये रत्नसिंहासनेऽस्मि - MF त्रुपविश पदयुग्मं हेमपीठे निधेहि।। TO शङ्कराचार्य के त्रिपुरसुन्दरीमानसिकोपचारपूजा स्तोत्र में १२८ पद्य हैं। इसमें भगवती के विविध समय में विविध वस्तुओं से विशिष्ट पूजा का वर्णन है। इसमें भगवती के बीज मन्त्रों का भी कहीं-कहीं उपन्यास है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है - १. ट्रष्टव्य, काव्यमाला गुच्छक सं. ६ २. द्रष्टव्य, काव्यमाला गुच्छक सं.E स्तोत्रकाव्य मात्रैलोक्यमोहनमिति प्रथिते तु चक्रे किया कि यञ्चद् विभूषणगणत्रिपुराधिवासे। शाम कर राम ना रेखात्रये स्थितवतीरणिमादिसिद्धि-सिमित मुंद्रा नमामि सततं प्रकटाभिधास्ताः।। उपर्युक्त प्रसिद्ध स्तोत्रों के अतिरिक्त शङ्कराचार्य के अन्य स्तोत्र भी उपलब्ध हैं, जिनमें शिवभुजङ्गप्रयातस्तोत्र, मीनाक्षीपञ्चरत्न, अच्युताष्टक, कृष्णाष्टक, गोविन्दाष्टक, नर्मदाष्टक तथा हस्तामलकस्तोत्र उल्लेखनीय हैं। शङ्कराचार्य के नाम से प्रचलित साधनपंचक, विज्ञाननौका, प्रश्नोत्तरी तथा षट्पदी दार्शनिक चिन्तन की प्रौढ़ता से ओत-प्रोत हैं।