२१ तैलंग व्रजनाथ का मनोदूत

‘मनोदूत’ सन्देश-काव्य के लेखक व्रजनाथ तैलंग वंश के श्रीभूधर भट्ट के पौत्र तथा रामकृष्ण के पुत्र पंचनद के निवासी हैं। व्रजनाथ ने सं. १७५८ ई. में यह काव्य लिखा है। कवि ने इस काव्य पर स्वयं टीका लिखी है। इस काव्य का दूसरा नाम ‘सहृदय हृदयालादन’ है। काव्य-सार : इस काव्य की कथा महाभारत की द्रौपदीचीरहरणघटना पर आश्रित है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में यज्ञ-सभा की समृद्धि देखकर दुर्योधन को ईर्ष्या होती है। मणियों की आभा से वह भ्रमवश द्वार को भित्ति तथा भित्ति को द्वार समझ लेता है। इसी प्रकार गरुडमणियों से जटित स्थल को जल समझ कर वह अपने वस्त्रों को समेटने लगता है तथा कमलों से युक्त जलसहित सरोवर को स्फटिक मणियों से निर्मित स्थल समझ कर वह पानी में गिर पड़ता है। दुर्योधन की इन भान्तियों को देखकर भीम और द्रौपदी उसकी हँसी उड़ाते हैं। इन घटनाओं की परिणति द्यूत और द्रौपदी के चीरहरण में होती है। द्रौपदी अपने मन को दूत बनाकर श्रीकृष्ण के पास भेजती है। जब दुःशासन द्रौपदी के वस्त्र उतारना प्रारम्भ करता है, भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ पर पहुँचते हैं और अपनी अनन्त शक्ति से नाना वर्ण तथा नाना प्रकार के वस्त्रों से द्रौपदी को ढंकते जाते हैं। अन्त में दुःशासन हार कर वहीं सभा में गिर पड़ता है तथा द्रौपदी के शील की रक्षा हो जाती है। पाण्डवों पर भी कृष्णजी की अनन्त शक्ति का प्रभाव पड़ता है। १. निर्णयसागर प्रेस बम्बई से काव्यमाला के त्रयोदश पुष्प में प्रकाशित । ३४२ काव्य-

1 .HD काव्य-सौन्दर्य : ‘मेघदूत’ के अनुकरण पर लिखे गये इस काव्य में २०२ श्लोक शिखरिणी छन्द में हैं। छन्द का प्रयोग सर्वथा नवीन है, विषय में भी नावीन्य है। प्रवाहयुक्त प्रासादिक भाषा से इसका दूसरा नाम ‘सहृदयहृदयालादन’ उपयुक्त है। श्रीकृष्ण-भक्त तथा साहित्य-प्रेमियों के लिये यह काव्य उपादेय है। भाव, भाषा तथा छन्द की दृष्टि से यह काव्य नवीन रचना है। भवभूति की प्रिय शिखरिणी छन्द में यहाँ भी कवि ने करुण रसपूर्ण कृष्णभक्तिपरक सरस सन्देश-काव्य की रचना की है। ‘मनोदूतम’ सन्देशकाव्यों की परम्परा में अपने ढंग का निराला ही काव्य है। वास्तव में इसमें सन्देशकाव्य, स्तोत्र तथा खण्डकाव्य- इन तीन काव्य-प्रकारों का कवि ने समवाय कर दिया है। अन्य सन्देशकाव्यों की भाँति इसमें कथाभाग अत्यल्प या शून्य नहीं है, अपितु कवि ने द्रौपदी के चीरहरण के पूर्व तक की महाभारत की कथा का विस्तार से विवरण दिया है, जिसमें युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ का वर्णन तो महाकाव्यात्मक वर्ण्यविस्तार के साथ किया गया है। आरम्भ में १३२ पद्यों में कवि ने आदि पर्व की कथा का निरूपण कर दिया तैलङ्ग व्रजनाथ एक पण्डित विदग्ध कवि हैं। उन्होंने कथा-निरूपण में अपने दार्शनिक तथा शास्त्रीय ज्ञान का परिचय सम्यक् रूप से दिया है। यज्ञविधि तथा यज्ञानुष्ठान के समय वेदपाठ आदि के चित्रण में उनका ज्ञान प्रशंसनीय है। द्रौपदी अपने मन को दूत बनाकर श्रीकृष्ण के पास भेजती है। उसके कथनों में हस्तिनापुर से द्वारका तक का मार्गवर्णन भी प्रामाणिक भौगोलिक ज्ञान तथा विविध भारतीय नगरों के वर्णन के साथ किया गया है। द्वारका में विराजमान श्रीकृष्ण के विग्रह के चित्रण में सौन्दर्य, भक्ति और रस की त्रिवेणी का समागम कवि ने कर दिया है - एक कहा - मिका घमादुकूलं हेमामं निजकटितटेऽसौ परिदधत् कि शिगिक नाम फिदि ति सुकाञ्च्या रत्ननानां निविडमुपनद्धं यदुपतिः। शिणलाकार को दधानः श्रीवत्सं हृदि सुविलसत्कौस्तुभमणि- जिम्क किया महानन्दाम्भोधिनयपथमायास्यति स ते।। (१५८) की कार द्रौपदी का अतिशय आर्तभाव से किया गया श्रीकृष्ण के प्रति आह्वान इस काव्य का अत्यन्त मार्मिक प्रसंग है, जिसमें कवि ने अपनी वाणी को भक्ति, समर्पण और निरीहता की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है। पदावली की मसृणता अत्यन्त ही मोहक है। उदाहरणार्थ उदासीना दीना मृदुहसितहीना नतमुखी कि नकाश निलीना स्वेष्वनेष्वहह सुखहीना यदुपते। किलिक कि निहीना कीनाशाधिकभयकरैरन्धतनयैः सभायामासीना द्रुपदतनया पीड्यत इह।। (१७०) सन्देशकाव्यपरम्परा ४३४३