वराङ्गचरित के समान ‘जिनदत्तचरित’ भी चरितकाव्य है। इसके रचयिता गुणभदाचार्य हैं।
परिचय तथा रचनाकाल
गुणभद्राचार्य महापुराण के कर्ता यशस्वी जिनसेनाचार्य के शिष्य थे। जिनसेनाचार्य का देहावसान ६०२ वि.सं. (८४५ ई.) में हुआ और तदनन्तर गुणभद्र ने उनकी कृति को पूर्ण किया था। इस प्रकार जिनदत्तचरित का रचनाकाल विक्रम की नवम शती का उत्तरार्ध या दशम शती का पूर्वार्ध माना जा सकता है। गुणभद्राचार्य कर्नाटक के निवासी थे। उनका अन्य ग्रन्थ आत्मानुशासन नामक वैराग्यपरक प्रबन्ध है।
कथावस्तु
जीवदेव नामक वैश्य की स्त्री जीवंजसा ने एक सन्त गुणचन्द्र के प्रवचन में पत्र का माहात्म्य सना तो वह अपने निस्सन्तान होने को लेकर दःखी रहने लगी। मनि के आशीर्वाद से उसे पुत्र हुआ, जिसका नाम जिनदत्त रखा गया। जिनदत्त आरम्भ से ही विरागी थे, पर युवा होने पर इन्होंने एक सुन्दरी की मूर्ति देखी, तो विवाह की इच्छा उनके मन में जागृत हुई। जिस युवती की वह मूर्ति थी, वह चम्पा के श्रेष्ठी विमल की पुत्री थी। जिनदत्त ने उससे विवाह कर लिया और वसन्तपुर में सुखपूर्वक रहने लगे। इसके पश्चात वे वाणिज्य के लिये विदेशयात्रा पर निकल पड़े और पत्नी के साथ उसके पिता के नगर पहुँचे। वहाँ सपत्नीक विहार करते हुए उन्हें एक औषधि मिली, जिसके पास रखने पर पुरुष अदृश्य हो सकता था। जिनदत्त अदृश्य होकर सिंहल द्वीप पहुंच गये। वहां की राजकुमारी की प्राणरक्षा कर उन्होंने उससे भी विवाह कर लिया। सिंहल से लौटते हुए नवदम्पती पर भारी विपत्ति आयी। साथ के व्यापारी ने राजकुमारी के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर जिनदत्त को यान से गिरा दिया। राजकुमारी किसी तरह अपना शील बचाकर चम्पा नगरी पहुंची और जिनदत्त की पहली पत्नी के साथ तपोरत जीवन बिताने लगी। इधर जिनदत्त सागर तैर कर पार कर रहे थे, तभी विद्याधर उन्हें ले गये और विद्याधर राजकुमारी से उनका विवाह रचा दिया। तीसरी पत्नी को लेकर जिनदत्त विमान से चम्पा नगरी लौटकर आये। यहां आकर उन्होंने तीसरी पत्नी को भी छोड़ दिया और अदृश्य होकर फिर रूप बदल कर नगर में रहने लगे। जिनालय में उनकी तीनों पत्नियां तपस्विनी बनकर रहने लगीं। जिनदत्त गायक के वेष में उनसे मिले और उन्हें उनकी ही जीवन-कथा सुनाकर चमत्कृत कर दिया। फिर एक मदमत्त हाथी को वश में करने के पुरस्कारस्वरूप चम्पा की राजकुमारी से भी उनका विवाह हो गया। चारों पत्नियों के साथ सुखपूर्वक दाम्पत्य का आनन्द लेने के अनन्तर वे अपरिग्रही हुए और निर्वाण को प्राप्त किया। २६२ काव्य-खण्ड चमत्कारपूर्ण आख्यान का निर्वाह करते हुए गुणभद्र अपने महाकाव्य में त्याग और अपरिग्रह का सन्देश देने में सफल हुए हैं।
भाषा-शैली तथा काव्य-सौन्दर्य
आख्यानकला की दृष्टि से यह महाकाव्य बड़ा रोचक है। कवि ने रोमांचक तथा विस्मयावह घटनाओं की शृंखला गूथ दी है। भाषा तदनुरूप अत्यन्त सरल है। प्रायः अनुष्टुप् छन्द का कवि ने प्रयोग किया है। महाकाव्योचित वर्ण्य विषयों की कमी इस काव्य में नहीं है। आरम्भ से ही वसन्तपुर का रुचिकर वर्णन है, जिसमें कवि का सौन्दर्यप्रम झलकता है। अभिसारिकाओं का वर्णन करते हुए वह कहता है कि उस नगरी में रात्रि में संकेतनिकेतन की ओर जा रही रमणियों के अपने ही आभूषणों का शब्द उनका विघ्न बन जाया करता था - माता यान्तीनां यत्र सङ्केतनिकेत निशि योषिताम् । बामति निजाभरणसम्भारप्रसरो विघ्नकारकः।। - (१।२४) गुणभद्र की शैली प्रायः व्यास शैली है। उनकी अभिव्यक्ति में चुस्ती और कसावट सर्वत्र बनी रही है। न वे बहुत लम्बे वर्णनों में कथा-तत्त्व तथा अपने धर्मप्रचार के उद्देश्य को तिरोहित होने देते हैं, न अनावश्यक पदों का ही प्रयोग करते हैं। हि यद्यपि गुणभद्र के काव्य में सर्वथा अछूती कल्पनाओं और प्रत्यग्न भावबोध के दर्शन नहीं होते, पर अलंकारों के यथोचित प्रयोग के द्वारा वे पाठकों को सौन्दर्यानुभूति कराने में सफल हैं। नायक के विवाह के वर्णन के प्रसंग में वे कहते हैं - कौतुकादिव तं द्रष्टुं वधूवरयुगं तथा। मतमा का सिका निशानारीसमायाता तारामौक्तिकभूषणा।। (२।११३) शिासन (वधू और वर की उस जोड़ी को कौतुकवश देखने के लिए जैसे वहां तारों रूपी मौक्तिकों के आभूषण वाली निशानारी स्वयं चली आयी।) - गुणभद्र एक समर्थ कवि हैं तथा अवसर के अनुसार वे अलंकारों और उत्तम कल्पनाओं की शृंखला भी गूंथ देते हैं। सूर्योदय के वर्णन में उन्होंने सन्देह अलंकार के द्वारा सूर्य का रमणीय, भव्य और समुज्ज्वल चित्र खींचा है - मिति निति कि प्राचीकुकुममण्डनं किमथवा रात्र्यङ्गनाविस्मृतं साका रक्ताम्भोजमयो मनोजनृपते रक्तातपत्रं किमु। चक्र ध्वान्तविभेदकं धुवनितामाङ्गल्यकुम्भः किमु चेत्थं शङ्कितमम्बरे स्फुटमभूवू भानोस्तदा मण्डलम् ।। - २१२७ स्थल-स्थल पर इस महाकाव्य में धर्मोपदेश के प्रसंगों में दृष्टान्त और निदर्शना के प्रयोग के द्वारा उदात्त आदर्शों को हृदयङ्गम कराया गया है। उदाहरणार्थ काम किमा जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य प्राणनाशेऽपि कर्तव्यं परेम्यः सुधिया हितम्। मा 5213 आशाः सुगन्धयत्येव दह्यमानोऽपि चन्दनः।। - ४।२१ (प्राणों के नाश होने पर भी सुधी व्यक्ति को परहित करना चाहिये। चन्दन जल जाता है, प. दिशाओं में दूर-दूर तक अपनी सुगन्ध बिखेरता रहता है।) जिनदत्तचरित पौराणिक आख्यान-प्रधान शैली का काव्य होते हुए भी काव्यात्मकता का उत्तम निदर्शन प्रस्तुत करता है।