०१ दुर्वासा के स्तोत्र

पुराणप्रसिद्ध दुर्वासा ऋषि के नाम से निम्नलिखित स्तोत्र प्राप्त होते हैं-त्रिपुरामहिमस्तोत्र, मानसपूजार्याद्विशती तथा ललितास्तवरत्न। इनके अतिरिक्त काव्यामालासम्पादक ने दुर्वासाप्रणीत कल्पसूत्र का भी उल्लेख किया है। त्रिपुरामहिमस्तोत्र पर नित्यानन्द की एक प्राचीन टीका मिलती है। टीकाकार का विश्वास है कि इस स्तोत्र के रचयिता ‘सकलागमाचार्य चक्रवर्ती अनसूयागर्भसम्भूत क्रोधभट्टारक नाम से प्रसिद्ध महामुनि दुर्वासा’ हैं। त्रिपुरामहिमस्तोत्र में ५६ पद्य हैं, जिनमें से ५४ पद्यों में त्रिपुरसुन्दरी की स्तुति है और ५५वें पद्य में इस स्तोत्र के दुर्वासारचित होने की सूचना है। किन्तु अंतिम ५६वें पद्य में जिस प्रकार दुर्वासा की ही स्तुति की गयी है, उससे लगता है कि किसी दुर्वासा-भक्त ने १. काव्यमाला, गुच्छक- ११, पृ. १ पर पादटिप्पणी महिनामिनासाट २. वही में मिष्ट शिांगकाफी हवाला ३. सदसदनुग्रहनिग्रहगृहीतमुनिविग्रहो भगवान् । सर्वासामुपनिषदां दुर्वासा जयति देशिकः प्रथमः त्रिपुरामहिम.-५६काव्य-खाण्ड उनके नाम से यह स्तोत्र लिख कर प्रचारित किया होगा। ललितास्तवरत्न के साथ प्रान्तप्रशस्ति प्राप्त नहीं होती और न ही स्तोत्र में कहीं दुर्वासा के द्वारा इसके विरचित होने की सचना है। गोमांस किया है कि ST शिकई लिई टीकाकार नित्यानन्द का देशकाल भी अविदित है, तथा इन स्तोत्रों का रचनाकाल अनिर्धारित है। P PEE IF की कि इन स्तोत्रों का रचयिता कोई साधक कवि है- इसमें कोई सन्देह नहीं। भक्ति के साथ तान्त्रिक पूजा और तन्त्रसाधना का विवरण तीनों ही स्तोत्रों में मिलता है। त्रिपुरामहिमस्तोत्र में तो श्रीचक्र का भी वर्णन है। कवित्व के प्रकर्ष की दृष्टि से ये तीनों ही स्तोत्र बड़े समृद्ध हैं। शब्दसंपदा और पदशय्या सहज और परिपुष्ट है। देवी के सौन्दर्य का अनुभव मानों दिव्य नेत्रों से कवि ने किया है। देवी का विग्रह उसे ‘त्रिलोकीमहासौन्दर्यार्णवमन्थनोत्थवसुधाप्राचुर्यवर्णाज्ज्वल’ तथा ‘उद्यद्भानुसहस्रनूतनजपापुष्पप्रभ’ प्रतीत होता है। भाषा में अलंकारों की कमनीय छटा है, कहीं-कहीं क्रियापदों का व्याकरण पर असाधारण अधिकार प्रदर्शित करते हुए सटीक प्रयोग है। जैसे - THEIFE 1 मिन पनि Hि PER TP ती शिवाजी मिति की गेहं नाकति गर्वितः प्रवणति स्त्रीसंगमो मोक्षति … शिल मा बा मनात पातमा द्वेषी मित्रति पातकं सुकृतति क्षमावल्लभो दासति। किसान प तमा हामि की मृत्युबैद्यति दूषणं सुकृतति त्वत्पावसंसेवनात्म क कला त्वां वन्दे भवभीतिभञ्जनकरी गौरी गिरीशप्रियाम् ।। - १७ कर म (तुम्हारे चरणों की सेवा से घर स्वर्ग बन जाता है, गर्वित व्यक्ति विनम्र बन जाता है, स्त्रीसमागम मोक्ष में परिणत हो जाता है, द्वेष करने वाला मित्र बन जाता है, पाप-पुण्य हो जाता है, राजा भी दास बन जाता है, मृत्यु वैद्य में रूपान्तरित हो जाता है, दोष सुकृत हो जाता है। ऐसी गिरीशप्रिया गौरी की मैं वन्दना करता हूँ।) Thesi त्रिपुरामहिमस्तोत्र में विविध छन्द हैं, ललितास्तवरत्न आर्या छन्द में विरचित है। समासशैली पर असाधारण अधिकार इन स्तोत्रों के रचयिता का है तथा पदावली की संगीतात्मकता, सानुप्रासिकता और गम्भीरता देखते ही बनती है। जटिल से जटिल विषय को भी स्तोत्रकार ने सहज अभिव्यक्ति दी है और जहाँ देवी के विग्रह का वर्णन है, वहाँ चित्रोपम सूक्ष्मता के साथ सौन्दर्य का अनुभव होता है। उदाहरणार्थ- F IBRARY करविधृतकीरशावककलनिनदव्यक्तनिखिलनिगमार्थाम् । वामकुचसङ्गिवीणावादनसौख्यार्थमिलिताक्षियुगाम्।। आपाटलांशुकधरामादिरसोन्मेषवासितकटाक्षाम् । आम्नायसारगुलिकामायां सङ्गीतमातृकां वन्दे ।। (ललितास्तवरत्न, ३२-३५) १. वही, प्रथम पद्य F-नाने में परम प्रिय कार्यका निशानी स्तोत्रकाव्य ३६५