२८ चरित्रसुन्दरगणि का शीलदूत

यह काव्य भी मेघदूत के पद्यों के अन्तिम चरणों को लेकर समस्यापूर्ति के रूप में लिखा गया है। श्रीचरित्रसुन्दरगणि सत्तपोगच्छ के नेता श्रीरत्नसिंहसूरि के शिष्य थे। कवि ने इसकी रचना १४३१ ई. में गुजरात प्रान्त के खम्भात तीर्थ में की है। इसके अतिरिक्त लेखक के अन्य ग्रन्थ हैं - कुमारपाल-महाकाव्य, आचारोपदेश और महीपालचरित। - काव्य की कथा : स्थूलभद्र नामक एक जैन राजकुमार पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर विरक्त होकर पर्वत पर आश्रम में रहने लगता है। जैनधर्म की दीक्षा लेने के पश्चात् जब वह अपनी नगरी में लौट आता है तब उसकी रानी कोशा उसको पुनः गृहस्थाश्रम में आने के लिये प्रेरित करती है। इस प्रसंग में वह अपनी दीनावस्था का वर्णन करती है, संयम के अतिरिक्त दानधर्म, दयाभाव और परोपकार को मुख्य धर्म बताती है, बार-बार पति से राजधानी लौट आने का अनुरोध करती है। इस प्रसंग में राजधानी का उदात्त और शृङ्गारमय वर्णन है। रानी के वचनों का स्थूलभद्र पर प्रभाव न देखकर रानी की चतुरा नामक सखी रानी की विरहावस्था का वर्णन करती है। ये वचन सुनकर स्थूलभद्र अपनी रानी से कहता है- “आर्ये तुम भी जैन धर्म को स्वीकार कर लो, शील को अपनाओ, गुणी पुरुषों के लिये दान दो और तप के द्वारा अपनी आत्मा शुद्ध करो।" यह उपदेश सुनकर कोशा की भोग-तृष्णा नष्ट हो जाती है और वह जैनधर्म का पालन करती हुई, शील-साधना से पति-प्रेम के प्रभाव से स्वर्ग जाती है। सूरीश पद प्राप्त करके स्थूलभद्र भी स्वर्ग चला जाता है। शामल है। काशी सोय क १. यशोविजय जैन ग्रन्थमाला वाराणसी से वीर सम्बत् २४३E में प्रकाशित। क कि PET कमाण ३४८ काव्य-खण्ड काव्य-समीक्षा : मेघदूत के पद्यों के चतुर्थ चरण को लेकर समस्या पूर्ति के रूप में यह काव्य लिखा गया है। इसमें शील की प्रधानता होने से इसका ‘शीलदूत’ नाम रखा है। इस काव्य में विप्रलम्भ शगार की अपेक्षा शान्त रस की प्रधानता है। कवि ने सर्वत्र अपनी मौलिक कल्पना-शक्ति का परिचय दिया है। काव्य की भाषा सरस तथा ललित है। सुन्दर उत्प्रेक्षा, श्लेष तथा अनुप्रास की छटा दर्शनीय है। गंगा की उठती हुई तरंगों को लेकर सुन्दर उठोक्षा की है - 14कार दिदीक्षामेषा तव सुरनदी वारयत्यूमिरावैः। सन्काई । जी लोपा को पश्य स्वामिन् बहुपरिचिता प्रेयसीवेयमुच्चैः।। ४४ ।। या जिक कवि ने राजधानी का उदात्त और शृङ्गारमय वर्णन किया है। विरहिणी कोशा की उत्सुकता, स्मृति और उत्कण्ठा का वर्णन सजीव चित्र उपस्थित करता है। कहीं-कहीं शृङ्गार रस के प्रसंग में कही गयी उक्तियों को सुन्दर ढंग से शान्तरसपरक बनाया है। स्थूलभद्र अपने वैराग्य का वर्णन करता है - Pई निहलाकार नारी यस्मिन्नमृतसदृशी मे बभूवाद्य यावद्ध र कांता कि यही है रागग्रस्ते मनसि मदनव्यालविध्वस्तसंज्ञे। गीतमा कीला मा ध्वस्ते रागे गुरुभिरभवत् क्वेडवत् साऽप्यनिष्टा गाना नित । कलिलामीम या तत्र स्याद् युवतिविषये सृष्टिराधेव धातुः।। ८६॥ याती।