चन्द्रगोमिन बौद्ध थे और रत्नकीर्ति नामक राजा के गुरु थे। उन्होंने अपने शिष्य पर राजमद का प्रभाव देखकर उसके पास एक पत्र भेजा, जो शिष्यलेख-काव्य नाम से अमर हुआ। अपनी कोटि की यह कृति विरल है। इस काव्य में ११४ पद्य हैं। इसमें इन्होंने शिष्य को संसार की असारता पर मार्मिक और विशद शैली में व्याख्यान दिया है। आरम्भ के १८ पद्यों में त्रिरत्न की प्रशंसा है। इसके पश्चात् वैदिक धर्मानुसार मरणान्तर की शोचनीय स्थिति का निदर्शन है और परोपकार को मोक्ष का श्रेष्ठ साधन बतलाया है।
निष्कर्ष
विश्व की किसी अन्य भाषा में इतकाव्य या सन्देशकाव्य की इतनी सम्पन्न तथा दीर्घकालिक परम्परा नहीं है, जितनी संस्कृत में। संस्कृत भाषा में कालिदास के पश्चात् लगभग दो सहस्र वर्षों तक दूतकाव्य के सर्जन की परम्परा निर्वाध रूप से चली आ रही है। कालिदास का मेघदूत इस परम्परा का न केवल उपजीव्य है, वह दूतकाव्यपरम्परा की सबसे मौलिक और श्रेष्ठ रचना भी है। मेघदूत ने समस्त दूतकाव्यपरम्परा को अनुप्राणित और प्रेरित किया। यद्यपि परवर्ती कवियों ने कालिदास की इस कालजयी कृति का अनुकरण ही अधिक किया है, पर दूतकाव्य की सुदीर्घ परम्परा में नवीन प्रयोग भी कम नहीं हुए। जैन कवियों ने इसमें शृङ्गार के स्थान पर शान्त रस को अगी बनाया, तो कुछ कवियों ने नायक-नायिका के स्थान पर शिष्य और गुरु, यहाँ तक कि दरिद्र व्यक्ति और राजा तक की सन्देश-प्रेषक और सन्देशगृहीता के रूप में अवतारणा कर डाली है। शृङ्गार की विषयवस्तु के स्थान पर हंससन्देश जैसे काव्यों में दार्शनिकता तथा आध्यात्मिकता का समावेश हुआ। गोपियों और कृष्ण के प्रेम को आधार बनाकर लिखे गये दूतकाव्य में भक्ति, रस तथा वैष्णव धर्म को अभिव्यक्ति मिली। शिका दूतकाव्यों की सबसे उल्लेखनीय विशेषता उनमें भौगोलिक स्थानों और सामाजिक स्थितियों का चित्रण है। कवियों को इस काव्यविधा में अपने आसपास के प्रदेशों, परिचित नगरों, ग्रामों तथा अपने परिवेश का आँखों देखा वर्णन करने का अवसर मिला। गित जिरत इस प्रकार कालिदास की मौलिक परिकल्पना तथा प्रातिभ उन्मेष न होते हुए भी उनसे प्रेरित संस्कृत दूतकाव्यपरम्परा हमारे साहित्य की अमूल्य निधि है तथा साहित्यिक सौन्दर्य का उत्कृष्ट रूप भी इसमें मिलता है।
दशम अध्याय