०४ जिनसेन-पार्वाभ्युदयकाव्य

जैनाचार्यों में कालिदास को अपनाने वाले सर्वप्रथम महाकवि जिनसेन हैं। राष्ट्रकूट वंश के राजा अमोघवर्ष प्रथम के शासनकाल में यह काव्य लिखा गया है। जिनसेन आठवीं नवमीं शताब्दी के जैन सम्प्रदाय के सर्वोच्च उन्नायकों में से थे। उन्होंने अपने गुरु वीराचार्य १. श्री के.बी. पाठक द्वारा पूना से तथा योगिराज की टीका के साथ निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से सन् १०६ ई. में प्रकाशित काव्य-खण्ड ३६० के सहयोग से महाराष्ट्र और कर्नाटक के राजा राष्ट्रकूटवंशी अमोघवर्ष को जैनधर्म की दीक्षा दी और उनके गुरु बने। निगम जिनसेन ने ८१५ ई. के लगभग ‘पार्वाभ्युदय’ की रचना की, जिसमें पूरा ‘मेघदूत’ एक-एक चरण करके समाविष्ट है। इसमें एक चरण कालिदास का और शेष तीन जिनसेन के हैं। कहीं-कहीं दो पक्तियाँ मेघदूत की हैं और दो कवि की स्वरचित हैं।

काव्य की कथा

राजा अरविन्द के द्वारा नगर से बहिष्कृत कर दिये जाने पर कमठ सिन्धु-नदी के तट पर तपस्या करने लगता है। भाई की दुरवस्था का वृत्तान्त सुनकर उसका अनुज मरुभूति (पार्श्वनाथ) खोजते हुए कमठ के पास आता है। कमठ के हृदय में पूर्व-जन्म का वैर जागृत होता है और वह पार्श्वनाथ को घोर उपसर्गों से सन्तप्त करता है। माया के प्रभाव से युद्ध करते समय स्वयं मेघरूप धारण करके मरुभूति (पार्श्वनाथ) को भी मेघ बनाता है। इतनी शठता करने पर भी पार्श्वनाथ को शान्त देखकर, क्रोधित होकर शिलाप्रहार करना चाहता है, उसी समय पार्श्वनाथ की पूजा के लिये नागराज धारणेन्द्र सपत्नीक आते हैं। वे कमठ को अभयदान देते हैं। वह पश्चात्ताप से प्रेरित हो पार्श्वनाथ की शरण में जाकर पापों के लिए क्षमायाचना करता है। देवगण इस दृश्य को देखकर हर्षित होकर पुष्पवृष्टि करके पार्श्वनाथ की स्तुति करते हैं।

काव्य-समीक्षा

प्रस्तुत काव्य में चार सर्ग हैं और ३६४ पद्य । समस्या-पूर्ति होने के कारण सम्पूर्ण काव्य मन्दाक्रान्ता छन्द में है, केवल चतुर्थ के अन्तिम छ: श्लोकों में से पाँच मालिनीवृत्त और एक वसन्ततिलका में है। शैली की जटिलता के कारण कथानक की प्रस्तुति दुरूह हो गयी है। समस्यापूर्ति विभिन्न प्रकार से की गई है। मूल भाव को सुरक्षित रखकर कवि ने समस्यापूर्ति के साथ-साथ भाव-सौन्दर्य से चमत्कृत किया है। मेघकमठ मरुभूमि को उसकी पत्नी वसुन्धरा का हाल बताते हुये कहता है। यथा - उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां गाढोत्कण्ठं करुणविरुतं विप्रलापायामानम्। मद्गोत्राकं विरचितपदं गेयमुद्गातुकामा त्वामुद्दिश्य प्रचलदलकं मूर्छनां भावयन्ती।।३।। ।।३८|| कवि ने विभिन्न प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में अपनी सहृदयता और कल्पनाशक्ति का पूर्णरूपेण परिचय दिया है। कवि ने आम्रकूट पर्वत, विदिशा, उज्जयिनी अलकापुरी और रेवा तथा सिन्धु नदी का वर्णन सरसता से किया है। रेवा नदी को पृथ्वी की टूटी हुई बड़ी सी माला बताकर उसके तट पर वन्य हाथियों की दन्तक्रीडा तथा पक्षियों के कलरव का वर्णन करते समय नदी के तट का चित्र सा खींच दिया है। यथा - गत्वौदीचां भुव इव पृथु हारयष्टिं विभक्ता वन्येभानां रदनहतिभिर्भिन्नपर्यन्तवप्राम्। जैन-महाकाव्य तथा चरितकाव्य वीनां वृन्दैर्मधुरविरुतैरात्ततीरोपसेवाम् रैवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णाम् ।। १।। ।।७५ || समग्न काव्य के अनुशीलन से निष्पक्ष रूप से कहा जा सकता है कि समस्यापूर्ति की दृष्टि से यह काव्य अद्वितीय है। कालिदास के भाव को प्रसंगान्तर में कवि ने बड़ी सूक्ष्मता से सत्रिविष्ट करने की चेष्टा की है।