क्षत्रचूडामणि का अपर नाम जीवन्धरचरित्र भी है। इसके कर्ता वादीभसिंह सूरि हैं। वादीभसिंह का जन्मनाम ओडयदेव था और दीक्षानाम अजितसेन। शास्त्रार्थ में वादी रूपी इभ (हाथियों) को सिंह के समान परास्त करने की योग्यता के कारण “वादीभसिंह” उनका उपाधि नाम प्रसिद्ध हुआ। वादीभसिंह का जन्मस्थान अज्ञातप्राय है। इनका कार्यक्षेत्र कर्पाटक का पोरुच्च क्षेत्र था। म.म. कुप्पु स्वामी, श्री नीलकण्ठ शास्त्री तथा पं. नाथूराम ने इनका समय दसवीं शताब्दी माना है, जब कि श्री दरबारीलाल कोठिया इन्हें ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रखते हैं। यही मत ग्राह्य है। वादीभसिंह का पाण्डित्य सुप्रथित है। ये न्याय और व्याकरण के अतिरिक्त काव्य, अलंकार, कोश आदि के मर्मज्ञ ज्ञाता थे। इनकी दो कृतियां संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध हैं गद्यचिन्तामणि नामक गद्यकाव्य तथा पद्य में निबद्ध क्षत्रचूड़ामणि चरित-काव्य।
विषयवस्तु
जीवन्धर का चरित जैन परम्परा में प्रसिद्ध है। इस काव्य में हेमांगद प्रदेश के राजा सत्यन्थर तथा रानी विजया का प्रेम, उसके कारण राजा का राजकार्य से विरत होकर मन्त्री काष्ठांगार को कार्य सौंपना, मन्त्री का राजा के प्रति दुर्भाव, रानी के तीन स्वप्न, तदनुसार जीवन्धर का गर्भ में आना, राजा का उसकी रक्षा के लिये उड़ने वाला यन्त्र बनवाना, और मन्त्री काष्ठांगार द्वारा उसके वध का षड्यन्त्र करने पर विमान-यन्त्र मैं रानी को बिठाकर रानी तथा गर्भ की रक्षा और स्वयं सल्लेखना के द्वारा देहत्याग, श्मशान में जीवन्धर का जन्म, नगरश्रेष्ठी गन्धोत्कट द्वारा उसे घर लाकर पुत्र मानकर पालन -इतनी घटनाएं प्रथम लम्ब में वर्णित हैं। शेष दस लम्बों में जीवन्धर का विभिन्न सुन्दरियों के प्रति आकर्षण और अनुराग, उसके आठ विवाह, अनेक पराक्रमपूर्ण कार्य और अन्यायपूर्वक शासक बनने वाले मन्त्री काष्ठांगार से वैरप्रतिनिर्यातन तथा राजपद की प्राप्ति के अनन्तर एक बार वानर और दो वानरियों की क्रीडा तथा कलह देखकर वैराग्य की उत्पत्ति का वर्णन है। इतिवृत्त में जीवन्धर की दो प्रेमिकाओं गुणमाला तथा सुरतमञ्जरी का विवाद, जीवन्धर के द्वारा उनके देहलेपनार्थ निर्मित चूर्ण की परीक्षा, नन्दगोप की गायों को चुराने वाले भीलों से उसका युद्ध तथा गायों को छुड़ाना, विद्याधरकन्या गन्धर्वदत्ता को वीणावादन में परास्त करना आदि घटनाएं कौतूहलवर्धक हैं। SELETEE १. सं. टी. एस. कुप्पू स्वामी शास्त्री, प्रकाशक, सरस्वती विलास सीरीज, तंजोर सन् १९०३ ई. १२. पत्रचूडामणि, जयपुर सं. २४४६, भूमिका, पं. मोहनलाल शास्त्री। माना जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य ३७३ क्षत्रचूडामणि पौराणिक शैली में लिखा गया है। इतिवृत्तपरकता का इसमें प्राधान्य है तथा कवि वादीभसिंह की समासशैली प्रभावशाली है। अंतिम लम्ब में जैन दर्शन के सिद्धान्तों का सार रूप में अच्छा उपस्थापन है। क्षत्रचूडामणि को कहीं-कहीं महाकाव्य के रूप में उल्लिखित किया गया है, पर शास्त्रीय दृष्टि से महाकाव्योचित विविध वर्ण्य विषयों का उसमें अभाव है। यह एक एकार्थक या चरितप्रधान काव्य है। अलंकारों के सायास निर्वाह पर कवि वादीभसिंह का यहां आग्रह नहीं है, यद्यपि वे एक प्रतिभाशाली और व्युत्पन्न कवि हैं। प्रसंगवश सर्वाधिक प्रयोग अर्थान्तरन्यास अलंकार का हुआ है, जिससे सम्पूर्ण काव्य में अर्थगौरव तथा सुभाषितबाहुल्य का मणिकांचन योग हो गया है। नीतिकाव्य की दृष्टि से ही यह रचना विशेष रूप से प्रभावित करती है। उदाहरणार्थ - क अतत्त्वज्ञेऽपि तत्त्वज्ञैर्भवितव्यं दयालुभिः।। कूपे पिपतिषुर्बालो न हि केनाप्युपेक्ष्यते।। - ६। ना तत्त्वज्ञानी को चाहिए कि वह मूर्ख पर दया करे। कोई बच्चा कुएं में गिरने वाला हो, तो उसकी मला कौन उपेक्षा करेगा?) इतिवृत्तनिर्वाह में भाषाशैली की दृष्टि से कवि ने प्रौढि गुण का विशेष आधान किया है, सानुप्रास पदावली अनेक स्थलों पर अनायास ही सध कर रचना में खिंचती आयी है। यथा - मा तदर्थ पार्थिवः सार्धमेकान्ते कान्तया तया। मन्त्रयित्वा तदन्ते माममन्दप्रीतिरादिशत् ।। - ३३२ मुख्य रूप से यह महाकाव्य मानवीय चरित्रों के उपस्थापन में संघर्ष, द्वन्द्वात्मकता तथा उदात्त चरित्र की सृष्टि के कारण महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है। शान्तरस प्रधान होते हुए भी यहां अनेक नारी चरित्र भिन्न-भिन्न स्वभाव के साथ चित्रित हैं। सत्यन्धर तथा नायक जीवन्धर के चरित्र और रानी विजया के चरित्र की उदात्तता और गरिमा प्रेरणाप्रद है। कुटिल मन्त्री काष्ठांगार, सरल नन्दगोप आदि चरित्र भी इस काव्य की पात्रयोजना को वैविध्य देते हैं। अन्तिम लम्ब में संसारानुप्रेक्षा, आमवानुप्रेक्षा, एकत्वानुप्रेक्षा, अन्यत्वानुप्रेक्षा, निर्जरानुप्रेक्षा आदि प्रकरणों में जैनमत का अत्यन्त सरल तथा हृदयग्राही विधि से संवादशैली में रोचक प्रतिपादन है, जिसके कारण इस काव्य को जैनसमाज में विशेष महत्त्व दिया जाता रहा है। सिद्धान्तों के प्रतिपादन में उदाहरण के लिये अनेकत्र कवि ने उपमा आदि अलंकारों का प्रयोग किया है, जिसमें मौलिकता भले ही न हो, पर विषयवस्तु को हृदयंगम कराने की क्षमता अवश्य है। उदाहरणार्थकाव्य-खण्ड एवं च त्वयि सत्यात्मनु कर्मानवनिरोधनात्। म नीरन्धपोतवद् भूया निरपायो भवाम्बुधौ।। -११५६ (हे आत्मन, आसवों के रोक दिये जाने पर तुम इस भवसागर में छिद्ररहित पौत के समान निरपाय संचरण कर सकते हो।