२९ वादिचन्द्रसूरि का उपवनदूत

सप्तदश शतक के लगभग लिखा हुआ वादिचन्द्रसूरि का ‘पवनदूत’ भी मेघदूत के अनुकरण पर ही उज्जयिनी के विजयनरेश की कथा पर आश्रित है। इस सन्देश-काव्य के अतिरिक्त लेखक ने ‘ज्ञानसूर्योदय'२ नामक नाटक भी लिखा है। इस नाटक में जैनियों के दिगम्बर सम्प्रदाय के धार्मिक सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला गया है। औफैट महाशय इस नाटक को ई. १५८० का लिखा हुआ मानते हैं। तदनुसार पवनदूत भी इसी के आस-पास का लिखा होना चाहिये। श्री एस.के.दे. के अनुसार सत्रहवीं शताब्दी लेखक का कार्यकाल रवि शामिल मालिकाः ती जाति का प्रती को हिला १. जैनसाहित्य प्रकाशक कार्यालय बम्बई से १८१४ ई. में प्रकाशित । २. जैन ग्रन्थावली बम्बई में प्रकाशित। ३. ‘संस्कृत साहित्य का इतिहास’, क्लासिकल पीरियड, प्र, भाग, पृ. ३७३, पा.रि.. . लेखक एस.एन. दासगुप्त) 1 1 जाति: 1945 मस्यिाला वि । सन्देशकाव्यपरम्परा ३४ काव्यसार : विजयनरेश नामक उज्जयिनी का राजा था। उसकी प्रिय रानी तारा को जब अशनिवेग नामक विद्याधर हर कर ले जाता है तब वियोगावस्था में राजा पवन को दूत बनाकर भेजता है। विरह-वर्णन के बाद वह पवन को प्रिया के पास पहुँचने का मार्ग बतलाता है। मार्ग का वर्णन भी ‘मेघदूत’ के अनुकरण पर है। राजा का सन्देश लेकर पवन अशनिवेग के नगर में पहुँचता है। फिर उसके महल में जाकर तारा को उसके प्रिय का सन्देश सुनाता है। तदनन्तर अशनिवेग से तारा को लौटा देने का परामर्श देता है। अशनिवेग यद्ध की धमकी देता है, किन्त उसकी माता तारा को पवन के साथ लौटा देती है। पवन तारा को लेकर वापिस लौट जाता है और विजयनरेश को सौंपता है।
काव्य-समीक्षा : इस काव्य की कथा काल्पनिक है, इसमें १०१ श्लोक मन्दाक्रान्ता छन्द में निबद्ध हैं। वियोग-शृङ्गार का चित्रण है। भाषा प्रवाहपूर्ण, प्रासादिक है। भावों के अनुरूप भाषा है। अपनी पत्नी तारा के प्रति विजयनरेश के उच्च भावों का कवि ने निदर्शन किया है। यथा - नार्यस्तारामनु च भुवने भाग्यसौभाग्यवत्यो नार्यस्तारामनु च भुवने शीलसम्पन्ननिवासाः। नार्यस्तारामनु च भुवने भर्तृभक्त्यैकरागाः कम मारला व किमल नार्यस्तारामनु च भुवने दीनदानप्रदात्यः ।। ३३ ।। जीवन

  • कवि ने यहाँ तारा के सौभाग्य, शील, पतिभक्ति आदि का उत्कृष्ट चित्रण किया है। रानी की विरहावस्था का चित्र भी भावपूर्ण है। कहीं-कहीं मेघदूत की छाया स्पष्ट है। उच्चकोटि की कविता के साथ ही इस काव्य में उच्च नैतिक, धार्मिक भाव भी समाविष्ट हैं। यथा - FIPRIT EDITr 17१. प्रायो भवति महतां संगतेः पापहानिः ।। ५।। : शाकात २. प्रायः सन्तः सकलसमये रङ्गभगे न शूराः।। ४।।काजील 15 का ३. प्रायः सन्तः शिशतरुणिष ह्या चित्ता भवन्ति।। १६ ||