०८ चन्द्रप्रभचरित

प्रस्तुत महाकाव्य के रचयिता आचार्य वीरनन्दि हैं। इस काव्य की प्रशस्ति में वीरनन्दि के गुरु का नाम अभयनन्दि दिया गया है। वीरनन्दि देशीयगण की आचार्य-परम्परा से सम्बन्धित थे। अभयनन्दि के शिष्य होने के कारण वीरनन्दि और गोम्मटसार के रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती दोनों सतीर्थ्य थे। कवि वादिराजसूरि ने अपने काव्य पार्श्वनाथचरित में वीरनन्दि के नाम एवं कृति की प्रशंसा की है। वीरनन्दि ने अपने ग्रन्थ में अपने पूर्ववर्ती किसी कवि या कृति का उल्लेख नहीं किया है। वीरनन्दि के सतीर्थ्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने कर्मकाण्ड की रचना सेनापति चामुण्डराय की प्रेरणा से की थी। चामुण्डराय ने गोम्मटस्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा १०८५ वि.सं. (१०२८ ई.) में की कनक चिय १. काव्यमालाडूक ३०, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई सन् १६१२ ई. में प्रकाशित २. पार्श्वनाथचरित १३० ३६८ काव्य-खण्ड थी।’ इस आधार पर नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के सतीर्थ्य वीरनन्दि का समय ग्यारहवीं शताब्दी मानना उपयुक्त है। अतएव, इस काव्य की रचना ग्यारहवीं शताब्दी में ही हुई थी। इस महाकाव्य में आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ के ७ भवों से सम्बन्धित जीवन चरित का सविस्तर वर्णन किया गया है। इसकी कथावस्तु का मुख्य आधार उत्तरपुराण है। इसमें १८ सर्ग और (६६) श्लोक हैं। प्रथम सर्ग में मङ्गलाचरण, सज्जन-दुर्जन-चर्चा एवं पद्मनाभ की कथा है। द्वितीय सर्ग में मुनि श्रीधर, पद्मनाभ के पूर्वभवों का वर्णन करते हैं। तृतीय एवं चतुर्थ सर्गों में चन्द्रप्रभ के सातवें पूर्वभव के जीव श्रीवर्मा का वर्णन है जो तपस्या करके श्रीधर देव होता है। पांचवें सर्ग में श्रीधर का जीवन, अतिजय राजा और अजितसेना से अजितसैन राजकुमार होता है। उसे युवराज नियुक्त किया जाता है। चन्द्ररुचि नामक असुर उसका अपहरण कर लेता है। छठे सर्ग में असुर, अजितसेन को मनोरमा सरोवर में गिरा देता है। तत्पश्चात् उसका जंगलों में भटकना, युद्ध-वर्णन, विवाह-वर्णन और स्वनगरागमन का वर्णन है। सातवें सर्ग में अजितसेन को ऐश्वर्य की प्राप्ति, उसका राज्याभिषेक एवं दिग्विजय यात्रा आदि का वर्णन है। आठवें से दशवें सर्ग तक वसन्त, उपवन-विहार, जलकेलि, सायंकाल, चन्द्रोदय, रात्रि-क्रीडा एवं निशावसान का वर्णन किया गया है। ग्यारहवें सर्ग में राजा का सभा में आगमन, गजक्रीडा देखना, गज द्वारा एक की मृत्यु देखकर वैराग्य उत्पन्न होना, तपस्या आदि वर्णित है। मृत्यु के अनन्तर, राजा का अच्युतेन्द्र होना, उसके बाद पद्मनाभ का जन्म, पद्मनाभ का अपने पूर्वभवों के प्रति मुनि के उपदेश में सन्देह, वनकेलि-गज का आगमन और उसे अपने वश में करना आदि वर्णित है। बारहवें सर्ग में राजा पृथ्वीपाल के दूत का गज के लिए आना, तर्क-वितर्क और पद्मनाभ द्वारा युद्ध निमन्त्रण स्वीकार किया जाना वर्णित है। तेरहवें और चौदहवें सर्ग में पृथ्वीपाल का अभियान, रास्ते में प्राप्त नदी, मणिकूट पर्वत, सेना-सन्निवेश, ससैन्य पृथ्वीपाल का आगमन वर्णित है। पन्द्रहवें सर्ग में युद्ध, पृथ्वीपाल का वध, उसके कटे हुए सिर को देखकर पद्मनाभ का वैराग्य, अपने पुत्रों को राज्यभार देकर तपस्या करना और शरीर छोड़कर अहमिन्द्र होना आदि वर्णित है। सोलहवें सर्ग में चन्द्रपुरी नगरी में महाराज महासेन की रानी लक्ष्मण द्वारा अहमिन्द्र के जीव के गर्भधारण का वर्णन है। सत्रहवें सर्ग में चन्द्रप्रभ की उत्पत्ति, जन्मकल्याण, बाल-क्रीडा, विवाह, साम्राज्य-प्राप्ति, संसार की निस्सारता एवं तपश्चर्यादि का वर्णन है। अठारहवें सर्ग में तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभ द्वारा जैन-सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है। । चन्द्रप्रभचरित में वस्तुव्यापार, इतिवृत्त, संवाद और भाषाशैली तथा भावाभिव्यंजना - इन सभी तत्त्वों का सन्तलित प्रयोग है। कई जन्मों की कथा का निरूपण जीवन की विभिन्न दशाओं तथा कालचक्र के सातत्य को प्रकट करता है। - १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग - ६, पृ. ४८ जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य ३६ कालिदास की सरस वैदर्भी रीति तथा कल्पना की उर्वरता चन्द्रप्रभचरित में अनुभूत होती है। विशेषतः प्राकृतिक उपादानों के वर्णन में रंगों की पहचान के द्वारा कई स्थलों पर कवि ने अछूते बिम्बों की सृष्टि की है। अटवी का विस्तृत वर्णन इस दृष्टि से आकर्षक है। उदाहरणार्थ यह पद्य द्रष्टव्य है - अतिरौद्रकिरातमल्लभिन्नप्रियकामारुणिता दधाति भूमिः। रुचिरत्वमरण्यदेवतानां चरणालक्तकचर्चितब यस्याम्।। - ६७ • अत्यन्त रौद्र किरातों के भालों से विदीर्ण प्रियकों के रक्त से लाल भूमि ऐसी लगती है जैसे वनदेवियों के चलने से उस पर महावर लग गयी हो। प्रकृति के कोमल और कठोर दोनों पक्षों का चित्रण समान निपुणता से इस महाकाव्य में मिलता है। लालित्य और कल्पनाओं की छटा अनेक स्थलों पर माघ के वर्णनों का भी स्मरण कराती है। सन्ध्या के समय घोंसलों की ओर लौटते हुए पक्षियों का कलरव कवि को सूर्य के वियोग में दिशाओं के विलाप का स्वर प्रतीत होता है (१०८) । जगत् रूपी भवन को प्रकाशित करके सूर्य रूपी दीप अस्त हो गया, तो लोगों ने देखा कि आकाश में उसके काजल के समान अंधकार फैल रहा है - अवमास्य जगद्गृहं करै रविदीपे विरतिं गते तमः। प्रसर ददृशे शनैः शनैरिव तत्कज्जलमम्बरे जनैः।। - १०॥१० भावशबलता, कारुण्य तथा अन्तर्द्वन्द्व अनेक मार्मिक प्रसंग इस महाकाव्य में निरूपित हैं। राजा चण्डरुचि के द्वारा अपने पुत्र का अपहरण होने पर उसके वियोग से व्यथित होकर किया गया विलाप हृदयद्रावक है। शृङ्गार के प्रसंगों में अवश्य प्रायः पुराने कवियों के वचनों का अनुवाद सा चन्द्रप्रभचरितकार ने कर डाला है। कुमार अजितसेन के विरह में शशिप्रभा की अवस्था का यह चित्रण विरह के पारंपरिक वर्णन की परिधि में सीमित है परिशून्यमना विचिन्तयन्ती किमपि क्षामविषाण्डुगण्डलेखा। परिवारसमाहतेऽन्नपाने ज्वरहीनापि दधात्यरोचकत्वम्।। परितापविनाशाय शय्या क्रियते या नवपल्लवैः सखीभिः। दववह्निशिखावलीव सापि ज्वलयत्यम्बुजकोमलं तदङ्गम् ।। (५।६२, ६६) इसी प्रकार वीर, बीभत्स, भयानक तथा शान्त रसों की व्यञ्जना भी महाकाव्य में यथा स्थान हुई है। शब्दालड्कारों में अनुप्रास, यमक और श्लेष का प्रयोग हुआ है। अर्थालड्कारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अतिशयोक्ति, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त प्रभृति अलङ्कारों की योजना हुई है। इस महाकाव्य में विषयानुरूप छन्दों का प्रयोग किया गया है, जो काव्य-चमत्कार का सूचक है। ३७० काव्य-खण्ड