०२ वराङ्गचरित

वराङ्चरित जैन परम्परा के महाकाव्यों में सर्वप्रथम गणनार्ह महाकाव्य है। जैसा इसके नाम से ही स्पष्ट है, यह एक चरितकाव्य है। इसके रचयिता का नाम तथा देश-काल इदमित्वन्तया निर्णीत नहीं है।

कविपरिचय तथा रचनाकाल

इस काव्य में कोई प्रशस्ति नहीं है और न तो कहीं ग्रन्थकार का नामोल्लेख ही हुआ है। बात्य साक्ष्यों में सर्वप्रथम उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला वि.सं. ८३५ (७७८ ई.) में वराङ्गचरित और उसके रचयिता ‘जटिल’ का उल्लेख किया है। जिनसेन ने हरिवंशपुराण १४० वि.सं. (७८३ ई.) में वराङ्चरित की प्रशंसा की है। इसी प्रकार आदिपुराण वि.सं. ८६५ (८३८ ई. के लगभग) के रचयिता जिनसेन (पूर्वोक्त जिनसेन से भिन्न) ने केवल जटाचार्य की प्रशंसा की है।’ इस प्रकार स्पष्ट है कि बराङ्चरित के रचयिता जटाचार्य या जटासिंहनन्द्याचार्य हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में कवि ने अपने पूर्ववर्ती किसी भी कवि का उल्लेख नहीं किया है। इस काव्य के सम्पादक डॉ. आ. ने. उपाध्ये ने जटासिहं नन्दि का समय सातवीं शती ईसवी का अन्त बतलाया है। अतएव, वराङ्गचरित’ की रचना की न्यूनतम सीमा आठवीं शदी के प्रथम चरण को माना जा सकता है!