२० दिग्विजयमहाकाव्य

कवि और रचनाकाल : दिग्विजय महाकाव्य के रचयिता कवि मेघविजयगणि थे। मेघविजय मुगल सम्राट अकबर के कल्याण मित्र हीरविजयसूरि के शिष्य-कुल से सम्बन्धित थे। उनके दीक्षा-गुरु कृपाविजय थे, परन्तु उन्हें उपाध्याय पद पर विजयप्रभसुरि ने प्रतिष्ठित किया था। मेघविजय, अपने समय के विद्वान् कवि थे। उनके चौबीस ग्रन्थ तथा पञ्चतीर्थस्तुति और भक्तामरस्तोत्र पर टीकाएँ उपलब्ध होती हैं। दिग्विजय महाकाव्य में विजयप्रभसूरि के देहावसान का उल्लेख नहीं है। उनका स्वर्गारोहण सं. १७४६ में हुआ था। अतः, सं. १७२७ तथा १७४६ के मध्य इस महाकाव्य की रचना मानना तर्कसङ्गत प्रतीत होता है। विषयवस्तु : इस महाकाव्य में तेरह सर्ग और कुल १२७४ श्लोक हैं। प्रथम सर्ग में मङ्गलाचरण, सज्जन-प्रशंसा, खल-निन्दा के पश्चात, जम्बूद्वीप का विस्तृत वर्णन है। द्वितीय सर्ग में भारत की महत्ता और ऋषभदेव के चरित्र का वर्णन है। तृतीय सर्ग में भगवान महावीर की चारित्रिक विशेषताएँ वर्णित हैं। चतुर्थ सर्ग में तपागच्छ के पूर्ववर्ती आचार्यों और विजयदेवसूरि की धार्मिक विजय का वर्णन किया गया है। पञ्चम सर्ग में काव्य-नायक विजयप्रभसूरि मोह को पराजित करने के लिए धर्मसेना के साथ उत्तर दिशा को प्रस्थान करते हैं। विमलगिरि पर आदिनाथ की वन्दना के पश्चात् वे अहमदाबाद में अपना आध्यात्मिक शिविर स्थापित करते हैं। छठे सर्ग में उदयपुर-नरेश विजयप्रभ उनका राजसी स्वागत करता है। सप्तम सर्ग में वे पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान करते हैं। सादड़ी, निराई कि कि किक नाना शिलाशित कि जामीला नि मा Fि माय मान लिया की निकास १. देवानन्दप्रशस्ति, ७-८०, शान्तिनाथचरितप्रशस्ति-५ २. जैन संस्कृत महाकाव्य, पृ. २२७ ३. वही, पृ. २०७ जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य नारायणपुर, माल्यपुर तथा सङ्ग्रामपुर होते हुए वे मरुभूमि में प्रवेश करते हैं। आठवें सर्ग में शिवपुरी (सिरोही) तथा शखेश्वर पार्श्वनाथ का वर्णन है। नवें सर्ग में वे पूर्व दिशा को प्रस्थान करते हैं। इसमें आगरा नगर का भव्य वर्णन है। दशवें तथा ग्यारहवें सर्ग में आगरा से प्रयाग तथा पार्श्वनाथ की जन्मभूमि, वाराणसी होते हुए विजयप्रभ पटना की ओर विहार करते हैं। बारहवें सर्ग में पटना में चार्तुमास के पश्चात् सम्मेत तीर्थ की वन्दना के लिए प्रस्थान करते हैं। तेरहवें सर्ग में चौबीस तीर्थङ्करों, गणघरों और सम्मेत गिरि का वर्णन है। सम्मेत गिरि की यात्रा के पश्चात, विजयप्रभ महावीर के जन्मस्थान कुण्डिनपुर में उपवास तथा पटना में चार्तुमास करते हैं। यहीं पर काव्य समाप्त हो जाता है।

दिग्विजय महाकाव्य में रस-योजना विचित्र सी है। दो स्थलों पर श्रृंगार की योजना है। इसे प्रधान रस मानना काव्य की प्रकृति के प्रतिकूल है। शान्त रस का भी विधिवत् परिपाक नहीं हुआ है। महाकाव्य में यात्रा और स्थानों के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। प्रकृति-वर्णन भी सुरुचिपूर्ण नहीं है। इसमें उदात्त एवं गम्भीर भाषा का प्रयोग हुआ है। पाण्डित्य-प्रदर्शन हेतु कई स्थलों पर यमक का प्रयोग प्राप्त होता है। इस महाकाव्य में पन्द्रह छन्दों का प्रयोग किया गया है।

३६२ एकादश अध्याय