+१० जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य

जैन-संस्कृत-वाङ्मय में काव्य-लेखन की परम्परा का बीजारोपण ईसवी सन की द्वितीय शताब्दी से प्रारम्भ हुआ है। जबकि समन्तभद्र ने संस्कृत भाषा में स्तुतिकाव्य की सर्जना की। इस समय जन सामान्य की भाषा प्राकृत थी। जैन कवियों की अभिरुचि प्राकृत भाषा में ग्रन्थ-प्रणयन करने की थी। शनैः शनैः जैनाचार्यों ने भी अपने सद्विचारों और मनोभावों को प्रस्तुत करने के लिए संस्कृत भाषा को माध्यम बनाया। डॉ. भोलाशंकर व्यास के शब्दों में, जैनों को अपने मत एवं दर्शन को अभिजात वर्ग पर थोपने के लिए, साथ ही ब्राह्मण धर्म की मान्यताओं का खण्डन करने के लिए संस्कृत को चुनना पड़ा।’ वस्तुतः जैन काव्य-साहित्य की, ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से पांचवी शताब्दी तक कतिपय उल्लेखनीय कृतियाँ ही प्राप्त होती हैं। पांचवी से दसवीं शताब्दी तक आकर ग्रन्थों के रूप में ऐसी विशाल रचनाएँ मिलती हैं, जिन्हें प्रतिनिधि रचनाएँ कहा जा सकता है, किन्तु इनकी संख्या अत्यल्प है! ग्यारहवीं से अठारहवीं शताब्दी तक एतद्विषयक रचनाएँ, प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। अतएव, भारतीय साहित्य के विकास में जैनाचार्यों के योगदान की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा डॉ. विण्टरनित्स ने की है। जैन संस्कृत-वाङ्मय में महाकाव्य विधा का प्रारम्भ पाँचवी शदी के पश्चात हुआ है। जैन कवियों ने आगमों से दर्शन और आचार तत्त्व, पुराणों से चरित, लौकिक संस्कृत काव्यों से प्रेम और काव्य तत्त्व, नीतिग्रन्थों से राजनीति, विश्वास एवं सांस्कृतिक परम्पराओं एवं स्तोत्रों से भावात्मक अभिव्यञ्जनाएँ ग्रहण कर पौराणिक तथा चरितप्रधान महाकाव्यों का प्रणयन किया। पर तालातील विहिन