१९ विजयप्रशस्ति महाकाव्य

विविजयप्रशस्ति महाकाव्य के आरम्भिक सोलह सर्ग हेमविजयगणि के लिखे हुए हैं, तथा अवशिष्ट पांच सर्गों के द्वारा महाकाव्य की पूर्ति कवि के सतीर्थ्य गुणविजयगणि ने की है। गुणविजय ने इस महाकाव्य की टीका भी की है, जिससे विदित होता है कि कवि हेमविजय की मृत्यु के कारण यह रचना अपूर्ण थी, जिसे पांच सर्ग जोड़ कर इन्होंने पूरा किया। गुणविजयकृत टीका की पूर्ति वि. सं. १६८८ (१६३१ ई.) में हुई। ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण इस महाकाव्य में दिया गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि यह हेमविजय ने इसकी रचना संवत् १६५५ के पश्चात् आरम्भ की होगी। गुणविजय द्वारा जोड़े गये सों में सत्रहवें सर्ग में वर्णित विद्याविजय की पट्टधरपद पर प्रतिष्ठा संवत् १६५६ की घटना है। अतः अन्तिम पांच सर्ग इस तिथि के पश्चात् ही लिखे गये। इस प्रकार पूरे महाकाव्य का रचनाकाल संवत् १६५५ से १६८८ के बीच माना जा सकता है। किनकि यस रि विषयवस्तु : इस महाकाव्य की विषयवस्तु ऐतिहासिक है, पर इसमें किसी राजवंश का वर्णन नहीं है, विशेषतः विजयदानसूरि के पट्टधर मुनि हीरविजय के जन्म, प्रव्रज्या, उपाध्यायपदप्राप्ति आदि का वर्णन है। चतुर्मास के लिये मुनि की यात्राओं का भी प्रसंगतः विवरण यहां दिया गया है। अकबर के निमंत्रण पर मुनि हीरविजय संवत् १६३६ में गान्धार से फतेहपुर सीकरी जाते हैं (सर्ग-E)1 अकबर उनसे परमात्मा के स्वरूप के विषय में विचार-विमर्श करता है। आचार्य की प्रेरणा से बादशाह बारह दिन के लिए राज्य में जीवहिंसा बन्द करवा देता है। दसवें सर्ग में मुनि हीरविजय के द्वारा पाटन में खतरगच्छीय मुनि सागर को बाहर दिन तक चलने वाले शास्त्रार्थ में पराजित करने का वर्णन है। मुनि हीरविजय की प्रेरणा से उनके शिष्य विजयसेन भी अकबर को प्रतिबोध देते हैं और भानुचन्द्र का नन्दि-उत्सव सम्पन्न कराते हैं। इस उत्सव पर अकबर ने प्रधान बजीर अबुल काव्य-खण्डनकार फलज के द्वारा खुले हाथों व्यय करने का वर्णन है। तेरहवें-चौदहवें सर्गों में मुनि हीरविजय की रुग्णता तथा निधन का वर्णन है, और तदन्तर उनके सुयोग्य शिष्य विजयसेन के अनेक कार्यों का वर्णन यहाँ शेष सों में कविद्वय ने किया है, जिनमें जिनप्रतिमाओं की विविध स्थानों पर स्थापना और प्रतिष्ठा तथा फिरंगियों के समक्ष आर्हत् तत्त्व का उपदेश आदि घटनाएं उल्लेखनीय हैं। गिटामिनमायनिक सामगोग समीक्षा : शान्तरसप्रधान इस काव्य में गुरु-शिष्य सम्बन्धों के चित्रण में अंग के रूप में वात्सल्य का मार्मिक उद्रेक मिलता है। मुनि हीरविजय के निधन के वर्णन में करुण रस का परिपाक हुआ है। काव्य में दार्शनिक विवेचन तथा उपदेश के अनेक प्रसंग हैं। इतिवृत्तपरकता की प्रधानता होने से कवि ने सरल भाषाशैली तथा छन्दों में उपजाति का प्रयोग अधिक किया है।