पद्मानन्द महाकाव्य के रचयिता श्री अमरचन्द्रसूरि हैं। इनके दो महाकाव्य मिलते हैं - बालभारत तथा पद्मानन्द । बालभारत महाभारतीय कथानक का अविकल समग्र प्रस्तुतीकरण है। यद्यपि महाभारत की कथा का रूपान्तर जैन परम्परा में भिन्नतया प्रचलित है, पर अमरचन्द्र ने सम्प्रदाय भावना से ऊपर उठकर व्यासमुनि के महाभारत को ही प्रमाण मानकर बालभारत महाकाव्य लिखा। ३. पद्मानन्द : अमरचन्द्र का दूसरा महाकाव्य तीर्थङ्कर ऋषभदेव के चरित्र पर आधारित है। पद्म मन्त्री की प्रार्थना पर रचित होने के कारण इसका नाम पद्मानन्द रखा गया। इसका अपर नाम जिनेन्द्रचरित भी है। इसकी वस्तु का आधार त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित है। इस महाकाव्य में १६ सर्ग हैं। . हनी कथासार-प्रथम सर्ग में जिनेश्वर-स्तुति और काव्य-कारण वर्णित है। द्वितीय सर्ग से षष्ठ सर्ग तक ऋषभदेव के बारह पूर्वभवों-धनसार्थवाह, युग्मी, धनजीवसुर, महाबल, ललिताडूबा, वजजय, युग्मी, सुधर्मा, जीवानन्द, अच्युतदेवलोक, वजनाभ और स्वार्थसिद्धिभव का वर्णन है। सप्तम सर्ग में ऋषभदेव का मरुदेवा की कक्षि में अवतीर्ण होने का वर्णन है। अष्टम सर्ग में ऋषभदेव की बाल-लीला और सुमङ्गला तथा सुनन्दा के साथ उनके विवाह का वर्णन है। नवम सर्ग में सुमङ्गला के गर्भ से भरत और ब्राह्मी तथा सुनन्दा के गर्भ से बाहुबलि एवं सुन्दरी की उत्पत्ति का वर्णन है। दशम सर्ग में ऋषभदेव का राज्याभिषेक एवं एकादश सर्ग में षड्ऋतु-विलास का वर्णन है। द्वादश सर्ग में ऋषभदेव की वसन्तोत्सव-क्रीडा, देवों की प्रार्थना पर उनका विरक्त होना, भरत का राज्याभिषेक, ऋषभदेव का दीक्षा ग्रहण करना आदि घटनायें वर्णित हैं। तेरहवें सर्ग में नमि और विनमि 9. सं. एच. आर. कपरिया एम.ए. प्र. ओरियण्टल इन्सटीच्यूट, बड़ौदा, १६३२ ई. २. अमरचन्द्रसुरि के परिचय के लिये महाकाव्यविषयक अध्याय में बालभारत शीर्षक द्र.। ३. उपर्युक्त द्रष्टव्य। काव्य-खण्ड की ऋषभदेव में अटूट भक्ति देखकर धरणारग का उन्हें विद्याधरैश्वर्य प्रदान करना, श्रेयांस का इक्षरस द्वारा ऋषभदेव को पारणा कराना, ऋषभदेव को केवल ज्ञान प्राप्त होना आदि वर्णित है। चौदहवें सा में प्रभु के समवसरण दर्शन के लिए मरुदेवा का आगमन और उसकी निर्वाणोपलब्धि, समवसरण में ऋषभदेव की देशना तथा संघस्थापना आदि का वर्णन है। पन्द्रहवें सर्ग में भरत के दिग्विजय का शौर्यपूर्ण वर्णन किया गया है। सोलहवें सर्ग में भरत, हिमाञ्चलप्रदेश के राजा हिमवत् कुमार को जीतकर अपनी राजधानी विनीतापुरी में प्रवेश करता है और चक्रवर्ती सम्राट् बनता है। सुन्दरी अष्ठापद जाकर ऋषभदेव से दीक्षा ग्रहण करती है। भरत के आक्रमण से दुःखी होकर भरत के भाई भी दीक्षा ग्रहण करते हैं। सत्रहवें सर्ग में भरत के बाहुबलि पर आक्रमण करने, युद्ध में भरत की पराजय, बाहुबलि के दीवा-ग्रहण करने एवं केवल ज्ञान प्राप्त करने का विवरण है।
समीक्षा
प्रस्तुत महाकाव्य शान्तरस प्रधान है। सत्रहवें सर्ग में भरत के साथ सङ्ग्राम करते हुए बाहुबलि के हृदय में अकस्मात् वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। निम्न उक्तियों में निर्वेद की सुन्दर व्यञ्जना हुई है - राज्यस्य लोभादमुनेव धिगू धिङ् मयाऽप्यहो भातृवधो विधेयः। न तेन राज्येन ममास्ति कार्यमकार्यमित्थं क्रियते यदर्थम् ।। इदं गदित्वा शिरसः स केशान् क्लेशानिवान्तः करणप्रदेशात्। समूलमुन्मूलयति स्म कोपाटोपात् पुरोत्पाटितमुष्टिनेव।। यहाँ मस्तक के केशों के उन्मूलन के लिये अन्तःकरण से क्लेशों के उन्मूलन का उपमान बड़ा सटीक है। चतुर्थ सर्ग में सम्भोग श्रृङ्गार और सत्रहवें सर्ग में वीररस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। महाकाव्य की भाषा सरल, प्रसादगुणोपेत एवं प्रवाहमयी है। भाषा को प्रभावशाली बनाने के लिए कवि ने अनुप्रास, यमकादि शब्दालङ्कारों उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपकादि अर्थालङ्कारों की सुन्दर योजना की है। भाषा में लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का प्रचुर प्रयोग प्राप्त है। महाकाव्य में छन्दोविधान परम्परा के अनुकूल है। इसमें कुल ३४ प्रकार के छन्दों का प्रयोग मिलता मा सौन्दर्यचित्रण की दृष्टि से पद्मानन्द महाकाव्य के अनेक स्थल बड़े रमणीय हैं। नारी के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि ने नैसर्गिक उपादानों से अप्रस्तुत विधान तथा उसमें कल्पना का विनियोग करते हुए उत्कृष्ट बिम्बों की सृष्टि की है। स्वयंप्रभा के सौन्दर्यचित्रण में वह कहता है लावण्यामृतलहरी क्रमकरनयनाननारविन्दततिः। म या विपुलजघनपुलिना विलसनकल्लोलिनी रतीशस्य ।। (४५८) जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य ३७६ 16 नायिका की परिकल्पना नदी के रूप में करते हुए कवि कहता है कि लावण्यरूपी आत उसकी लहरें हैं। कमल उसके नयन, तट उसके जघन हैं, ऐसी वह रमणी रतीश्वर कामदेव की विलासकल्लोलिनी है। भौतिक सौन्दर्य की अपेक्षा आध्यात्मिक सौन्दर्य की प्रस्तुति में कवि का अधिक अभिनिवेश दिखायी देता है। इस दृष्टि से जिनपति के सौन्दर्य का चित्रण प्रभावशाली है। उहरणार्थ एक पद्य देखें - दोर्युगं विजयते स्म जिनेन्दोर्जानुलम्बि पविदण्डविडम्बि। बोधिना प्रगुणितं खलु रागद्वेषपेषि गुणमुद्गरयुग्मम् ।। (८/१०२) वजदण्ड की विडम्बना करने वाले जिनपति के घुटनों तक लम्बे भुजदण्डयुगल की विज हो, जो राग और द्वेष को पीसने वाले भारी मुद्गरों के जोड़े के समान हैं तथा ज्ञान से प्रगुणित है। इस महाकाव्य में कतिपय स्थलों पर कवि ने पाण्डित्यप्रदर्शन तथा शब्दक्रीडा के चातुर्य का अतिरेक कर दिया है। यमक और चित्रकाव्य में असाधारण निपुणता उसने प्रकट की है। दूसरी और कहीं अप्रचलित क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग के साथ-साथ अपभ्रंश या देशज शब्दों का प्रयोग भी अमरचन्द्रसूरि करते हैं। कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं गद्दिकाः समुपवेशनोचिता वस्त्रपद्मवसतेरिव श्रियः। (१०११) या-निर्द्रव्यबाल इव लड्डकलोलपाणिः। - (६।६०) यहां गद्दिका या लड्डक इसी प्रकार के शब्द हैं। पद्मानन्द महाकाव्य कथ्य के प्रस्तुतीकरण के साथ-साथ उत्तम विचार और शैली दोनों की दृष्टि से सफल है।