संस्कृत-साहित्य में रामपाणिवाद को मूर्धन्य महाकवि माना जाता है। इनको केरल का क्षेमेन्द्र कहा जाता है। इन्होंने महाकाव्य, गीतिकाव्य, शतककाव्य, स्तोत्र-काव्य तथा रूपकों की रचना की है। इनमें प्रमुख हैं ‘राघवीयम्’ नामक महाकाव्य, भागवतचम्प, शिवशतकम्, मुकुन्दशतकम्, रामभद्रस्तोत्र । रूपकों में ‘सीताराघवम्’ (नाटक), चन्द्रिकावीथी, लीलावतीवीथी और मदनकेतुप्रहसन प्रमुख हैं। ‘कंसवहो’ तथा ‘ऊषानिरुद्धम्’ प्राकृत काव्यों की रचना के सन्देशकाव्यपरम्परा ३३६ साथ ही इन्होंने छन्दशास्त्र पर ‘वृत्तवार्तिक’ तथा संगीतशास्तविषयक ‘तालप्रस्तर’ नामक ग्रन्थों की रचना भी की है। ‘रासक्रीडा’ खण्डकाव्य है। सन्देशकाव्यों में रामपाणिवादरचित ‘सारिकासन्देश’ अनुपम काव्य है। इसकी रचना १८वीं शदी के मध्यकाल में की गयी।
काव्य-सार
सारिकासन्देश’ इस काव्य में दूती का कार्य एक सारिका ने किया है। मनुष्य के समान बुद्धि और वाणी से युक्त होने के कारण वह सन्देश भेजने के लिये योग्य है। इस काव्य की कथा इस प्रकार है- एक दिन यमुना के तट पर एक गोपी कृष्ण के साथ रासक्रीडा में प्रणयकलह से कामार्ता होकर भी यमुना के लताकुञ्ज में छिप गयी। कुछ काल के पश्चात् कष्ट से असत्य होकर वह लताकुञ्ज से बाहर आयी और वहाँ भगवान् कृष्ण को न देखकर आश्चर्यचकित हो गयी। कृष्ण-विरह से व्याकुल होकर वह गोपी इस प्रकार विलाप करने लगी-, ‘हे गोविन्द मैं तो प्रणयकोप से कुज में चली गयी थी। तुम निर्दयी होकर कहाँ चले गये हो? आपको अन्यासक्त समझकर मैंने यह क्रूर व्यवहार किया, कृपया मेरी धृष्टता को क्षमा करें।’ जब वह इस प्रकार विलाप करती हुई वृन्दावन में कृष्ण को खोजती हुई घूम रही थी, तब इस प्रकार आकाशवाणी सुनाई दी - “हे मदिरनयने, तुम्हारे गर्व और प्रणयकोप से ही वह स्वाभिमानी कृष्ण तुम्हें त्यागकर केरल में अमलपुल्ला के पवित्र देवालय में निवास कर रहे हैं। तुम उनके पास सन्देश भेजो।” यह आकाशवाणी सुनकर गोपी ने सारिका की प्रशंसा करके निवेदन किया कि वह अमलपुल्ला जाकर कृष्ण से उसका प्रेम-सन्देश प्रेषित करे। कवि ने यहाँ सारिका को समृद्ध हरे-भरे खेतों में रमण करने को और सुदूर प्रान्तों से आये हुए उसके बन्धुजनों से मिलने को कहा है। तत्पश्चात् मन्दिर के परिसर की, वहाँ रहने वाले विद्वानों की, कवियों की तथा तत्कालीन नृप देवनारायण की संस्तुति की है। गोपी ने सारिका को एक दिन में ही वहाँ पहुँचने पर पीपल वृक्ष पर विश्राम लेने का परामर्श दिया है। मध्याह्न-पूजा के पश्चात् कृष्ण को प्रणाम करके सन्देश सुनाने का आदेश दिया है। शीला सन्देश में नायिका ने अपनी विरहावस्था का वर्णन करके श्रीकृष्ण की संस्तुति में उनके दशावतारों का काव्यात्मक वर्णन किया है। उनके बालावस्था के अलौकिक कार्य जैसे पूतनामोक्ष, गोवर्धन पर्वत को उठाना तथा कालियामर्दनादि का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् रासक्रीडा में गोपी को अकेला ही छोड़कर जाने का वर्णन है। सन्देश के अन्त में अभिज्ञान के लिये कहा है कि एक दिन जब वह अपने प्रिय कृष्ण की प्रतीक्षा कर रही थी, उसने धीरे से पीछे से आकर आँखों पर हथेली रखकर मूंद दिया था। सारिका अमलपुल्ला जाती है। वहाँ देवालय में स्थित कृष्ण को गोपी का सन्देश सुनाती है। कृष्ण सन्देश सुनकर प्रसन्न होते हैं और शीघ्र ही नायिका के पास जाने का आश्वासन देते हैं। सारिका जब वृन्दावन लौट कर आती है तब वहाँ यमुनाकुञ्ज में श्रीकृष्ण को गोपी के साथ रासक्रीडा में मग्न देखकर आश्चर्यचकित होती है। गोपी को प्रसन्न करके भगवान् लौट जाते हैं। यहीं काव्य समाप्त होता है। ३४०
काव्य-समीक्षा
इस काव्य का ‘सारिका-सन्देश’ नाम उपयुक्त है। मानव के समान बुद्धि और वाणी से युक्त सारिका को सन्देश-वाहिका बनाना कवि की कल्पनाशीलता का परिचायक है। कवि ने इस काव्य को मन्दाक्रान्ता छन्द में ११५ श्लोकों में निबद्ध किया है। कवि को इस काव्य की प्रेरणा ‘भागवत’ से मिली है। भागवत के दशम स्कन्ध में गोपियों ने भ्रमर को दूत बनाकर कृष्ण के पास सन्देश देकर भेजा है। ‘रासक्रीडा’ के प्रसंग में दूत भेजने का प्रसंग नहीं है। वहाँ तो कृष्ण भगवान् गोपियों के अभिमान को दूर करने के लिये अन्तर्धान हो जाते हैं। कवि ने अपनी प्रतिभा से दोनों प्रसंगों को मिलाकर नूतन कल्पनावैभव से युक्त इस काव्य की रचना की है। संस्कृत साहित्य में वियोगावस्था में प्रणयकलह प्रमुख कारण होता ही है। इस काव्य का ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व है। गोपी की विरह भावनाओं का स्वाभाविक चित्रण है। सभी वर्णन सजीव और रोचक हैं। इस काव्य में विप्रलम्भ शृङ्गार के साथ ही प्रेम-भक्ति-रस का सौन्दर्य अनुपम है। इस काव्य में उपमा, उत्प्रेक्षा, उदात्त, अर्थान्तरन्यास, रूपक, विरोधाभास, काव्यलिङ्ग, यमक, अनुप्रासादि अलङ्कारों का स्वाभाविक सौन्दर्य विद्यमान है। 1 रामपाणिवाद की इस रचना में माधुर्यभक्ति की सरस अभिव्यक्ति हुई है। भाषा की प्रांजलता तथा लालित्य ने विषयवस्तु का अनुभव विशद बना दिया है। इसके साथ ही कहीं-कहीं नवीन परिकल्पना या अप्रस्तुत विधान भी प्रभावित करने वाला है। रामपाणिवाद के वर्णनों में चित्रोपमता तथा विषयानुरूप पदों का सानुप्रासिक अनुरणन मिलता है। कालिय पर नाचते हुए कृष्ण के नृत्य का स्मरण करती हुई गोपी कहती है - FIREDM-15 5155 शृङ्गे शिजत्कनकवलयश्रणिकाञ्चीकलाप-गंगा करना रात लाए न्यञ्यञ्चन्नञ्चत्प्रचुर चिकुरसस्तपिच्छावतंसम्। मानिन्छा वेल्लच्चिल्लीयुगलललितापाङ्गशृङ्गारभङ्गीतिक तक शोक दिन का ति सङ्गीतादिप्रकृतिसरसं नृत्तमत्यद्भुतं ते।। (७८) का। २ कालिय नाग के फणों पर नृत्य करते हुए आपके स्वर्णवलय तथा काञ्ची बज रही थी, बार-बार नीचे झुकने के कारण केश छितरा गये थे तथा मयूरपिच्छ सरक गया था, भौंहे थिरक रही थीं, उससे कटाक्ष की ललित छटा निर्मित हो रही थी। ऐसा वह आपका नृत्त अत्यन्त अद्भुत था। विरह में गोपियों की भावकतानकता, कृष्ण की स्मृति और विप्रलम्भ का कारुणिक चित्रण कवि ने तन्मयीभाव के साथ किया है। तदनुरूप भाषा का बड़ा सटीक प्रयोग अनेक स्थानों पर कवि की प्रातिभ निपुणता का परिचायक है। उदाहरणार्थ हा हा कष्टं रुदिहि रुदिहीत्यारुदन्तार्तनाद ना कि शिरि दहा अपमाविष्ट त्ववृत्तान्तं वनतरुलताः पृच्छ पृच्छेत्यपृच्छन् ।। जालसामाशिक शासन ३४१ सन्देशकाव्यपरम्परा शाति , विगाथारूपं तव हि चरितं गाय गायेत्यगायन प्रज गोप्यश्चेरुर्बत चर चरेत्यूढकान्ते वनान्ते।। (२) गाडी - वे गोपियाँ आर्तनाद करती हुई मिल-मिलकर लगातार बार-बार रोती थीं, तुम्हारा वृत्तान्त जंगल के पेड़ों और लताओं से - पूछो, पूछो - यों कह कर मानों बार-बार पूछती थीं, तुम्हारा चरित गाथाओं में बाँध-बाँध कर गाओ-गाओ करती हुई लगातार गाती थीं-, और वे बावरी होकर जंगल में भटकती रहती थीं। जयदेव की भाँति कवि रामपाणिवाद ने भी अपने काव्य में कृष्णभक्ति के साथ शृङ्गार का समन्वय कर दिया है। माधुर्य तथा प्रसाद से युक्त यह सुन्दर सन्देश-काव्य है। कवि ने इतिहास, पुराण के ज्ञान का काव्य में यथोचित प्रयोग किया है। कवि की सूक्ष्म-दृष्टि और मौलिक प्रतिभा के सर्वत्र दर्शन होते हैं। यह काव्य साहित्यिक, आध्यात्मिक और धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रचना है। वैष्णव-भक्तों के लिये यह उपादेय है।