साम्बपञ्चाशिका पचास पद्यों में सूर्य की स्तुति है, जिसके रचयिता श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब कहे गये हैं। वराहपुराण में साम्ब के द्वारा सूर्य की पचास पद्यों में स्तुति करने का उल्लेख मिलता है। इस पौराणिक परम्परा की दृष्टि से यह स्तोत्र अत्यन्त प्राचीन हो सकता है। इसकी प्राचीनता का एक प्रमाण यह भी है कि कश्मीर के शैव दर्शन के प्रतिष्ठित आचार्य तथा श्रीमदभिनवगुप्त के शिष्य श्रीक्षेमराज ने इस पर टीका लिखी है। टीकाकार क्षेमराज का भी यही विश्वास है कि यह स्तोत्र वासुदेवपुत्र साम्ब के द्वारा विरचित है। वे इस स्तोत्र को आगम के समान प्रामाणिक और पूज्य मानते हुए अपनी टीका का उपोद्घात करते हैं जिरायत विकास की कार कि ] Fe समस्तागममहाम्नायरहस्यविन्महायोगिसहस्रसम्प्रदायसम्पूर्ण-5 HRA श्रीवासुदेवस्य भगवतः पुत्रः श्रीसाम्बः स्वात्मविवस्वत्स्तुति जगतोऽनुग्रहाय वक्तुमुपक्रमते- (काव्यमाला सीरीज-१३, पृ. २) वस्तुतः यह स्तोत्र इसी प्रकार के सम्मान का पात्र है। सूर्य पर यह विश्व की सर्वोत्तम कविता भी कही जा सकती है। गहन दार्शनिक विचारों को सूर्य के प्रतीक के द्वारा साम्ब ने अत्यन्त सहज काव्यात्मक अभिव्यक्ति यहाँ दी है। टीकाकार क्षेमराज भी सूर्य को परम चैतन्य का प्रतीक मानते हैं और स्तोत्रकार ने तो शब्द और अर्थ के विवर्त को उत्पन्न करने वाले, उद्गीथतत्त्वरूप, त्रयीमण्डल से युक्त, सप्त स्वरों वाले तथा विद्या के स्यन्दन (रथ) पर आसीन सूर्यदेव का जो भव्य तथा आध्यात्मिक स्वरूप चित्रित किया है, उसमें भावना, आस्था और अनुभव की गहनता का अनूठा संगम है। आदित्य के आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों रूपों का सारभूत तथा सारमाण विवेचन और स्तवन स्तोत्रकार ने अपूर्व प्राणशक्ति के द्वारा किया है। आदित्य का एक रूप प्राणी मात्र के भीतर स्थित है, वही ओंकार के रूप में देह से निनादित भी होता है, वाणी का प्रवर्तक भी है, प्राण और अपान को धारण करता है - आणि कमात्र सिनिमा ति लिया तसा JE ओमित्यन्तनदति नियतः यः प्रतिप्राणि शब्दो मारा। वाणी यस्मात् प्रसरति परा शब्दतन्मात्रगर्भा। नागनागाजाही भाजकिछिको १. ततः साम्बो महाबाहुः कृष्णाज्ञप्तो ययौ पुरीम्। ए शिलाप्तिा मधुरां मुक्तिफलदां रवेराराधनोत्सुकः ।। ००० साम्ब पञ्चाशकै: श्लोकर्वेदगुह्यपदाक्षरैः । यत्स्तुतो त्वया वीर तेन तुष्टोऽस्मि ते सदा।। (वराहपुराण, काव्यमाला, सीरीज-३, पृ. १ पादटिप्पणी में उद्धृत)
- स्तोत्रकाव्य ३६७ फाशीत किमया प्राणापानौ वहति च समौ यो मिथो ग्राससक्तौ शिगालही कर यानि देहस्थं तं सपदि परमादित्यमाद्यं प्रपद्ये।। (२) HERE: मन्दक्रान्ता छन्द का प्रयोग इस स्तोत्र में गाम्भीर्य की पुष्टि करता है। वस्तु तथा अभिव्यक्तिशैली दोनों की दृष्टि से यह स्तोत्र मयूर कवि के सूर्यशतक से बहुत भिन्न है, जो इसकी प्राचीनता तथा श्रुतिपरम्परा से प्राप्त होने के तथ्य का ही प्रमाण है। मयूर का स्तोत्र, जिस पर आगे चर्चा की गयी है, शाब्दिक चमत्कार, दीर्घसमासबन्ध और अर्थगौरव की अपेक्षा वर्णविन्यासरम्यता पर अधिक केन्द्रित है, जब कि यह स्तोत्र चिन्तन और विषयवस्तु की उदात्तता के कारण महनीय है। क्षेमराज ने साम्बपञ्चाशिका की टीका पूर्णतः प्रत्यभिज्ञा-दर्शन के अनुसार की है तथा उन्होंने आम्नाय, कालिकाक्रम, कालोत्तर, नन्दिशिखा भर्गशिखा, विज्ञानभैरव आदि को श्रुति के साथ-साथ यहाँ प्रमाण के रूप में उपस्थापित किया है। साम्बपञ्चाशिका प्रत्यभिज्ञादर्शन का प्रतिपादक किस सीमा तक है- यह अनुसन्धान का विषय है। इतना अवश्य सत्य है कि इस स्तोत्र में अद्वैत तत्त्व का अच्छा निरूपण है तथा जगत् को सूर्य के विवर्त के रूप में सम्यक् प्रस्तुत किया गया है। स्तोत्रकार ने शास्त्र को अनुभव के स्तर पर हृदयंगम किया है। अविद्या के स्वरूप पर इस दृष्टि से उसका विमर्श है - तो त्वां स्तोष्यामि स्तुतिभिरिति मे यस्तु भेदग्रहोऽयं सेवाविद्या तदपि सुतरां तद्विनाशाय युक्तः। स्तोम्येवाहं त्रिविधमुदितं स्थूलसूक्ष्मं परं वा विद्योपायः पर इति बुधैर्गीयते खल्विविद्या ।। (११) (हे देव, मैं स्तुतियों के द्वारा अपना स्तवन करूँगा- यह आप में और मुझ में इस प्रकार की जो भेदबुद्धि है - यही अविद्या है और मेरी साधना तो इस अविद्या के विनाश के लिये ही है। फिर भी मैं तीन प्रकार से स्थूल, सूक्ष्म तथा पर इन तीन रूपों में उदित होने वाले आप सूर्यदेव की स्तुति करता ही हूँ, क्योंकि अविद्या भी तो विद्या की प्राप्ति का उपाय है।) स्तोत्रकार ने प्रातः, सन्ध्या, मध्याह्न में सूर्य के त्रिविध रूप में त्रिविध गुण, वेदत्रयी का उनमें अधिष्ठान तथा सष्टि, स्थिति और लय की प्रक्रिया से उनका सम्बन्ध बताते हुए सौर सम्प्रदाय के विचार, दर्शन और प्रस्थान का भी आधार निर्मित किया है। वस्तुतः यह स्तोत्र संस्कृत साहित्य के आकर स्तोत्रों में कहा जा सकता है।
पुष्पदन्त
पुष्पदन्त नामक कवि ने निम्नलिखित स्तोत्रों की रचना की है - १. गणेशमहिम्नस्तोत्र गाणीशामित याद २. शिवमहिम्नस्तोत्र की कोशीश हकि शिस काव्य-खण्ड महिम्नस्तोत्र के टीकाकारों ने ‘पुष्पदन्त’ नामक गंधर्व को इसका रचयिता स्वीकारा है। यह बात सर्वथा सिद्ध है कि ये स्तोत्र पुष्पदन्त के नाम से ही जाने-पहचाने जाते हैं। उनका उपनाम कोई और रहा हो, यह सम्भव है। आचार्य बलदेव उपाध्याय जी का कहना है कि यह स्तोत्र (शिवमहिम्नः) आठवीं या नवीं शताब्दी में बना होगा- दसवीं के अनन्तर का कभी नहीं हो सकता।