आचार्य शङ्कर के काव्य-सौष्ठव की पराकाष्ठा सौन्दर्यलहरी है। एक सौ शिखरिणी छन्द में रचित सौन्दर्यलहरी शङ्कराचार्य का सर्वोत्तम शाक्त स्तोत्र है। इसके आरम्भिक ४० पद्यों में तन्त्रशास्त्र के गम्भीर रहस्य का तथा शेष पद्यों में शिर से पैर तक त्रिपुर-सुन्दरी के अङ्ग-प्रत्यङ्ग के लोकातीत लावण्य का वर्णन है। भगवती त्रिपुर-सुन्दरी के दिव्य सौन्दर्य की छटा इस लहरी में जितनी उद्भासित हुई है, उतनी अन्यत्र नहीं। भाषा, भाव, रस तथा अलङ्कार- सभी दृष्टियों से इसकी अलौकिकता पद-पद पर झलकती है। निम्न उदाहरण द्रष्टव्य है - विकशि जानिय जनकली कि नमा तनोत क्षेमं नस्तव वदनसौन्दर्यलहरी- STREATRE IS परीवाहस्त्रोतः सरणिरिव सीमन्तसरणी। FRIBN वहन्ती सिन्दूरं प्रबलकबरीभारतिमिर - द्विषां वृन्दैर्वन्दी कृतमिव नवीनार्ककिरणम्।। की इस पद्य में भगवती कामाक्षी के सीमन्त और सिन्दूररेखा का वर्णन कल्पना की । कमनीयता का एक मनोरम निदर्शन है। हृदयस्पर्शी कल्पना का एक अन्य उदाहरण भी द्रष्टव्य है पवित्रीकर्तुं नः पशुपतिपराधीनहृदये दयामित्रनेत्रैररुणधवलश्यामरुचिभिः । कि नाही की नदः शोणो गङ्गातपनतनयेति ध्रुवममुं त्रयाणां तीर्थाणामुपनयसि संभेदमनघम् ।। १. शङ्कराचार्य पृ. १५८-१५६ में तथा संस्कृत सुकवि समीक्षा पृ. १४५६-४५८ में द्रष्टव्य। ४०१ स्तोत्रकाव्य भगवती ललिता के नेत्र में लाल, श्वेत और श्याम रग की जो प्रभा फूटकर भक्तों के ऊपर पड़ती है, तो प्रतीत होता है कि शोण, गङ्गा तथा यमुना इन तीनों तीर्थों का एक अनुपम सङ्गम उपस्थित हो गया है। का यह लहरी तान्त्रिक रहस्य को व्यक्त करने वाली अनेक टीकाओं से विभूषित है। उनमें लक्ष्मीधर की टीका अत्यन्त प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है।