२३ चातकसन्देश

१७८५-१७६२ ई. के मध्य किसी अज्ञातनामा केरलीय कवि द्वारा लिखा गया ‘चातक-सन्देश’ मिलता है, जिसका सन्देश-काव्यों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस काव्य में १. जर्नल आफ दि रायल एशियाटिक सोसायटी के सन् १८८१ के सूची पत्र के पृ. ४५१ पर इष्टव्य, अप्रकाशित।१४१ श्लोक हैं जो दो भागों में विभाजित हैं। १८वीं शती के केरल राज्य की स्थिति का ज्ञान इस काव्य से होता है। विप्रलम्भशृङ्गार को इस काव्य में स्थान नहीं है। सन्देश-काव्य के प्रारम्भिक श्लोक से काव्य की स्थिति का आभास हो जाता है। यथा - - कश्चित्काले बलवतिकलौ केरलार्थे तुरुष्कै राक्रान्ते तत्करहतधनो भूसुरः कातरात्मा। का नश्यन्नानाविभवविधुरं नावलम्ब कुटुम्ब ना जाति का । पश्यन्दीनो दिनमनुदशां शोचनीयाममासीत्।। मैसूर के टीपू सुलतान ने जब केरल पर आक्रमण किया था, उस समय कवि के कुटुम्ब की सम्पत्ति विनष्ट हो गई और आर्त होकर वह तिरुवनन्तपुर के महाराजा कार्तिक तिरुनाल से आर्थिक सहायता के लिये मिलता है। महाराजा ने धनादि से नम्बूदरी का सम्मान किया। काल के कुचक्र में नम्बूदरी रोगग्रस्त वापस चले गए । एक दिन ग्राममन्दिर में देवी भगवती का भजन कर रहे थे, उसी समय उन्होंने एक चातक को देखा तथा महाराजा के पास अपना सन्देश भेजा। सन्देश-काव्य के पूर्वार्द्ध में महाराजा का माहात्म्य है तथा उत्तरार्द्ध में उसका अनुग्रह वर्णित है। इस काव्य में वर्णित देवता, वहाँ के देवालय, नदियाँ, महानगर, तीर्थक्षेत्रों का सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्व है। कवि ने चातक को प्रसिद्ध पद्मनाभपुर प्रासाद जाने के लिये कहा है, वहाँ राजा का निवास स्थान है। अन्त में वह सन्देश प्राप्तकर्ता राजा का विवरण देता है। यहीं पर काव्य समाप्त होता है। ERA