०६ वर्धमानचरित

कविपरिचय

कवि के अन्य ग्रन्थ शान्तिनाथचरित की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता असग कवि हैं।’ उनके पिता का नाम पटुमति तथा माता का नाम वैरति था। कवि के गुरु का नाम नागनन्दि था। वर्धमानचरित की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इस काव्य की रचना वि.सं. १०४५ (ई. सन् ६८८) में की गई थी।

विषयवस्तु

वर्धमानचरित महाकाव्य में भगवान् महावीर का जीवनवृत्त वर्णित हैं। यह अठारह सौ का महाकाव्य है। इसकी कथावस्तु उत्तरपुराण के ७४वें पर्व से ली गयी है। इसमें महावीर का वर्तमान भव और उनके पूर्वभवों का वर्णन है। उनके पूर्वभवों से सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण कथाएं इस महाकाव्य में प्राप्त होती हैं, जिनमें मारीचि, विश्वनन्दी, अश्वग्रीव, त्रिपृष्ठ, सिंह, कपिष्ठ, हरिषेण, सूर्यप्रभ आदि की कथाएं मुख्य हैं। कवि ने उत्तरपुराण की कथा में पर्याप्त परिवर्तन करके इसे महाकाव्योचित रूप में ढाला है। इसमें पुरूरवा और मारीचि के आख्यान को भी छोड़ दिया गया है। कथानक का प्रारम्भ राजा नन्दिवर्धन के प्रासाद में पुत्र-जन्मोत्सव से किया गया है। इसमें पूर्वभवों का प्रारम्भिक अंश मुनिराज के मुख से कहलाया गया है। इस पौराणिक कथानक को महाकाव्य रूप में प्रस्तुत करने का कवि ने सफल प्रयास किया है। हमारी

समीक्षा

इस महाकाव्य में जीवन के प्रधान तत्त्वों की व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। यथा-पिता-पुत्र का स्नेह, नन्दिवर्धन और नन्द के जीवन में, भाई-भाई का स्नेह विश्वभूति और विशाखभूति के जीवन में, पति-पत्नी का स्नेह, त्रिपृष्ट और स्वयंप्रभा के जीवन में, विविध भोगविलास हरिषेण के जीवन में, शौर्य एवं अद्भुत कार्यों का वर्णन, त्रिपृष्ठ के जीवन में दर्शनीय है। इसके साथ ही सन्ध्या, प्रभात, मध्याह्न, रात्रि, वन, सूर्य, नदी एवं पर्वत आदि का वर्णन भी यथास्थान किया गया है। प्रस्तुत महाकाव्य में विविध रसों की व्यञ्जना १. शान्तिनाथचरित, प्रशस्ति भूमिका, पृ. . २. संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ. १३६ किवि मार्ग ३. जिनदास पार्श्वनाथ फडकुले सोलापुर सन् १६३१ ई. में प्रकाशित मिती जान मालारकाव्य-खण्ड हुई है। इसमें श्रृंगाररस को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ज्योतिप्रभा और अमिततेज के प्रेमाकर्षण को कवि ने इन शब्दों में व्यक्त किया है - स्वमातृसंकल्पवशीकृतेव निबद्धभावामिततेजसि ध्रुवम्। अभूत्सुता चक्रधरस्य योषितां मनो विजानाति हि पूर्ववल्लभम् ।। (१०७७) महाकाव्य में विविध अलङ्कारों और छन्दों का प्रयोग हुआ है। सर्गान्त में छन्दःपरिवर्तन के विधान को भी अपनाया गया है। असग कवि के सारे वर्णन प्रायः परम्परामुक्त हैं तथा उनमें मौलिकता कम है। उनका अप्रस्तुतविधान भी अनुकरणजन्य अधिक है। जहां उन्होंने अपनी कल्पना की उड़ान भरी है, वहां काव्य में चमत्कार तो आ गया है, पर रसावेशवैशय और सुरुचि का हनन हुआ है। उदाहरण के लिए वसन्त के वर्णन में वे कहते हैं - ढाक के लाल फूल इस प्रकार शोभित हो रहे घे, मानो कामदेव रूपी उग्र राक्षस ने विरहपीडित जनों के मांस को नोच-नोच कर खाया हो और तृप्त होने पर अवशिष्ट बचे मांस को सुखाने के लिए पलाश के वृक्षों पर टुनड़े-टुकड़े कर के लटका दिया हो (२५०)। शृङ्गार रस तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के चित्रण में बीभत्स का यह अनपेक्षित सन्निवेश खटकने वाला है, और कामदेव को मांसलोलुप राक्षस से उपमित करने में भी अनौचित्य है। असग कवि ने सौन्दर्य का चित्रण भी पिटे-पिटाये उपमानों या कल्पनाओं के सहारे ही किया है। रानी इनकमाला के रूप का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि कदली वृक्ष उसकी जंघाओं की मृदुता के सामने लज्जित हो कर निस्सारता को प्राप्त हो गये हैं, उसके पयोधरों से विजित होकर ही बेल बहिष्कृत होकर जंगल में रहने लगा है। उसके मुख की समग्र शोभा के आगे ही चन्द्रमा कलंकित हो गया है (५ ॥१७-२०) । शैलीकार की दृष्टि से असग कवि अनेक स्थलों पर अपने सटीक भाषा के प्रयोग और रीति की समुचित परिकल्पना के द्वारा प्रभावित करते हैं। भारवि के किरातार्जुनीयम् की उन पर विशेष छाप लगती है। भारवि की भांति वे स्वयं भी उत्तम भाषा का वैशिष्ट्य बताते हुए कहते हैं कि अापत्ति, दीर्घ समास, अपशब्द तथा क्लिष्टता काव्य में अपेक्षित नहीं है। उनके पदविन्यास का गाम्भीर्य, सारणाणता तथा वर्ण्य विषय के अनुरूप कहीं-कहीं पदों की नृत्यत्प्रायता हहदयावर्जक हैं, नृत्य का वर्णन करते हुए उन्होंने अपनी शब्द साधना और पदविन्यासवक्रता का अच्छा परिचय दिया है - नृत्यन्मदालसवधूजनवक्त्रपमव्यासक्तकामुकविलोचनमत्तमङ्गम् । रङ्गावलीविरचितोज्ज्वलपद्मरागप्रेङ्खत्प्रभापटलपल्लवितान्तरिक्षम् ।। (६१८) (नृत्य करती हुई बंधुओं के मुख पर कामुक पुरुषों के नेत्र भ्रमरों की भांति मंडरा रहे थे, रंगावली में जड़ी पद्मराग मणियों से प्रभा के पटल झर रहे थे, जिससे वहां का आकाश लाल-लाल कोंपलों से भर गया सा लगता था।) जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य ३६५ कथानक और कथाकथन-शैली की दृष्टि से असग ने अत्यन्त सहजता पूर्वक वस्तुनिर्वाह किया है, और विभिन्न प्रसंगों का निरूपण भावोद्बोध तथा संवेदनशील दृष्टि के साथ किया है। युद्ध के वर्णन में व्रण से विस्वल अंगों वाले किसी शूर-वीर को देखकर प्रतिपक्षी के मन में दया का संचार हुआ और वह उस वीर पर प्रहार करता-करता रुक गया। सच है, महानुभाव व्यक्ति दुःखी लोगों पर प्रहार नहीं करते - - निरीक्ष्य शूरं व्रणविह्वलाङ्गं तेजस्विनं हन्तुमपीह मानम् । जघान कश्चित् कृपया न साधुर्न दुःखितं हन्ति महानुभावः।। -६३२ इसके साथ ही संसार की असारता और निर्वेद स्थायी भाव के अनुरूप आलम्बन तथा उद्दीपन सामग्री के चित्रण में असग का मनोयोग तथा सुरम्य विशेष सराहनीय है। ऐसे प्रसंगों में उनकी अभिव्यक्ति सर्वत्र बड़ी पारदर्शी बनी रही है। यह संसार जनन, मरण, आधि-व्याधि आदि की आवृत्ति से युक्त है, यहां वास्तव में कोई किसी का नहीं है, न कोई किसी का शत्रु है, न मित्र, न सम्बन्धी। यहां मनुष्य का वास्तविक बन्धु केवल धर्म ही है जन्मव्याधिजरावियोगमरणव्यावृत्तिदः खोदथा - वामज्जन्नहमेक एव नितरां सीदामि मे नापरे। विद्यन्ते सुहृदो न चापि रिपवो न ज्ञातयः केवलं धर्मो बन्धुरिहापरत्र च परामित्येकतां चिन्तयेत् ।। - १५६५