१३ जयन्तविजय

जयन्तविजय’ महाकाव्य के प्रणेता अभयदेवसूरि हैं। ये आचार्य विजयचन्द्र के शिष्य थे। काशीनरेश ने इनकी प्रतिभा से प्रसन्न होकर इन्हें वादिसिंह की उपाधि प्रदान की थी। कवि ने स्वयं को ‘सारस्वतप्रसृमरप्रतिभाविलासः’ (सर्ग १६, प्रशस्तिपद्य-६) कहा है। जयन्तविजय की पुष्पिका से विदित होता है कि इस काव्य की रचना वि.सं. १२७८ (१२२१ ई.) में हुई। १. पं. भवदत्त शास्त्री द्वारा संशोधित होकर निर्णयसागर प्रेस, बम्बई द्वारा प्रकाशित १६०२ ई. जर काव्यमाला, ७५ ग्रन्थाङ्क । ३८० पनि विषयवस्तु : मगध के राजा विक्रमसिंह को जयन्त नामक पुत्र की प्राप्ति होती है। इस काव्य में सिंहल के राजा से राजकुमार जयन्त के युद्ध का ओजस्वी वर्णन है। अनन्तर जयन्त के पराक्रमपूर्ण कार्यों और देवकन्या कनकवती तथा रतिसुन्दरी से उसके विवाह का वर्णन किया गया है। जयन्त के पिता उसे राज्यभार सौंप कर दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। जयन्त जिनेन्द्र भक्ति का प्रचार करता हुआ सम्यक् रूप से प्रजापालन करता है।

समीक्षा

यद्यपि अन्य जैन महाकाव्यों की भांति इस महाकाव्य में भी धर्मोपदेश तथा जिनेन्द्र के प्रति कवि की हार्दिक भक्तिभावना को अभिव्यक्ति मिली है, पर पूर्वोक्त महाकाव्यों की तुलना में इसका एक वैशिष्ट्य यह कहा जा सकता है कि इसमें स्वयं नायक के प्रबजित होने या दीक्षा ग्रहण करने के वर्णन के साथ काव्य की समाप्ति नहीं होती। इस दृष्टि से इस काव्य में शान्त के स्थान पर वीररस को अंगी और शान्त को तत्सहचरित माना जा सकता है। कि __ वर्णन : महाकाव्योचित वर्णनों का सायास विन्यास अभयदेव ने सर्गानुसार क्रमशः किया है। सज्जनप्रशंसा, खलनिन्दा, अनपत्यता, विवाह, वसन्त, दोला, पुष्पावचय, जलकेलि, सूर्यास्त, युद्ध, दिग्विजय आदि परम्परित वर्ण्यविषय यहां गृहीत हुए हैं। मा प्रति वर्ण्यविषयों में अभयदेव ने वैविध्य और विस्तार का सन्धान किया है। प्रथमसर्ग में ही देशवर्णन में उन्होंने ग्राम, जनपद तथा पुर के वातावरण को साकार कर दिया है। धान के खेतों की रखवाली करने वाली गोपियों के मधुर गीत का प्रभाव वर्णन करते हुए वे कहते यत्राभिरामाणि विशालशालिक्षेत्राणि संरक्षितुमीयुषीणाम्। गोपाङ्गनानां मधुरोपगीतैः कृच्छाद् युवानः पथि यान्ति पान्थाः।। -१३८ उन गोपियों के गीत सुनते हुए पथिक मार्ग पर अटक अटक जाते थे। अलङ्कार : अभयदेव की कल्पना बड़ी उर्वर है। वे नयी सूझबूझ के साथ अनेक स्थलों पर अछूते उपमान उपस्थित करते हैं। धनश्रेष्ठी के द्वारा देखे गये मुनि के वर्णन में वे कहते हैं - शिक्षा । कि स्वधर्माराममासेक्तुं संवेगामृतकूपतः। र । अरघट्टघटीमाला इसयामाज्जपमालिका ।। - ३।२१ स्वधर्म रूपी उद्यान को सींचने के लिये वे मुनि मानों संवेग रूपी अमृतकूप से जल खींच कर उडेल रहे थे। उनके हाथ की जपमाला अरघट्ट के घड़ों की शृंखला के समान सुशोभित हो रही थी। शान्तरस की व्याप्ति के कारण भी यह महाकाव्य प्रभावशाली है। संसार की अनित्यता और निस्सारता के अनुभव को विक्रमभूपति के प्रसंग में इस प्रकार व्यक्त किया गया है जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य शिवा काल वपुरिदं प्रथम सुखसाधनं तदपि रोगजरादिभिरस्थिरम्। के कार किमिहि मिष्टफलं प्रभवं वनं वनजवह्निशिखाभिरमगुरम् । भवति शारदनीरदसौदरं सकलमेव भवप्रभवं सुखम्। परिणतौ विरसं मधुरं मुखे विषतरोरिव पक्वफलं नृणाम्। (१८१५०,५५) शरदृतु के बादल और विषतरु के फल के सरल उपमानों के द्वारा जगत् की नश्वरता तथा भोगों की भयावहता की कवि ने व्यंजना की है। वास्तव में अभयदेव उदात्त भावबोध तथा उत्कृष्ट कल्पना के कवि हैं।