विनय-विजयगणि ने वि. अष्टादश शतक के पूर्वार्द्ध में ‘इन्दुदूत’ की रचना की। इसमें एक शिष्य जोधपुर से अपने गुरु विजयप्रभुसूरीश्वर के पास सूरत में चन्द्रमा को दूत बनाकर अपना सन्देश भेजता है। विनय-विजयगणि ने इन्दुदूत काव्य के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत और गुजराती भाषा में भी ग्रन्थ-रचना की है। जाकर कमाए गणार १. श्री जैन साहित्यवर्धक सभा, शिरपुर से सं. १६४६ में प्रकाशित । ३१२ काव्य-खण्ड मिा काव्य की कथा : श्रीविजयप्रभसूरीश्वर महाराज सूर्यपुर में चातुर्मास बिताते हैं। उनकी आज्ञा से उनके शिष्य विनय-विजयगणि भी मारवाड़ में जोधपुर नगर में चातुर्मास बिताने के लिये जाते हैं। भाद्रपद की पूर्णिमा को चन्द्रमा को देखकर उनके मन में गुरु के पास सन्देश भेजने का विचार आता है। चन्द्रमा को दूतकार्य में नियुक्त करते समय वे उसका स्वागत करके, उसके सभी सम्बन्धियों का कुशल पूछकर प्रशंसा करते हैं। चन्द्रमा जोधपुर से सूरत नगर तक जाता है। कवि ने चन्द्रमा को सुवर्णाचल पर्वत पर विश्राम करने के बाद पार्श्वनाथजी की पूजा करने के पश्चात् अर्बुदाचल पर्वत पर पहुँचने के लिये कहा है। तत्पश्चात् सरस्वती नदी को पार कर अहमदाबाद, बड़ौदा, भड़ौच और नर्मदा नदी तथा तापी नदी होते हुए सूरत जाने का परामर्श है। कवि ने सूरत नगरी के वैभव का वर्णन करते हुए वहाँ के विश्रामालय, व्याख्यान-मण्डप का वर्णन किया है। इसके पश्चात् सिंहासन पर विराजित तप-गणपति महाराज श्री विजयप्रभसूरि की प्रशंसा करते हुए चन्द्रमा को उन्हें वन्दन करने को कहा है। गुरुकृपा से चन्द्रमा के कष्टों के नष्ट हो जाने की कामना से कवि ने एकान्त में अभिवादनपूर्वक गुरु को अपना सन्देश सुनाने के लिये प्रार्थना की हैं। जल काव्य-सौन्दर्य : ‘मेघदूत’ के समान यह दूत-काव्य भी मन्दाक्रान्ता छन्द में है। १३१ श्लोकों के इस काव्य में अङगी रस शान्त है। यत्र-तत्र गुरुविषयक भक्तिभाव की व्यञ्जना है। उदात्त चरित्र-चित्रांकन में भाषा प्रौढ़ और सरस है-गामि कहानियां । स्फूर्जद् भाग्यान कतिचन दृशा स्निग्धया लोकयन्तं कि कांश्चिच्चेषतस्मित-कलनया स्वायतीन प्रीणयन्तम्। पूर्वोपात्तास्खलितसुकृतश्रेणिसौभाग्यभाजः । कांश्चिन् मौलौ करघटनया लब्धसिद्धीन सृजन्तम्।। । ११४ ।। कवि ने नगरों के, नदियों के और जैन मन्दिरों के सरस और भव्य वर्णन प्रस्तुत किये हैं। यथा, सूरत के जैन मन्दिर के वर्णन में कवि कहता है शिल्पिप्रष्ठैः रचितविविधानेकविज्ञानहृद्यम् हिगुस्वाद्यैः कनकरवचितैवर्णकैर्वर्णनीयम्।। दत्ताऽनन्दं सहृदयहृदां वृन्दमर्हद्गृहाणां चित्रश्चित्रं क इह न जनो वीक्ष्य चित्रीयतेऽन्तः।। यो । 6ि119001 कला- क णीन कवि ने राजद्रङग की मुग्ध रमणियों के शृङ्गाररससिक्त वर्णन किये हैं। अगी रस शान्त होने से यत्र-तत्र परोपकार, श्रद्धा और गुरुभक्तिभाव का इस काव्य में प्राधान्य है। भाषा प्रासादिक, प्रवाहपूर्ण है। उपमा, अनुप्रास के साथ अर्थालंकार का सौन्दर्य भी द्रष्टव्य है। यथा सन्देशकाव्यपरम्परा १. स्वादीयः स्यात् कदशनमपि स्नेहधारोपसिक्तम् ।।१२।। २. प्रोत्तुंगानां भवति महतैवापनेयो विरोधः ।।३५ ।।