धर्मशर्माभ्युदय महाकाव्य के कर्ता कवि हरिश्चन्द्र ने काव्य की पुष्पिका में अपना परिचय दिया है। इसके अनुसार वे नौनक वंश के कायस्थकुल से संबद्ध थे। इनके पिता आर्द्रदेव तथा माता का नाम रथ्या था। इनके अनुज का नाम लक्ष्मण था। इस महाकाव्य के इक्कीसवें सर्ग में जैन धर्म के सिद्धान्तों का जो निरूपण है, वह आचार्य सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू: और वीरनन्दि के चन्द्रप्रभचरित से प्रभावित है। धर्मशर्माभ्युदय की एक प्राचीन पाण्डुलिपि का लेखनकाल १२८७ विक्रम संवत् (१२३० ई.) दिया गया है। इन सब प्रमाणों से हरिचन्द्र का समय ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी के बीच निर्धारित होता है। __धर्मशर्माभ्युदय इक्कीस सर्गों में विभक्त शान्तरसप्रधान काव्य है। इसमें जैन परंपरा के पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ का जीवन चरित वर्णित है। इसकी कथा के मूलाधार आचार्य गुणभद्ररचित उत्तरपुराण का इकसठवां पर्व तथा पुष्पदन्तरचित अपमंशपराण की उनसठवीं सन्धि हैं। अलंकृत महाकाव्य की परंपरा का अनुवर्तन करते हुए महाकवि ने मूल संक्षिप्त कथावस्तु को सम्यक् परिबृहित और परिवर्तित किया है। महाकाव्य का प्रारम्भ लवणसमुद्र के मध्य में अवस्थित जम्बूद्वीप, उसके भी बीच में स्थित मेरु पर्वत और उसके दक्षिण में बसे भरतक्षेत्र के वर्णन से होता है। इस भरतक्षेत्र में आर्यखण्ड में उत्तरकोसल है। वहीं है रत्नपुर नगर । रत्नपुर के राजा महासेन और रानी सुव्रता को मुनिराज वरुण के भविष्यवाणीगर्भित अनुग्रह से वृद्धावस्था में जिस पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी, वही आगे चलकर पन्द्रहवें तीर्थकर भगवान् धर्मनाथ के रूप में प्रख्यात हुए। परम्परा के निर्वाह के लिए कवि ने विदर्भ के राजा प्रतापराज की पुत्री शृङ्गारवती की स्वयंवर-कथा के प्रसंग में विन्ध्याचल, छहों ऋतुओं, चन्द्रोदय, पानगोष्ठी, रतिक्रीडा, प्रातः आदि का अलंकृत शैली में वर्णन प्रस्तुत किया है। अमित शृङ्गारवती स्वयंवर में धर्मनाथ का वरण करती है। अपने पिता महाससेन से विरक्त हो जाने पर धर्मनाथ सम्यक् रूप से राज्यशासन का कार्य करते रहे। अवांतर प्रसंग के रूप में यहीं सेनापति सुषेण के युद्धकौशल का चित्रण भी कवि ने किया है। पर १. निर्णयसागर प्रेस बम्बई से १६३३ में काव्यमाला के आठवें अन्ध के रूप में प्रकाशित। जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य ३७५ एक बार धर्मनाथ ने उल्कापात देखा। देखते ही वे विरक्त हो गये। फिर वे तीर्थंकर भगवान् धर्मनाथ बन कर जैनसिद्धान्त के परमोपदेशक के रूप में आविर्भूत हुए और अंत में उन्होंने सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया। हि: काव्यकला : धमशर्माभ्युदय प्रसादगुणसंपन्न, वैदर्भी रीति में निबद्ध सरस महाकाव्य है। हरिश्चन्द्र की उक्तियां हृदय को छने वाली हैं। उनका भारतवर्णन विशेष रूप से मन को बांधने वाला है। देश के गांवों की छवि को कवि ने बारीकी से देखकर सजीव रूप में चित्रित किया है। गांवों में ईख पेरने का यंत्र चल रहा है, लोग ताजा गन्ने का रस पी रहे हैं। धान के खेत मन्द पवन से हिल रहे हैं, लगता है मद से धरती घूर्णित हो रही है - यन्त्रप्रणालीचषकैरजम्नमापीय पुण्ड्रेक्षुरसासवीधम् । मन्दानिलान्दोलितशालिपूर्णा विघूर्णते यत्र मदादिवोर्वी ।। (१।४५) यि हरिचन्द्र खेत में अनाज कटने के बाद धरती पर लगे धान्यकूटों को उदयगिरि और अस्ताचल के बीच सूर्य के विश्रामशैलों के रूप में देखते हैं (१।४८)। भारत की गामश्री का वर्णन इस कवि ने जितनी निपुणता से किया है उतनी ही कुशलता से उसने राजसी वैभव का भी चित्रण किया है। रत्नपुर नगर की महलों की कतारें दिगियों की झंकार के द्वारा सूर्य से बातें करती हुई और तालवृन्तों के द्वारा उसे पंखा झलती लगती है रणज्झणकिङ्किणिकारवेण सम्भाष्य यत्राम्बरमार्गखिन्नम्। मरुच्चलत्केतनतालवृन्तैहावली वीजयतीव मित्रम् ।। (१७७) अनेक स्थलों पर हरिचन्द्र की कल्पना और सूझबूझ एकदम अनोखी ही बन पड़ी है। रजा के नगर से बाहर आने के लिये वे उपमा देते हैं जैसे महाकवि के मुख से श्लोक निकल पड़ा हो - यतिभावपरः कान्तिं विभ्रदभ्यधिकां नृपः। निश्चक्राम पुराच्छ्लोकः कवीन्द्रस्य मुखादिव ।। (३(१६)) हिमा हरिचन्द्र का गंगा नदी का वर्णन अलौकिक ही कहा जा सकता है। वे कहते हैं - गंगा नदी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो रत्नों के समूह से खचित घरती की करधनी हो, अथवा आकाश से गिरी निर्मल मोतियों की माला हो, या शब्दरहित खींची हुई ऐरावत हाथी की श्रृंखला हो। हरिचन्द्र निसर्ग की सुषमा और सौरभ से उच्छ्वसित और आह्लादित होने पर प्रसन्न पदावली के कवि हैं। उन्होंने अपने वर्णनों में इस देश की वसुन्धरा के लिये जो भाव व्यक्त किया है, वह उन्हें राष्ट्रप्रेम के गरिमामय कवि के रूप में प्रतिष्ठित करता है। Th काव्य-खण्ड पदावली और भावबोध की दृष्टि से वे इस युग के कवियों में कालिदास के सर्वाधिक निकट लगते हैं। उनकी पंक्तियों में पदे पदे कालिदास की अनुगूंज सुन पड़ती है। हरिचन्द्र के प्रकृति-चित्र कहीं-कहीं तो सौंदर्यबोध और कविकल्पना के अनूठे संयोग से विलक्षण चमत्कार उत्पन्न करते हैं। वर्षा के वर्णन में वे कहते हैं- किसानों के प्रमोद के साथ ही उदार घनावली मानों भुवन को संतप्त करने वाले सूर्य को विद्युत् की मशाल जलाकर खोजने को दिशा-दिशा में निकल पड़ी है (११।३५)। दूसरी ओर उन्हें वसन्त धरती के अंक में खिलखिला कर उतरते शिशु सा लगता है, कुरवक के कोरक ही उसके कच्चे दूध के कतिपय दांत हैं, और अमर से गुंजारित कानन में वह घुटनों के बल रेंगता सा चल रहा मि कतिपयैर्दशनैरिव कोरकैः कुरवकप्रभवैर्विहसन् मुखः। शिशुरिवस्खलितस्खलितं मधु पदमदादमदालिनि कानने।। (११।८) ग्यारहवें सर्ग के प्रकृतिवर्णन में यमक की छटा है, पर वह भी रत्नाकर और शिवस्वामी के महाकाव्यों के अतिशय दुरूह जटिल चित्रबन्धों के आयास से कोसों दूर कालिदास के रघुवंश के दसवें सर्ग के वसन्तवर्णन के समान चित्रकाव्य के वैशिष्ट्य और अर्थबोध की प्रांजलता का दुर्लभ समागम ही प्रस्तुत करता है। मान हरिचन्द्र ने अपने समय के परिवेश और समाज के सूक्ष्म पर्यवेक्षण के द्वारा अपनी कविता में नये टटके बिम्ब उपस्थित किये हैं। कामदेव उन्हें कायस्थ प्रतीत होता है, जो कज्जलमंजुल दृग्लेखनी से तारुण्यलक्ष्मी का भोगपत्र लिख रहा है - कायस्थ एव स्मर एष कृत्वा दृग्देहली कज्जलमजुलां सः। शृङ्गारसाम्राज्यविभोगपात्रं तारुण्यलक्ष्म्याः सुदृशो लिलेख।। (१४॥५८) अपने समय के कवियों के बीच हरिचन्द्र अपनी अलग की पहचान बनाते हैं। उनकी आंचलिक रंग को कसवता में प्रस्तुत करने की विशेषता तथा शैली का मार्दव और सौंदर्यबोध की अनाविलता दर्लभ है। सबसे बड़ी बात है कि हरिचन्द्र हमें इस धरती से प्यार करना सिखाते हैं। वे इसी भारतवसुन्धरा पर स्वर्ग देखते हैं, खेत-खलिहानों, साथ की वाटिकाओं पर वे मोहित हैं क्षेत्र श्रीरधिकतिलोत्तमा सुकेश्यः कामिन्यो दिशि दिशि निष्कुटाः सरम्भाः। इत्येनं प्रथितमशेषमप्सरोभिः स्वर्गादप्यधिकममस्त देशमीशः।। (१६४६) कूष्माण्डीफलभरगर्भचिमटेम्यो वृन्ताकस्तबकविनप्रवास्तुकेभ्यः । सङ्कोर्ण मिथ इव दृष्टिरस्य लग्ना निष्कान्ता कथमपि शाकवाटकेभ्यः।। (१६७२) जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य ३७७ वात्सल्य की भावना का बड़ा मर्मस्पर्शी चित्रण महाकवि हरिश्चन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय में किया है। महासेन जब अपने पुत्र का आलिंगन करते तो सुख के कारण उनके नेत्र मुंद जाते थे, लगता था जैसे वे यह देखना चाहते हैं कि प्रगाढ़ आलिंगन में पुत्र का देह हमारे भीतर कितना प्रविष्ट हुआ, या वे यह सोचते थे कि भीतर इतना सुख समाया हुआ है कि वह कहीं बाहर न निकल जाय, इसलिये वे नेत्ररूपी देह के कपाटों को मानों बंद कर लेते थे मातार उत्सङ्गमारोप्य तमङ्गजं नृपः परिष्वजन मीलितलोचनो बभौ। अन्तर्विनिक्षिप्य सुखं वपुYहे कपाटयोः सङ्घटयन्निव द्वयम् ।। (६199)